मोरी कही मान गैलारे, दिन डूबें ना जा रे।
आगूं गांव दूर लौ नइयां, नैया चैकी पारे।
देवर हमरे कछू ना जाने, जेठ जनम के न्यारे।
पानी पियो पलंग लटका दों,धर दूं दिया उजारे।
डर ना मानों कछू बात को, पति परदेश हमारे।
ईसुर कात रैन भर रइयो, उठ जइयो भुन्सारे।
जब सौंदर्य श्रृंगार कामिनी कामपीड़ा से इस तरह खुला एवं स्पष्ट आग्रह करे तो फिर इस कामजाल से बच पाना किसी पुरुष के लिए आसान नहीं होता है। महाकवि ईसुरी ने नारी की उस पीड़ा का वर्णन किया है जो विरह अग्नि में जल रही है।
पति घर पर नहीं है। उसे काम पीड़ा सता रही है। होली का त्योहार है। मनचले पिचकारी लिए घूम रहे हैं। वह भी रंग-गुलाल से खेलना चाहती है, किन्तु सामाजिक प्रतिबंध उसे ऐसी अनुमति कहाँ देने वाले हैं। वह अपने दिल की कसक किन शब्दों में व्यक्त करती है।