Maurya Period / Maurya Empire
Maurya Kal Maurya Samrajya भारतवर्ष का प्रथम सार्वभौमिक साम्राज्य था। मौर्य साम्राज्य, भारतीय इतिहास का वह साम्राज्य है, जिसकी उत्पत्ति शास्त्र और शस्त्र के संयोग की शक्ति का अद्भुत, अभूतपूर्व एवं सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं। शास्त्र ने शस्त्र को सामर्थ्य और शक्ति दी। जिसका बखान इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों से अंकित हैं।
वस्तुतः चाणक्य (विष्णुगुप्त, कौटिल्य) ने समय की वास्तविकताओं को खुली आँखों से देखा और वह कर दिखाया, जिसकी तार्किक परिणिति भारतवर्ष के प्रथम सार्वभौमिक साम्राज्य के रूप में सामने आयी। मौर्य साम्राज्य की स्थापना चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य की सहायता से की थी। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य का उपयोग नंद राजवंश के विघटन के लिए साधन के रूप में किया था।
वस्तुतः मौर्य साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक चाणक्य था, जो चाहता तो सम्राट बन सकता था, किन्तु उसने शास्त्र संवत् व्यवहार किया और चन्द्रगुप्त मौर्य को पाटलिपुत्र की गद्दी पर बैठाया और स्वयं उसका प्रधानमंत्री (सलाहकार) बना। चन्द्रगुप्त मौर्य, मौर्य साम्राज्य का प्रथम शासक था। मौर्य साम्राज्य ने 322 ईस्वी पूर्व – 184 ईस्वी पूर्व तक कुल 137 वर्षों तक शासन किया।
मौर्य साम्राज्य में 9 या 10 शासक हुए। चन्द्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार, अशोक जैसे महान् शासक मौर्य साम्राज्य के शासक थे। मौर्य साम्राज्य का अंतिम शासक ‘वृहदृथ’ था, जिसकी हत्या 184 ईस्वी पूर्व में उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने कर दी थी। लगभग 137 वर्षों के मौर्यों के सुदीर्घ शासनकाल में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, भाषा, शिक्षा, साहित्य एवं कला आदि सभी क्षेत्रों में मौर्यकालीन संस्कृति ने अपनी विशेषताएँ प्रगट कीं।
सामाजिक स्थिति
मौर्यकाल का सामाजिक जनजीवन मुख्यतः सनातन ब्राह्मण धर्म द्वारा विहित सामाजिक विधि – विधान पर आधारित था। अशोक के शासनकाल में बौद्ध धर्म – संस्कृति का अत्यधिक प्रभाव रहा। किन्तु फिर भी मौर्यकालीन समाजिक व्यवस्था की मूलभूत आधारशिला ब्राह्मण धर्म द्वारा निश्चित निर्धारित सामाजिक प्रणालियों पर ही चलता रहा।
वर्णाश्रम व्यवस्था
मौर्यकालीन संस्कृति की सामाजिक व्यवस्था की आधारशिला वर्णाश्रम व्यवस्था थी। समाज चार वर्णो में विभक्त था तथा आश्रम व्यवस्था मौर्यकाल में सुचारू ढंग से चल रही थी। समाज में लोग ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास आश्रमों का पालन कर रहे थे, यद्धपि यह व्यवस्था उच्च वर्णो में अधिक प्रचलित थी। मौर्यकाल में वर्ण व्यवस्था सुनियोजित परिपाटि पर चल रही थी, तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि, वर्ण व्यवस्था में कठोरता नहीं थी।
अशोक के कर्म के सिद्धान्त पर जोर देने तथा बौद्ध एवं जैन धर्मो के प्रभावों के कारण वर्ण व्यवस्था निश्चित रूप से लचीली रही होगी। लेकिन यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि, वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था में परिवर्तित होकर जन्म पर आधारित हो गयी थी। चातुर्य वर्णो में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोच्च था। अध्ययन – अध्ययन, शिक्षा – दीक्षा तथा शासन का सलाहकार, यह बौद्धिक वर्ग धर्म एवं संस्कृति का संरक्षक तथा संवर्धक था। कौटिल्य एवं मेगस्थनीज से ज्ञात होता है कि, ब्राह्मणों का जीवन ’सादा जीवन – उच्च विचार’ की युक्ति को चरितार्थ करता था।
अशोक के तीसरे शिलालेख में उल्लेखित है कि, ब्राह्मणों और श्रवणों की सेवा करना उत्तम है। ब्राह्मण प्रशासन के अनेक पदों पर आसीन थे। मौर्यकाल में क्षत्रिय सामाजिक व्यवस्था के प्रमुख अंग थे। क्षत्रिय शासक वर्ग था। स्वयं सम्राट क्षत्रिय वर्ण के थे। क्षत्रिय शासकीय सुविधा भोगी, प्रशासनिक पदों पर आसीन, सैन्य क्रिया कलापों में संलग्न रहता था। वैश्य, मौर्यकाल की सामाजिक व्यवस्था का एक धनाढ्य वर्ग था। व्यापार एवं वाणिज्य का संपूर्ण कार्य वैश्यों के हाथों में था। कुल मिलाकर मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था पर वैश्यों का आधिपत्य था।
वैश्य व्यापार, शिल्प एवं कृषि कर्म में संलग्न थे। वैश्यों की मौर्यकालीन समाज में अच्छी स्थिति थी। मौर्यकालीन सामाजिक व्यवस्था में शूद्रों का चौथा स्थान था। शूद्र वर्ग, श्रम कृषि एवं शिल्प, व्यवसाय करते थे। कौटिल्य शूद्रों को भी ’आर्य’ कहते हैं। शूद्रों को सम्पत्ति का अधिकार था। कौटिल्य ने शूद्रों को सेना में सैनिक के रूप में कार्य करने की अनुमति दी थी। मौर्यकाल में शूद्रों को नए विजित क्षेत्रों में जमीनें देकर कृषि करने को प्रोत्साहित किया जाता था। शूद्रों से समाज में ’विष्टि’ लेने के प्रमाण भी मिलते हैं।
मौर्यकाल में शूद्रों की सामाजिक एवं धार्मिक निर्योग्यताएँ विध्यमान थी, किन्तु इन पर कठोर प्रतिबंध नहीं था। अशोक के अभिलेखों में शूद्रों से अच्छे व्यवहार का निर्देश दिया है। मौर्यकालीन समाज में वर्ण संकर जातियाँ भी विद्यमान थीं। कौटिल्य ने 15 प्रकार की वर्ण संकर जातियों का उल्लेख किया है। जिनका प्रादुर्भाव अनुलोम – प्रतिलोम विवाहों तथा सामाजिक विधि – विधानों के उल्लंघन से हुआ होगा। ये मुख्य बस्ती से दूर अलग बस्ती में निवास करते थे। इन पर अनेक प्रकार के सामाजिक एवं धार्मिक प्रतिबंध थे। यूनानी लेखकों एवं मेगस्थनीज ने मौर्यकालीन समाज में सात जातियों – दार्शनिक, कृषक सैनिक, अहीर, कारीगर, निरीक्षक, मंत्री एवं परामर्शदाता का उल्लेख किया है।
दास प्रथा
दासप्रथा, प्राचीन भारतीय समाज की वास्तविकता थी। मौर्यकाल में भी दास प्रथा विद्यमान थी, हालांकि यूनानी लेखकों एवं मेगस्थनीज ने लिखा है कि, मौर्यकाल में दास प्रथा नहीं थी। वस्तुतः भारत में दासों के साथ इतना अच्छा व्यवहार किया जाता था कि, यूनानी लेखक दास प्रथा की विद्यमानता को पहचान नहीं सके। यूनान की तरह क्रूर एवं कठोर व्यवहार दासों के साथ नहीं होता था और इसी कारण यूनानी लेखक भारत में दास प्रथा को समझ नहीं पाये थे।
मौर्यकालीन समाज में दासों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाता था, उन्हें घरेलू नौकरों की तरह रखा जाता था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में नौ प्रकार के दासों का उल्लेख किया है। कौटिल्य ने बड़े पैमाने पर दासों को कृषि कार्यों में लगाये रखा था। दासों को सम्पत्ति रखने एवं बेचने का अधिकार प्राप्त था। इसके साथ ही, दासों को दासत्व मुक्ति का भी अधिकार था।
दास, सम्पत्ति या मूल्य प्रदान करके दास प्रथा से मुक्त हो सकता था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में दासों के साथ गलत व्यवहार करने पर दण्ड का प्रावधान किया था। अशोक ने भी अपने अभिलेखों में दासों के साथ समान एवं मधुर व्यवहार करने का निर्देश दिया है। अतः स्पष्ट है कि, मौर्यकालीन समाज में दासों की स्थिति पश्चिमी देशों की अपेक्षा बहुत अच्छी थी।
परिवार एवं विवाह
मौर्यकालीन समाज में संयुक्त परिवार व्यवस्था थी। परिवार पितृसत्तात्मक होते थे। समाज में विवाह एक पवित्र संस्कार माना जाता था। कौटिल्य ने आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख किया है- ब्राह्म, प्रजापात्य, आर्ष, देव, असुर, गान्धर्व, राक्षस एवं पिशाच विवाह। समाज में प्रथम चार विवाहों को उचित तथा अंतिम चार को अनुचित माना जाता था।
मौर्यकाल में सोलह वर्ष के लड़के एवं बारह वर्ष की लड़की का विवाह आदर्श माना जाता था। समाज में बहुविवाह, विधवा विवाह, पुनर्विवाह की प्रथा प्रचलित थी। समाज में अंतर्जातीय विवाहों को भी मान्यता प्राप्त थी। सगोत्र, सप्रवर, सपिण्ड विवाहों को अनुचित माना जाता था। समाज में अनुलोम – प्रतिलोम विवाहों के भी प्रमाण मिलते है।
स्त्रियों की स्थिति
मौर्यकाल में स्त्रियों की स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं थी। उनकी स्वतंत्रता पर पर्याप्त रुप से प्रतिबंध लगा दिया गया था तथा कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में सामाजिक कड़े नियमों के उल्लंघन पर अत्यधिक कठोर शारीरिक एवं आर्थिक दण्डों का उल्लेख किया है। स्त्रियाँ उच्च शिक्षा से वंचित हो गयी थी। स्त्रियों के विविध कलाओं में प्रवीणता के उल्लेख मिलते है। समाज में वेश्यावृति प्रचलित थी। राज्य ने वेश्यावृति पर निगरानी एवं नियंत्रण के लिए ’गणिकाध्यक्ष’ नामक पदाधिकारी की नियुक्ति की थी।
मौर्यकाल में स्त्रियों को विधवा-विवाह, संबंध-विच्छेद, संपत्ति पर अधिकार आदि के अधिकार प्राप्त थे। मेगस्थनीज ने लिखा है कि, स्त्रियां राजा की अंगरक्षिकाएँ थी, वे गुप्तचरों के रुप में भी कार्य करती थी तथा पति के दुर्व्यवहार करने पर न्यायालय की शरण में जा सकती थी। कौटिल्य के साथ-साथ इस काल के बौद्ध – जैन अनुश्रुतियां सती – प्रथा का उल्लेख नहीं करते हैं।
खानपान, रहन-सहन एवं नैतिकता
मौर्यकालीन समाज का नैतिक स्तर उच्च एवं खानपान तथा रहन-सहन सीधा-सादा था। मौर्यकाल में शाकाहारी एवं माँसाहारी दोनों प्रकार का भोजन किया जाता था। शाकाहारी भोजन में गेहूँ, चावल, जौ, सब्जियाँ, फल, दूध, शरबत आदि का सेवन करते मौर्यकाल में सम्राट और अन्य लोग माँसाहार के शौकीन थे। अशोक के अभिलेखों एवं मेगस्थनीज के विवरण से ज्ञात है कि, सम्राट के लिए अनेक प्रकार के पशु – पक्षियों का माँस परोसा जाता था।
बौद्ध धर्म के प्रभाव में आकर बाद में अशोक ने शाही भोजन में माँस पर प्रतिबंध लगा दिया था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से भी लोगों के माँस खाने का पता चलता है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में माँस बेचने वालों का विवरण दिया। पशु-पक्षियों को मारने के लिए अनेक वधगृहों का उल्लेख मिलता है। भारतीय लोग भोजन जमीन पर बैठकर करते थे, भोजन करते समय एक तिपाई के आकार की मेज उनके सामने रख दी जाती थी, जिस पर सोने का प्याला रखा होता था। भोजन में चावल एवं अन्य पकवान परोसे जाते थे। मौर्यकालीन समाज में सुरापान का भी प्रचलन था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में मदिराओं और उनकी निर्माण प्रणालियों का विवरण दिया है।
मौर्य प्रशासन ने सुसंगठित मदिराओं की स्थापना की थी। मदिरालयों में बैठने, सोने एवं खाने की व्यवस्था होती थी। राज्य मदिरालयों पर कड़ी नजर रखता था। मदिरा शासन वर्ग एवं क्षत्रियों को विशेष प्रिय थी। सामान्य जनता में मदिरा का अधिक प्रचलन नहीं था। भारतीयों का सामाजिक जीवन चिरकाल से नैतिक रूप से बहुत ऊँचा रहा है। मौर्यकाल में भी सामान्यजन का नैतिक स्तर बहुत ऊँचा था।
मौर्यकाल में जनता का सामाजिक जीवन सरल, सादा एवं सुव्यवस्थित था। सामान्यजन चरित्रवान, सत्यवादी, मितव्ययी एवं साहसी थे। समाज में चोरी करने एवं झूठ बोलने को पाप माना जाता था। सत्य, अहिंसा, उदारता, सहिष्णुता, दया, अतिथि सत्कार आदि उच्च नैतिक गुण विद्यमान थे। अशोक ने भी अपने अभिलेखों में जनता को सद्मार्ग पर चलने एवं पापों से दूर रहने की सलाह दी है।
मनोरंजन के साधन
मौर्यकालीन समाज में दैनिक जीवन को आनंदित एवं प्रफुल्लित रखने के लिए मनोरंजन के अनेक साधन विद्यमान थे। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र ऐसे कलाकारों का उल्लेख किया है जो राज्य में राजकीय अनुज्ञा पत्र (लाईसेन्स) लेकर मनोरंजन करने का कार्य करते थे। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में गाने-बजाने वालों, नट, नर्तक, मदारी, चारण, रस्सी पर नाचकर कर्तब दिखाने वाले, विविध प्रकार की मुंह से आवाज निकाल कर मनोरंजन करने वालों का उल्लेख किया है।
शिकार खेलने की प्रथा राजवंशीय लोगों के साथ-साथ सामान्य जनता में भी लोकप्रिय थी। कालान्तर में अशोक ने पशुओं एवं मनुष्यों के मध्य मल्ल युद्ध की प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया था। मेगस्थनीज ने मल्ल युद्ध, घुड़दौड़, रथदौड़, साँड युद्ध, विहार यात्रा का मनोरंजन के साधन के रूप में विवरण दिया है। मौर्यकालीन समाज में समाजों एवं उत्सवों द्वारा मनोरंजन के विधि रूपों का आयोजन किया जाता था।
विशेष त्यौहारों एवं सामाजिक अवसरों पर भी आमोद-प्रमोद के कार्यक्रमों का आयोजन होता था। ग्रामीण स्तर पर अनेक प्रकार के खेलों एवं तमाशों का आयोजन होता था। अशोक के अभिलेखों से ज्ञात है कि, सम्राट विहार यात्रा पर जाता था। सम्राट जब शिकार पर जाता था, तब पूरी सुरक्षा व्यवस्था के साथ जाता था। अशोक ने अपने शासनकाल में विहार यात्राओं एवं समाजों पर प्रतिबंध लगा दिया था।
वस्त्राभूषण
मौर्यकालीन समाज स्त्री एवं पुरूष दोनों आभूषणों के शौकीन थे। धातु एवं मिट्टी दोनों के आभूषणों का उल्लेख मिलता है। सामान्य जनता सूती वस्त्रों को पहनती थी। मेगस्थनीज ने लिखा है कि, भारतीय सुन्दर चटकीले रंगों के वस्त्रों को पहनते थे। वस्त्रों पर सोने की कड़ाई की जाती थी। सुन्दर मलमल के वस्त्रों पर फूलदार पच्चीकारी की जाती थी। वस्त्रों को मूल्यवान रत्नाभूषणों से सुसज्जित करने के भी प्रमाण है।
आर्थिक स्थिति
मौर्यकाल में राज्य की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी। कौटिल्य के कठोर प्रशासन में कृषि, उद्योग, व्यापार – वाणिज्य तथा कर व्यवस्था के सुदृढ़ होने के कारण हर तरफ समृद्धि थी। साथ ही, मौर्यकाल में राजनीतिक एकता स्थापित हो जाने से भी आर्थिक क्रियाकलापों को काफी बल मिला। कृषि, व्यापार एवं वाणिज्य, उन्नत शिल्प, ठोस कर प्रणाली आदि अर्थव्यवस्था की रीढ़ थी। कौटिल्य ने कृषि, पशुपालन और वाणिज्य को ’वार्ता’ कहा है।
कृषि एवं पशुपालन
कृषि, मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था की धुरी थी। बहुसंख्यक प्रजा कृषि कार्यो में संलग्न थी। राज्य कृषि एवं कृषकों की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखता था। युद्ध के समय में भी कृषि एवं कृषकों को कोई हानि नहीं पहुँचायी जाती थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कृष्ट (जुती हुई), अकृष्ट (बिना जुती हुई), स्थल (ऊँची) आदि अनेक प्रकार की भूमियों का वर्णन किया गया है।
आदेवमातृक भूमि, वह भूमि होती थी, जिसमें बिना वर्षा के भी अच्छी फसल हो जाती थी। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में क्षेत्रक (भू-स्वामी), उपवास (काश्तकार) एवं स्वाम्य शब्दों का प्रयोग किया है। विद्वानों ने स्वाम्य से तात्पर्य निजी भूमि स्वामी से लगाया है। इससे भूमि पर व्यक्ति का अधिकार सिद्ध होता है, जिसे वह स्वयं अपनी इच्छा से क्रय-विक्रय कर सकता था।
राजकीय भूमि को ’सीता’ कहा जाता था, इसकी संपूर्ण आय या फसल सीधे केन्द्रिय खजाने में जाती थी। सीता भूमि के प्रबंधन के लिए ’सीताध्यक्ष’ नामक अधिकारी नियुक्त किया गया था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में वर्ष में तीन फसलें-रबी की फसल, खरीफ की फसल, जायद की फसल उगाए जाने का उल्लेख किया है। वहीं, मेगस्थनीज वर्ष में दो बार फसलों को उगाये जाने की सूचना देता है। कृषि, हल और बैलों की सहायता से होती थी। भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए खाद् का प्रयोग किया जाता था।
मौर्य प्रशासन कृषि सिंचाई का विशेष प्रबंध करता था। इसे ’सेतुबंध’ कहा जाता था। कौटिल्य ने सिंचाई के लिए नदी, तालाब, कुएँ, नहर का उल्लेख किया है। कौटिल्य ने कुएँ से राहट एवं पवन चक्की द्वारा सिंचाई का भी उल्लेख किया है। सुदर्शन झील राज्य सिंचाई का प्रमुख उदाहरण है, जिसका निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य के सुराष्ट्र प्रान्त के गवर्नर पुष्यगुप्त वैश्य ने प्रारंभ कराया और अशोक के गवर्नर तुषास्य ने पूर्ण कराया। जिसका उल्लेख रूद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में मिलता है।
मौर्यकाल में चावल, गेहूँ, दालें, सरसों, मूंग, गन्ना, कपास, आलू, सब्जियाँ आदि की फसल होती थी। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में धान की फसल को सर्वोत्तम तथा गन्ने की फसल को सर्वाधिक निकृष्ट बताया है। मेगस्थनीज ने लिखा है कि, ’भारत की भूमि बहुत उपजाऊ है, यहाँ पर्याप्त फसल होती है। यहाँ वर्षा बहुत होती है। अकाल यहाँ कभी नहीं पड़ता है। खाने-पीने की वस्तुऐं पर्याप्त एवं सस्ती है।
कृषि में बैलों के बड़ते महत्व ने पशुपालन को प्रोत्साहन दिया। कृषि के साथ ही पशुपालन कृषकों का प्रमुख व्यवसाय था। भार वाहन पशुओं के साथ ही दुधारू पशुओं का पालन भी कृषक करते थे। वस्तुतः पशुपालन भारत के सामाजिक आर्थिक जनजीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा प्राचीनकाल से ही रहा है। राज्य पशुओं की सुरक्षा एवं चिकित्सा का पूरा प्रबंध करता था।
व्यवसाय एवं उद्योग
मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था में व्यवसायों एवं उद्योग धन्धों की आधारभूत भूमिका थी। मौर्य प्रशासन ने साम्राज्य में व्यवसायों एवं उद्योग धंधों को नियामक रूप प्रदान करके राजकीय विभागों एवं अधिकारियों के द्वारा आर्थिक गतिविधियों को संरक्षित, सुरक्षित एवं प्रोत्साहित किया। मौर्यकाल में विविध प्रकार के व्यवसाय एवं उद्योग धंधे संचालित थे।
वस्त्र, धातु, सूरा व्यवसाय एवं विविध प्रकार शिल्प उन्नत अवस्था को प्राप्त कर चुके थे। वस्त्र उद्योग मौर्यकाल का प्रमुख व्यवसाय था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में बंग, वत्स, अपरान्त, काशी, मदुरा आदि सूती वस्त्र उद्योग के रूप में वर्णित है। इन नगरों में सूती वस्त्र तैयार करने वृहद् एवं लघु उद्योग संचालित थे।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मगध, पुण्डू एवं सुवर्ण कुड्य को सन के वस्त्र उद्योग के लिए उन्नत बताया गया है। बंगाल में उन्नत श्रेणी का मलमल बनाया जाता था। नेपाल में ऊनी वस्त्र उद्योग उन्नत अवस्था का था। वहाँ से ऊँनी वस्त्र एवं कंबल मगाये जाते थे। चीन से रेशमी वस्त्रों के आयात का भी उल्लेख मिलता है। कौटिल्य ने लिखा है कि, वस्त्र निर्माण उद्योग ’सूत्राध्यक्ष’ नामक अधिकारी के निरीक्षण में चलता था।
मौर्यकाल में काष्ठशिल्प अत्यन्त उन्नत अवस्था में था। मौर्यकाल में नगरों के भवन लकड़ी के बने होने के प्रमाण मिले हैं। पाटलिपुत्र का राजभवन एवं विभिन्न भवन लकड़ी के बने थे। लकड़ी की विविध जीवनोपयोगी वस्तुऐं बनायी जाती थी। रथ, बैलगाड़ी, हल, तख्ते, दरवाजे, जहाजों एवं नौकाओं आदि का निर्माण लकड़ी से होता था। यूनानी लेखक लकड़ी से जहाजों एवं नौकाओं के निर्माण उद्योग को उत्कृष्ट स्तर का बताते हैं।
इस प्रकार मौर्यकाल में काष्ठकला चर्मोत्कर्ष पर थी। मौर्यकाल वनोपज राजस्व का एक बड़ा साधन था। इसके लिए मौर्य प्रशासन ने ’आटविक’ नामक अधिकारी नियुक्त किया था, जो वन विभाग का प्रधान होता था।
मौर्यकाल में मदिरा व्यवसाय भी उन्नत दशा में था। राज्य में सुसंगठित मदिरालयों के उल्लेख मिलते हैं। कौटिल्य ने छः प्रकार की मदिराओं का उल्लेख किया है। मदिरालय राज्य के कठोर नियंत्रण में रहते थे, इसके लिए ’सुराध्यक्ष’ की नियुक्ति की गयी थी।
मौर्यकाल में पत्थरों पर कार्य करने वाले कारीगरों और शिल्पियों की दक्षता उत्कृष्ट अवस्था में थी। मौर्यकालीन अभिलेखों, स्तम्भों, मूर्तियों, स्तूपों, पाषाण गुफाओं आदि को देखने से प्रतीत होता है कि, इनका निर्माण अत्यन्त कुशल तक्षण शिल्पियों द्वारा किया गया होगा और निश्चित रूप से इन कुशल शिल्पियों का संगठन रहा होगा। मौर्यकाल में चर्म व्यवसाय का भी उल्लेख मिलता है। चर्म के वस्त्र एवं अनेक समाजोपयोगी वस्तुऐं बनायी जाती थी।
मौर्यकाल में धातु से विधि प्रकार की वस्तुओं के निर्माण में दक्ष थे। धातुकर्मी धातुओं को गलाने, शुद्धी करने एवं मिश्रित धातु के निर्माण में कुशल थे। सोने, चाँदी, ताँबे, काँसें, पीतल, लोहा आदि धातुओं से विविध जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुओं का निर्माण होता था।
राज्य का खानों एवं खनिज पदार्थो पर पूर्ण नियंत्रण रहता था। इसके लिए ’आकराध्यक्ष’ नामक अधिकारी राज्य की ओर नियुक्त किया गया था। सोने-चाँदी की धातु से विविध प्रकार के आभूषण बनाये जाते थे। लोहे, ताँबे, तीतल आदि धातुओं से अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण किया जाता था। कौटिल्य ने समुद्र से प्राप्त विविध समुद्री रत्नों एवं वस्तुओं का उल्लेख किया है। जिनका उपयोग आभूषणों एवं औषधियों के व्यवसाय में किया जाता था।
व्यापार
मौर्यकाल की अर्थव्यवस्था में व्यापार का बड़ा योगदान था। कौटिल्य ने व्यापार एवं व्यापारियों के लिए ठोस आर्थिक नियामक विधानों को लागू किया था। राज्य व्यापार एवं व्यापारियों पर कठोर नियंत्रण के साथ ही उनकी सुरक्षा का पूरा प्रबंध करता था। मौर्य प्रशासन ने सड़क मार्गो, नदियों एवं समुद्रमार्ग से होने वाले देशी-विदेशी व्यापार के लिए उच्चाधिकारियों की नियुक्ति की थी।
’पण्याध्यक्ष’ व्यापार एवं वाणिज्य तथा ’संस्थाध्यक्ष’ व्यापारिक मार्गों का अधिकारी थी। मौर्यकाल के समय विदेशी व्यापार ईरान, रोम, मिश्र, सीरिया, यूनान, नेपाल, चीन एवं पूर्वी देशों के साथ होता था। भृगुकच्छ बंदरगाह से पश्चिमी देशों एवं ताम्रलिप्ति बंदरगाह से पूर्वी देशों के साथ व्यापार होता था। सोपारा तथा बारबैरिकम् बन्दरगाह से भी विदेशी व्यापार होता था।
मौर्यकाल में विदेशों से घोड़े, ऊन, ऊनी एवं रेशमी वस्त्र, मोती, मीठी शराब आदि वस्तुओं का आयात होता था। मौर्यकाल में हाथी दाँत की वस्तुऐं, मोती, बहुमूल्य लकड़ी, औषधियाँ, शंख, सीपियाँ, नील, कछुआ आदि का विदेशों को निर्यात किया जाता था। काशी, उज्जैन, कन्नौज, मगध, कौशांभी, तोसली, प्रयाग आदि आंतरिक व्यापार के केन्द्र थे।
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में समुद्री जल मार्गों का उल्लेख करते हुए उन्हें ’संयानपथ’ तथा समुद्री जहाजों को ’प्रवहरण’ कहा है। राज्य ने व्यापारियों का लाभ भी तय कर रखा था। स्थानीय वस्तुओं पर 5 प्रतिशत तथा विदेशी वस्तुओं पर 10 प्रतिशत का लाभ लिया जा सकता था। निर्यात कर को ’निष्क्राम्य’ तथा आयात कर को ’प्रवेश्य’ कहा जाता था। आयात पर 20 प्रतिशत कर लगता था। बाजार में बेची जाने वाली वस्तु को ’पण्य’ कहा जाता था।
मौर्यकाल में ’पण्य संबंधी’ चुंगी, तौल-माप, विदेशी व्यापार आदि का निरीक्षण क्रमशः शुल्काध्यक्ष, पोताध्यक्ष एवं अंतपाल किया करते थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र से विदित है कि, व्यापारियों द्वारा वस्तुओं की खरीदी एवं बेचने पर अनुचित लाभ उठाने तथा खाने-पीने की वस्तुओं में मिलावट करने एवं कम तौल पर राजकीय अर्थदण्ड का सामना करना पड़ता था। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में राजधानी पाटलीपुत्र एवं राज्य के प्रमुख व्यापारिक नगरों के राजमार्गों एवं सड़कों से जुड़े होने का उल्लेख किया है। राजमार्गो एवं अन्य सड़कों की सुरक्षा का पूर्ण दायित्व राज्य द्वारा उठाया जाता था।
मुद्रा
मौर्य साम्राज्य में ठोस मुद्रा प्रणाली की स्थापना हो चुकी थी। कौटिल्य ने मुद्रा व्यवस्था को साम्राज्य में सुचारू रूप से संचालित होते रहने के लिए मुद्रा एवं टकसाल विभाग की स्थापना की थी, जिसका प्रमुख ’लक्षणाध्यक्ष’ कहलाता था। मुद्राओं का परीक्षण ’रूपदर्शक’ नामक अधिकारी करता था। कोई व्यक्ति धातु एवं निर्धारित शुल्क देकर सिक्का बनवा सकता था। राज्य में सोने-चाँदी एवं ताँबे की मुद्राएँ चलती थी। ’पण’ मौर्य साम्राज्य की राजकीय मुद्रा थी। एक पण 3/4 तोले के बराबर चाँदी का
सिक्का था। अधिकारियों का वेतन ’पण’ में ही दिया जाता था। मौर्य साम्राज्य का सर्वाधिक प्रचलित सिक्का चाँदी का ’कार्षापण’ था। सोने का सिक्का-निष्क एवं सुवर्ण, चाँदी का पण या रूप्यरूप, कार्षापण, धरण, शतभान, ताँबे का माषक एवं काकणी कहलाता था। मयूर, पर्वत अर्द्धचन्द्र चिन्ह् छाप वाली ’आहत रजत मुद्राएँ’ मौर्य साम्राज्य में खूब चलती थीं।
भाषा, शिक्षा एवं साहित्य
मौर्यकाल में भाषा, शिक्षा एवं साहित्य प्रगतिशील अवस्था में थे। मौर्यकाल में सामान्य जनता की भाषा पाली (प्राकृत) थी। अभिजात वर्ग एवं उच्च वर्णों में संस्कृत भाषा बोली जाती थी। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय संभवतः संस्कृत राजकीय भाषा थी, किन्तु अशोक के समय पाली (प्राकृत) राजकीय भाषा बन गयी थी। बहुसंख्यक आम जनता की भाषा होने के कारण ही अशोक के अधिकांश अभिलेख पाली (प्राकृत) भाषा में उत्कीर्ण किये गये है।
ब्राह्मण धार्मिक शिक्षा संस्कृत भाषा में दी जाती थी। ब्राह्मण साहित्य भी संस्कृत भाषा में ही था। मध्यदेश में मागधी भाषा बोली जाती थी। मौर्यकाल में सर्वाधिक ब्राह्मी लिपि का प्रचलन था, जिसकी लेखन शैली बाँये से दाँये थी। अशोक के अभिलेखों में सर्वाधिक ब्राह्मी लिपि का ही उपयोग किया गया है। अशोक के अभिलेख ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरामाईक एवं ग्रीक लिपि चार लिपियों में मिलते हैं।
मौर्यकाल में शिक्षा का स्तर बहुत ऊँचा था। सामान्य जनता, राज्य द्वारा प्रजा को जारी किये गये राज्यादेशों को समझ सकती थी। अशोक द्वारा साम्राज्य में प्रजा के दिशा-निर्देश हेतु जारी किये गये अभिलेखों, शिलालेखों स्तंभ लेखों आदि को प्रजा पढ़ सकती थी। यूनानी लेखकों ने उल्लेख किया है कि, मौर्य साम्राज्य के राजमार्गों पर दूरी सूचक पत्थर लगे होते थे और उन पर एक निश्चित दूरी अंकित होती थी। अतः यह आसानी से समझा जा सकता है कि, सामान्य जनता साक्षर थी।
मौर्यकाल में शिक्षा के लिए अलग से कोई विभाग नहीं था। प्राचीनकाल की तरह मौर्यकाल में शिक्षा के स्त्रोत गुरूकुल और आश्रम थे। गुरूकुलों में धार्मिक संस्कारित शिक्षा के साथ ही जीवनोपयोगी शिक्षा भी दी जाती थी। मठ एवं विहार भी शिक्षा प्रदान करने के केन्द्र थे।
मौर्य प्रशासन शिक्षा दान करने वाले आश्रमों, गुरूकुलों, मठों एवं विहारों को मुक्त हस्त दान देता था। बौद्धों एवं जैनियों के धार्मिक केन्द्र भी शिक्षा प्रसार का कार्य करते थे। मौर्यकाल में तक्षशिक्षा, काशी, उज्जयिनी, मथुरा आदि शिक्षा के बड़े केन्द्र थे। तक्षशिला विश्वविद्यालय तो इस समय शिक्षा का विश्व प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र था। जहाँ विश्वभर से छात्र शिक्षा लेने आते थे। स्वयं चाणक्य भी तक्षशिला विश्वविद्यालय से शिक्षित था।
मौर्यकालीन साहित्य की सबसे बड़ी निधी कौटिल्य का ’अर्थशास्त्र’ है। प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य मोग्गलिपुत्त तिस्स ने ’कथावस्तु’ रचना मौर्यकाल में ही की थी। प्रसिद्ध जैन आचार्य भद्रबाहु मौर्यकाल की देन थे, उन्होंने चन्द्रगुप्त मौर्य को जैन धर्म में दीक्षित किया था। सुबन्धु, वररूचि, जबूस्वामी, स्थूलभद्र, यशोभद्र, संभूति आदि अनेक विद्वान मौर्यकाल में हुए।
धार्मिक स्थिति
मौर्यकाल धार्मिक सहिष्णुता एवं समन्वय का काल था। इस काल में वैदिक धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म एवं अन्य अनेक धार्मिक दार्शनिक विश्वासों की विद्यमानता थी, फिर भी आपस में कोई टकराव नहीं था, सभी अपने – अपने स्थान पर धार्मिक क्रियाकलापों में संलग्न थे। स्वयं मौर्य सम्राट भी विविध धर्मों को मानते थे। सम्राट ’चन्द्रगुप्त मौर्य’ वैदिक धर्म मानते थे और जीवन के अंतिम समय में जैन धर्म को मानने लगे थे।
महान मौर्य सम्राट ’अशोक’ बौद्ध धर्म का अनुयायी था और उसने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के अनेक कार्य किये। मौर्य शासक ’सम्प्रति’ जैन धर्म अनुयायी था। कहने का तात्पर्य यह है कि, मौर्य सम्राटों ने विविध धर्मो को अपनाया! किन्तु उन्होंने अपनी प्रजा को किसी धर्म विशेष को मानने के लिए बाध्य नहीं किया।
वैदिक या ब्राह्मण धर्म
मौर्यकाल में विशेषतः वैदिक धर्म की ही प्रधानता थी। बहुसंख्यक जनता वैदिक धर्म की अनुयायी थी। वैदिक धर्म के आचार-विचार, वैदिक यज्ञ एवं कर्मकाण्डों की प्रधानता थी। अशोक के शासनकाल में वैदिक यज्ञों एवं कर्मकाण्डों में कमी आयी।
समाज में बहुदेववाद का उल्लेख अर्थशास्त्र में भी मिलता है। बौद्ध ग्रंथों में महाशाला नामक ब्राह्मणों के एक वर्ग का वर्णन मिलता है, जो सम्राट द्वारा दान दी गयी कृषि भूमि से कर वसूलते थे, जिसका उपयोग शिक्षा के प्रसार एवं धार्मिक क्रियाकलापों में करते थे। मेगस्थनीज ’मेन्डनिस’ नामक दार्शनिक बौद्धिक ब्राह्मण का उल्लेख करता है, जिसने सिकंदर के द्वारा मृत्यु दण्ड देने की धमकी को दर किनार करके उससे मिलने से इंकार कर दिया था।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र से देवी-देवताओं के मंदिरों एवं मूर्तियों का विवरण मिलता है। पतंजलि के महाकाव्य से मौर्यकाल में देवी-देवताओं की मूर्तियों के विक्रय का उल्लेख मिलता है। मौर्यकाल में देवी-देवताओं की मूर्तियों के निर्माण करने वाले शिल्पियों का उल्लेख मिलता है, इन्हें ’देवताकरू’ कहा जाता था।