Homeबुन्देलखण्ड के साहित्यकारMotilal Pandey ‘Dinesh’  मोतीलाल पाण्डे ‘दिनेश’

Motilal Pandey ‘Dinesh’  मोतीलाल पाण्डे ‘दिनेश’

कवि पं. मोतीलाल पाण्डेदिनेश’ का जन्म जिला छतरपुर की बड़ामलहरा तहसील के सेंधपा ग्राम में सन् 1920 में हुआ था। Pandit Motilal Pandey ‘Dinesh’ के पिता का नाम श्री कुन्टाई पाण्डे था, ये गाँधीवाद से प्रभावित थे। इनके पूर्वजों ने 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय हिस्सा लिया था।

कवि पं. मोतीलाल पाण्डेदिनेश’ मूलतः झाँसी जिले के ग्राम बार के निवासी थे। बाद में सेंधपा में आकर बस गए थे। उन्होंने हिन्दी व उर्दू की मिडिल परीक्षा पास की तथा बाद में मैट्रिक पास किया। इन्होनें बिजावर स्टेट में मुसद्दी, पेशकार, कैशियर, कस्टम आफीसर तथा अध्यापक के पदों पर काम किया।

पेशकार के रूप में पन्ना जिले की करैया तहसील में भी पदस्थ रहे। प्रारंभ से ही कवितायें लिखने में रुचि रही। दीवान से अनबन होने पर उन्होंने तत्कालीन बिजावर स्टेट की नौकरी छोड़कर आजादी की लड़ाई में सक्रिय भागीदारी की।

कवि पं. मोतीलाल पाण्डेदिनेश’ ने प्रजा मण्डल तथा कांग्रेस को स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में माध्यम बनाया। देश के आजाद होने के बाद बिजावर में हरिजन आश्रम की स्थापना की तथा वहीं पर शिक्षक के रूप में काम करते हुए आश्रम

अधीक्षक से सेवा निवृत्त हुए। इनकी एक प्रबंध काव्य कृति सुदामा चरित’ अप्रकाशित है। इसके अतिरिक्त फुटकर छन्द भी लिखे हैं। इनके पुत्र पं. देवकीनन्दन पाण्डेय अप्रकाशित साहित्य को प्रकाशित कराने का प्रयत्न कर रहे हैं। कवि पं. मोतीलाल पाण्डेदिनेश’ का देहावसान धनतेरस के दिन अक्टूबर माह में सन् 1992 को हुआ।

भारती वन्दना

शुभ्र नवनीत सौ पुनीत पंख वाला हंस,
तापै मृदु मूर्ति मैया शारदा बिराजी हैं।

एक कर कंज में सरस स्वर पुंज वीणा,
दूजै कर कंज मंजु मुक्ता माल राजी है।

तृतीय चतुर्थ कर मध्य पुष्प पुस्तक है,
ज्ञानि की है खानि अति सुषमा सुसाजी है।

श्वेत वरवस्त्र दिव्य अंगनदिनेश’ सजैं,
लखकैं उदोत कोट चन्द्र ज्योति लाजी है।।
(सौजन्य : श्री देवकीनन्दन पाण्डेय)

शुभ्र नवनीत के पावन पंखों वाले हंस पर सौम्यता की साक्षात् मूर्ति माँ सरस्वती विराजमान हैं। वे एक हाथ में मधुर स्वर निनादित करने वाली वीणा को तथा दूसरे हाथ में मोतियों की माल लिए हैं। तीसरे व चौथे हाथ में क्रमशः फूल व किताब लिए हैं। आप ज्ञान की भण्डार, सौन्दर्य की देवी है। श्वेत वस्त्रों में माँ के अंग प्रकाशमान हो रहे हैं। कवि दिनेश कहते हैं कि सरस्वती के दिव्य आलोक के समक्ष हजारों चन्द्रमाओं की ज्योत्सना लज्जित हो जाएगी।

कालिका वन्दना

कंपत है भूमि, भानु कंपत गराज सुन
देख वक्र चक्र शक्र हू की शान टूटती।

भीषण विशाल विकराल वेश कालका कौ
लख कै कराल काल हू की जान छूटती।।

प्रबल प्रचंड चंडिका कौ दण्ड छूटत ही
दण्डियों घमंडियों की यह मुंडी फूटती।

ऐसी बलखान अम्ब करत बिलंब कैसौ,
आज मोरे बैरी कौ करेजौ क्यों न कूटती।।
(सौजन्य : श्री देवकीनन्दन पाण्डेय)

सूर्य व पृथ्वी आपको देखकर काँपते हैं। आपके तिरछे चक्र को देखकर देवराज इन्द्र की शान फीकी पड़ती है। कालिका देवी का भीषण और भयावह वेश है जिसे देखकर कठिन कष्टदायी काल की भी जान जाती है। बलशाली श्रेष्ठिका चंडिका देवी का दण्ड प्रहार होते ही दण्ड देने वाले अन्यायी शासकों व गर्वोन्मत्तों का सिर फूटता है। कवि विनय करता है कि हे माता! आप उपर्युक्त बलों की आगार हो फिर यह देरी क्यों? मेरे शत्रुओं का वध क्यों नहीं करती हो?

सुदामा चरित के कुछ छंद
कवित्त

छोटी सी लंगोटी फटी कटि में लसी है एक,
जीर्ण शीर्ण वस्त्र देत तनु पै दिखाई है।

छीन हीन गात दीन दुखित मलीन मुख,
बिन पद त्राण फटी पायनु बिवाई है।।

द्वार पै खड़ियो है एक निबल दरिद्र द्विज,
भाखत हमारी द्वारिकेश सौ मिताई है।

दर्श हेतु आयौ है बतायौ है सुदामा नाम,
दीनानाथ मोरे हांथ खबर जनाई है।।
(सौजन्य : श्री देवकीनन्दन पाण्डेय)

फटी हुई छोटी सी लंगोटी कमर में लगाये, फटे पुराने वस्त्र पहने, कृशकाय, दुखित व श्रीहीन मुखवाला जिसके पैरों में जूता व चप्पल नहीं है, द्वार पर एक गरीब ब्राह्मण खड़ा है। जो कह रहा है कि द्वारकाधीश से मेरी मित्रता है। वह अपना नाम सुदामा बताते हुए कहते हैं कि आपके दर्शनों हेतु वह आया है। हे दीनों के स्वामी! उसने मेरे द्वारा यह सन्देश भिजवाया है।

सुनत सुदामा नाम जागी है पुनीत प्रीत,
लागी रचै सुरति अतीत के सुमित्र कौ।

पुलकि शरीर नैन नेह नीर छायौ मंजु,
दौर द्वार आयकैं विलोक्यो दीन मित्र कौ।।

धायकैं लिपट लागे रंग अंक जाय श्याम,
शशि निज नाय चूम्यो पायनु पवित्र कौ।

नाम लै सराहै लगे देव द्विज भूरि भाग्य,
सुमन प्रवाहै लगै निरखु चरित्र कौ।।

सुदामा का नाम सुनते ही कृष्ण के मन में पवित्र प्रेम जाग गया तथा वे अतीत के उन क्षणों में खो गये जो सुदामा मित्र के साथ बीते थे। पुलकित हो नेत्रों में खुशी के आँसू आ गये ऐसी स्थिति में उन्होंने दौड़कर दरवाजे पर आकर अपने निर्धन मित्र को देखा और उसको छाती से लगाकर लिपट गए। उस ब्राह्मण के पवित्र पैरों को शीश झुकाकर चूम लिया। ऐसा दृश्य देखकर देवता सुदामा का नाम लेकर उसके भाग्य की सराहना करते हुए पुष्पवर्षा करने लगे।

बसन बिहीन होत देखि छोटी पोटली को
काँख में रहे हैं दाब बिप्र सकुचाय कें।

लख घनश्याम तबै पूँछन लगे कै मित्र,
भाभी का पठायो आप राख्यौ का दुराय कें।

मौन दुखी दीन को संकोच सिन्धु डूबो जान,
एक मुट्ठी में निकार हर्ष लीन्हें,

मुख डार औ सराहै लगे खायँ कें।।
(सौजन्य : श्री देवकीनन्दन पाण्डेय)

सुदामा पोटली को वस्त्रहीन होने के भय से अपनी काँख में संकोच के साथ दबाये रहे। उस पोटली पर दृष्टि पड़ते ही कृष्ण ने पूछा कि मित्र मेरे लिए जो भाभी ने भेजा है उसे आप छिपा रहे हैं। इस पर सुदामा दुखी मन से मौन साध कर रह गए। ऐसी स्थिति में सुदामा को देखकर कृष्ण ने व्याकुल होकर वह पोटली छीन उसकी गांठ खोल ली। पोटली में चावलों को देखकर प्रसन्नतापूर्वक एक मुट्ठी चावल उसमें से हाथ में ले लिए एवं उसमें से कुछ चावल मुँह में डालकर खाते हुए उनकी सराहना करने लगे।

सुन्दर असन निज मातु भौन पाए, खाए,
दध, नवनीत दूध मिश्री गोपि ग्रामा के।

रुक्मिणी हू ने बिबिध व्यंजन जिमाए और
पाए हैं सदा ही से बनाए सत्यभामा के।

भोजन सुमंजु में जहाँ और तहाँ कीन्हे किन्तु,
ऐसे न सुहाए हैं रचाये काऊ बामा के।

जैसे स्वादु पुंज आज भाभी के पठाए पाए
खाँयें मोहि भाए ल्याए तंदुल सुदामा के।
(सौजन्य : श्री देवकीनन्दन पाण्डेय)

अभी तक मैंने यशोदा माता के घर सुन्दर आसनों पर विराजकर सुस्वादु भोजन किए, ब्रज की ग्वालिनों से दही, दूध व माखन खाया। रुक्मणी व सत्यभामा ने भी विविध स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर खिलाये हैं। यहाँ-वहाँ निमंत्रणों में विविध स्वाद के भोजन किए किन्तु किसी भी स्त्री ने इतना सुस्वादु भोजन पकाकर नहीं कराया जितने स्वादिष्ट ये भाभी (सुदामा पत्नी) के भेजे चावल हैं। मुझे सुदामा द्वारा लाये गए ये चावल बहुत स्वादिष्ट लगे हैं।

विनय के कवित्त

औगुन भरोहौं पुंज पातकी खरो हौं महां,
माया में परो हौ सो कहानी क्या सुनाऊँ मैं।

अधम गवाँर हूँ न एक हू अधार स्वामी,
कैसे कें अपार भव सिंधुपार जाऊँ मैं।

जो पै नाथ आप ही घृणात मों अनाथ से तों,
कौन द्वार दीनानाथ दीनता दिखाऊँ मैं।

आप ही बताएँ और कौन ठौर जाऊँ देखें,
आप सो दयालु दीन बन्धु कहाँ पाऊँ मैं।
(सौजन्य : श्री देवकीनन्दन पाण्डेय)

मैं अवगुणों से भरा, पापों का समूह और माया से ग्रस्त हूँ। मैं अपनी क्या कहानी सुनाऊँ? मैं गाँव का रहने वाला अधम हूँ, मेरे जीवन में हे स्वामी! आप ही हैं। इस कठिन भवसागर रूपी जीवन से मैं कैसे बिना आपके पार हो सकता हूँ ?

यदि हे स्वामी! आप ही हमसे घृणा करते हो तो मैं अनाथ किसके दरवाजे पर जाकर अपनी दीनता की विनती सुनाऊँ? अब आप ही बताइये कि मैं किसके यहाँ जाकर अपनी प्रार्थना सुनायूँ। मैं आप जैसा दया का भण्डार और गरीबों का हितकारी कहाँ पाऊँ?

चन्द्र बिना जैसे न चकोर को सुहावै भोर,
जैसे मोर बूंदन की मेह नेह खासा है।

जल के अधीन जैसे मीन हैं बिचारी दीन,
जैसे सदा चातिक को स्वाति भी पिपासा है।

दीप शिखा पै ज्यों आन बारते पतंगे प्रान,
जैसे अन्ध को हमेश चक्षु अभिलाषा है।

तैसे ही दिनेश कों बृजेश प्रभु प्यारे आप,
दीन की दया के धाम आप ही लौ आशा है।
(सौजन्य : श्री देवकीनन्दन पाण्डेय)

जिस प्रकार चकोर को चन्द्रमा बिना सुबह अच्छी नहीं लगती है। मयूरों के समूह को बादलों से स्नेह है। मछली अपना जीवन सदा पानी में ही पाती है तथा चातक स्वाति नक्षत्र की बूँद हेतु प्यासा रहता है। दीपक की लौ पर पतंगा अपना जीवन समर्पित कर देता है। अन्धे को सदा नेत्रों की चाह रहती है वैसे ही मुझ कवि दिनेश को ब्रजराज कृष्ण आप से ही आशा है। आप दीनों पर दया करने वाले हो, मुझ दीन पर भी दया कीजिए।

दीन प्रतिपालक दयालु नाम जैसो तैसो,
दीन पक्ष रक्ष देव दास को उबारिए।

माँगूँ दीन व्हैं कें दान कीजिए दया प्रदान,
दास अनुमान प्रभो, भव दुख टारिए।

देखिए न मेरी ओर मैं हूँ चाकरी कौ चोर,
वृत की निहोर स्वामी नाम अनुसारिए।

राखिए बृजेश मोंदिनेश’, दुखिया की लाज,
जीवन जहाज कौ सुमार्ग निर्धारिए।।
(सौजन्य : श्री देवकीनन्दन पाण्डेय)

आप दीनों के पालक, दयालुता के भण्डार हो इसलिए इस दीन दास को भी कष्टों से उबारिये। मैं दीन होकर आपसे दया की भिक्षा माँगता हूँ, हे! प्रभो, मेरे कष्टों को समाप्त कीजिए। मेरी ओर देखते मत रहिए, मैं तो दास हूँ। मेरे कष्टों के समूह को देख उनका परिहार कर अपने नाम को सार्थक कीजिए। जिस प्रकार ब्रजराज कृष्ण आपने दुखियों की लाज रखी उसी प्रकार मुझ दिनेश के जीवन रूपी जहाज को सही मार्ग पर चलने हेतु प्रेरित कीजिए।

सवैया

तारत आए अनेकन पातकी जाति की ओरन ध्यान धरो हैं
व्याध अजामिल गौतम गेहनी कौ, अघमार अपार हरौ है।

दिन, दिनेश, परो प्रभु पायन, पाप भरो त्रै ताप जरों है।
तारिए या दुतकारिए स्वामिन, पास में आस कै आन डरो है।
(सौजन्य : श्री देवकीनन्दन पाण्डेय)

आप जिस प्रकार विभिन्न पापियों का उद्धार करते आए हैं, उसी प्रकार मुझे भी सद्गति प्रदान करें। आपने व्याध, अजामिल, गौतम पत्नी अहिल्या आदि के कष्टों को दूर किया उसी प्रकार इस दिनेश कवि जो पापी हो आपके पैरों में पड़ा है, का तारण करिये। हे स्वामी! आप शीघ्रता कर मुझे मुक्ति दीजिए, मैं इसी आशा में पड़ा हूँ।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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