बुन्देलखण्ड के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में बानपुर नरेश मर्दनसिंह का महत्त्वपूर्ण स्थान है। Mardansingh ko Sako में उनकी वीरता और पराक्रम का वर्णन है। राजा मर्दनसिंह ने झाँसी वाली रानी लक्ष्मीबाई के साथ मिलकर अंग्रेजों के साथ घोर संग्राम किया था। अंग्रेजों का व्यवहार पहले से ही मर्दनसिंह के प्रति अच्छा नहीं था। अंग्रेज उनके साथ शत्रुवत् व्यवहार करते थे और हमेशा उनसे सतर्क और अंग्रेजो की नज़र में वे संदिग्ध रहते थे।
बुन्देलखण्ड की लोक-गाथा महाराज मर्दनसिंह कौ साकौ
8 जून सन् 1857 को राजा मर्दनसिंह ने झाँसी के मैदान में अंग्रेजों के सेनापति सर ह्यूरोज की सेना के साथ युद्ध किया था। बुंदेली गाथाकार ने उनकी वीरता का वर्नन करते हुए कहा है…!
राजा वीर बानपुर वारौ, भरन लगो अपनी हुंकार।
धक-धक छाती होंन लगी जब, मर्दनसिंह नें दई ललकार।।
जैसें शेर दहाड़ें वन में, जरियंन-जरियंन दुकें सियार।
जैसें चूहा दुकें बिले में, वन में बड्डो देख बिलार।।
दुकें चिरइयाँ डारन-डारन, जई सें सामैं देखैं बाज।
खैंच सनाकौ रै गये गोरा, जैसें टूट परी हो गाज।।
बटन टूट गये पैन्ट सूट के, फीकौ पर गओ मौकौ रंग।
मनई-मनईं मुस्काय बंुदेला, देख-देख गोरन के ढंग।।
औंधे डर रये पौंद उगारें, कछू जनें रै गये मौं बांय।
पाछे सें पिचकारी छोड़ें, मौ हुन धूरा-कूरा खांय।।
ओ माइ गाड कहें आड़े भये, मौ हुन गिरें करूला चार।
आँखें मिच-मिच जायें उनन कीं, मर्दनसिंह की सुन ललकार।
आँखें नीलीं पीलीं फारें, पर उड़ रये भूरा बार।।
जरा उनका युद्ध-कौशल देखिये…!
दो-दो हाथ चले वीरन के, आड़े हो गये पाँव पसार।
आकैं चढ़ गये वीर-बुंदेला, दोइ-दोई हाँतन लयें तलवार।
भागे गोरा खेत छोड़ कैं, अपनें डार-डार हतयार।
धरनी रंग गई रकत धार सें, कई अक लासें दईं बिछाय।
महाकाल कौ रूप धरो है, निंठुअई नईं वे देसत खांय।।
धन्न-धन्न कै उठो अचानक, सामैं सें भागो ह्ययूरोज।
प्रात अमावस जैसें आ गई, कुजनें कबैं दिखानें दोज।।
सन-सन सन-सन तेगा छूटे, छपक-छपक चलबैं तलवार।
छक-छक-छक-छक बरछीं चल रईं, भक भक भाला की है मार।
भन-भन भन-भन तोपें छूटें, सन-सन सन-सन चलबैं तीर।
पाछें पाँव धरें नईं कैस , फेंटा कसें दिखा रये वीर।।
प्रलय मचा दओ महावीर नें, एकई हो गये दिन अरू रात।
अपनी-अपनी परी सबन खौं, करें न कोउ-कोउ सैं बात।
टन-टन टन-टन डंका बाजें, डम-डम डम-डम बाजे डोल।
भगे सिपाही अंगरेजन के, दुकबे ढूंढ़त फिरबैं पोल।।
कोउ पुछइया नइया भैया, की की कितै डरी है लास।
कछू कतन नई बनबैं सें, हो गओ तो ह्ययूरोज निरास।।
लौट न आबैं अब झाँसी खौं, अबकी बचें हमारे प्रान।
बड़े लड़इया झाँसी वारे, दै रये जीवन कौ बलिदान।।
इस प्रकार मर्दनसिंह ने झाँसी के मैदान में अंग्रेजों से घमासान युद्ध किया था। और अपने बाहुबल से विजयश्री प्राप्त की थी। उन्होंने ह्यूरोज की सेना के साथ झाँसी के अतिरिक्त मोंठ और कालपी में भी युद्ध किया था और अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ा दिये थे। अंग्रेज उस अमर वीर के सामने कभी टिक नहीं पाये थे।
झाँसी वाली रानी उन्हें ज्येष्ठ भ्राता का सम्मान प्रदान करती थीं। महाराज साहब भी रानी साहिबा की रक्षा हेतु प्रा प्राण अर्पण करने हेतु तत्पर रहते थे। इसी कारण से अंग्रेज उनसे रूष्ट रहते थे। अंग्रेजों की सेना ने बानपुर के दुर्ग पर चढ़ाई करके उसे ध्वस्त कर दिया था। मर्दनसिंह ने अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते मातृभूमि की रक्षा में अपने प्राणों की आहुति दी। वीरों की भाँति वे जीवन भर अंग्रेजों से युद्ध करते रहे, किन्तु शत्रुओं के सामने अपना मस्तक नहीं झुकाया।
जामनेर नदी के समीप स्थित बानपुर का दुर्ग ध्वस्त हो गया और उनके पड़ोसी राज्य टीकमगढ़ की महारानी लड़ई सरकार तमाशा देखती रही। यहाँ तक कि तत्कालीन दीवान नत्थे खाँ ने दुर्ग ध्वस्त करने वाले उन अंग्रेजों का सम्मान किया था। इसी कारण से स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास टीकमगढ़ नरेश को राष्ट्रद्रोही मानता है।
नत्थे खाँ के मन में महारानी लक्ष्मीबाई और राजा मर्दनसिंह के प्रति विद्वेष भाव था। राजा मर्दनसिंह एक असाधारण वीर थे। उसके शौर्य को देखकर अंग्रेज भी सदैव भयभीत रहा करते थे। उनके शौर्य की प्रशंसा करते हुए कविवर रत्नेश लिखते हैं…
सुमिल सरूपी शुद्ध, सरल सुटार टारी,
मानो विधि-विधि सों बजाती सर्वराती है।
श्रवन सुनेते शब्द अस्त्रन के डारे सब,
शत्रुन की चमू चहूँओर भर्भराती है।
कहें ‘रत्नेश’ वेश तिनकी अराजें सुन,
सकल अचेतन की छाती धर्धराती है।
तोपीवीर मर्दन महाराज तोरी,
धन के समान ये धरा पर गर्गराती है।
ऐसे थे वे वीर बाँकुरे महाराज मर्दनसिंह जू ।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’