Maharaja Bhavani Singh ‘Premi’ जू देव का जन्म छतरपुर रियासत में 17 अगस्त सन् 1921 को हुआ। आपके पितामह राजर्षि महाराजा विश्वनाथ सिंह जू देव बड़े प्रकाण्ड विद्वान थे। आपके पुस्तकालय में बड़ी दुर्लभ साहित्यिक पुस्तकों का संग्रह रहा है। बाबू गुलाब राय उनके निजी सचिव थे।
योगी जीवन और महाराजा भवानी सिंह जू देव ‘प्रेमी’
मिश्र बंधु श्री श्याम बिहारी तथा सुखदेव बिहारी ने मिश्रबंधु विनोद यहीं लिखा। इस तरह के वातावरण में बड़े हुए महाराजा भवानी सिंह जू देव पर प्रभाव पड़ा और वे भी रचनायें लिखने लगे। आपने विभिन्न राग-रागनियों पर आधारित ‘प्रेमी’ के नाम से कवितायें रचीं है। जिनका एक संकलन ‘वैतरणी’ के नाम से प्रकाशित है। आपकी शिक्षा डेली कॉलेज, इन्दौर में हुई।
महाराजा भवानी सिंह जू देव‘प्रेमी’ का जीवन बहुत कठिनाइयों भरा रहा है। आपके पितामह राजर्षि महाराजा विश्वनाथ सिंह जू देव सन् 1932 में स्वर्गवासी हुए। जब महाराजा भवानी सिंह जू देव की आयु 24 वर्ष थी तभी परम प्रिय पत्नी महारानी लक्ष्मण कुँवरि स्वर्गवासी हो गईं। सन् 1963 में आपकी माता आदरणीया राजामाता नारायण कुँवरि का स्वर्गवास हो गया। इतना ही नहीं इनके पुत्र युवराज बलवंत सिंह का स्वर्गवास 1990 में हो गया। इन तमाम घटनाओं से महाराजा भवानीसिंह जू देव का जीवन योगी की भाँति हो गया है। वर्तमान में पुत्रवधू व नाती-नातिन के साथ साधुतुल्य जीवन जी रहे हैं।
कवित्त
मिथला के दर्शन करत हों श्रीराम जी के,
गोपी हों बृज की कोउ धोखो मत खाइयौ।
प्रियतम से मोरी जा विनती रहत ‘प्रेमी’
भूल मत जैयो मेरे नेह को निबाहियौ।।
पार्वती-शंकर सम इष्ट नाहिं दूजो कोउ,
माता साकी में भैद कोउ जनि बताइयौ।
बिनती है मोरी एक सुनियो गणेश मात,
वारुणी व भंग दोउ प्रेम से पिवाइयौ।।
मैं सीता और राम के दर्शन नित्य करता हूँ। मैं ब्रज की गोपिका हूँ, कोई धोखे में मत पड़ना। प्रियतम कृष्ण से यह मेरी प्रार्थना है कि मेरे प्रेम का निर्वाह करना, मुझे भूल मत जाना। पार्वती और शंकर जी जैसा अन्य कोई इष्ट देव नहीं होता है। कोई यदि जानता हो कि माता और साथी में भेद होता है तो मुझे बताये। हे गणेशमाता पार्वती जी! मेरी प्रार्थना है कि मुझे सुरा व भंग दोनों का सेवन कराना।
दादरा
आज सुने मृदु बैन, अंखियन सैन में। आज…….
जब से सुने इन कानन बैना,
जब से देखे नैनन नैना,
भूल गए दिन रैन, अँखियन सैन में। आज…….
बंधी प्रेम की डोर पीत है,
प्रेम लगन की एक रीत है,
बस गई सूरत ऐन, अँखियन सैन में। आज…….
प्रेम छिपाना ही होता है,
प्रेम दिखाने से सोता है,
प्रेमी को सुख चैन, अँखियन सैन में। आज…….
प्रेमी की है जीत निराली,
प्रेम बाग का प्रेमी माली,
साकी की है दैन, अँखियन सैन मैं।
आज सुने मृदु बैन, अँखियन सैन में।।
आँखों के संकेतों में आज कोमल वचनों को सुना। जब से इन कानों ने वचनों को सुना और आँखों ने आँखों को देखा तभी से रात-दिन भूल गये। प्रेम की लगन लग गई इस लगन का एक ही नियम है कि चेहरे की सुन्दरता हृदय में समा गई है। प्रेम गुप्त रखना पड़ता है क्योंकि प्रेम के प्रदर्शन से उसमें सुप्तावस्था आ जाती है।
प्रेम करने वाले को ही सुख-शांति मिलती है। प्रेमी की जीत में एक अनोखापन होता है, प्रेम रूपी बगीचे की सुरक्षा और सिंचन भी माली के रूप में प्रेमी ही करता है। प्रेम का यह आनंद साकी का दिया हुआ है। आँखों के संकेतों में आज कोमल वचनों को सुनने पर ही प्रेम की यह आनंदित प्रक्रिया हुई।
कवित्त
जैसे हम सुने ऐसे देखे रघुराज आज,
एैसी ही कृपा सदा हम पर बनी रहै।
धनुष-बाण हाथ लिये, माथे मोर मुकुट,
शत्रु संघारने को तेज तीर अनी रहै।।
झूँटी अब साँची करौ नैक तो दिखाय परौ,
प्रीति पुरानी तामें नितनइ घनी रहै।
ऐ हो रघुराज तोसों माँगवो हमारो एक,
प्रेमी जा रसना तव प्रेम में सनी रहै।।
जिस प्रकार हमने सुना था वैसे ही रूप में आज हमें दर्शन हुए अब आगे भी इसी प्रकार की कृपा बनाये रहें। हाथ में धनुष-बाण धारण किये हुए और माथे पर मोर पंख का मुकुट सुशोभित है। शत्रुओं का संहार करने के लिये आपके बाण की नोंक सदैव तेज बनी रहे। कृपया झूठ को सत्य में बदल दो, एक झलक दर्शन दे दो। प्रारब्ध के स्नेह में अब प्रतिदिन नवीनता और प्रगाढ़ता आ जाए। हे रघुनाथ! आपसे केवल एक ही बात माँगता हूँ, यह मेरी जिह्ना (जीभ) आपके प्रेम-रस में ही सराबोर रहे।
रसिक जवान छैल झोरन गुलाल लिये
रँगे अंग रंगन सों प्रेमी मगवारौ है।
सावन सलोने संग जैसे कजलिया तैसें,
प्रेम रंग प्रेमी पै चढ़यौ अति न्यारौ है।।
खोरन बिच ठाढ़ीं अलबेली अबीर लेंय,
एकें एक सैन करैं आयौ मतवारो है।
आयौ शुभ फागुन संग लायो है फाग प्रिया,
कीन्हौं है सराबोर फागुन फगवारौ है।।
नेहासिक्त सुन्दर नायक अपनी थैलियों गुलाल लिये रंग से सराबोर प्रेम की चाह लिये आ रहा है। जिस प्रकार सुहावने सावन के साथ रस भरी कजलियां होती है वैसे ही नेह का रंग प्रेमी पर प्रभावी है। गली के बीच में अनुपम गुणवाली सखियां खड़ी हैं और संकेतों से एक दूसरे को बताती है कि मदमस्त नायक आ रहा है। कल्याणकारी फागुन अपनी प्रियतमा फाग के साथ आया है और उसने चारों दिशाओं में वासंती छटा बिखेर कर सबको आनंद से भरपूर कर दिया है।
दादरा
कासें कहूँ मोरी गुइयाँ, निहारत नैना लगेरी।
जमना के नीर तीर बंशी बजावै,
बैठ कदमवां की छैयाँ-निहारतप्रेमी
बछवा जहाँ-तहाँ बैठे,
रांभत श्यामा गैयाँ-निहारत…
जात रही जल जमुना भरन को,
आ पकरी मोरी बैयाँ-निहारतदूध
दही को दान मगावें,
लै लैं नाम कन्हैया-निहारत…
ऐसो हठीलो छैल न देखो,
मो मन लेत बलैयाँ-निहारत नैना लगेरी,
कासें कहूँ मोरी गुइयाँ, निहारत नैना लगेरी।
हे सखी! उन्हें देखते ही मेरे मन में उनके लिये प्रेम हो गया और मैं प्रेम में बंध गई। यमुना के किनारे कदंब के पेड़ की छाया में बैठकर श्रीकृष्ण बाँसुरी बजा रहे थे। प्रेम में आसक्त बछड़े बैठे आनंदित थे और श्यामा गायें अपनी बोली में प्रसन्नता दिखा रही हैं। मैं यमुना से जल भरने जा रही थी तभी श्रीकृष्ण ने मेरा हाथ पकड़ लिया। श्रीकृष्ण नाम से पुकार कर दूध-दही का दान माँगते हैं। इतना दुराग्रह करने वाला मैंने अन्य कोई छैला नहीं देखा, मेरा मन उनके लिये मंगल कामनायें करता है। मैं किसे बताऊँ कि उन्हें देखते ही मुझे प्रेम हो गया था।
रसिया
इतनी देर लगाई हो कान्हा प्यारे, – इतनी……
जबकी मैं ठाढ़ी घाट यमुना पै हेरों बाट,
अबलों न आए कन्हाई
प्यारे-इतनी देर लगाई हो कान्ह प्यारे, – इतनी…….
गौएँ बच्छा ग्वाल-बाल, निकसे हैं भोर भए,
गोरी लिएँ घट हाथ, घाट घाट को चलीं,
प्रेमी झुँड मोरन के ठुमक नाचत आवें,
कैसी प्रेम सगाई प्यारे – इतनी…….
सखीं मिल एकें एक सैन करे मोकों देख,
लटक मटक घट भर इठला चलीं,
यमुना लहर पल पल में किलोल करें,
मानो हँसे हँसाई प्यारे- इतनी……
मंद मंद पवन झकोरे अंग चूम चले,
भौंरा देख कमल कली हू मुस्का चली,
उए भान किरण कदम्ब बीच शोभा प्यारी,
बंशी मधुर सुनाई प्यारे-इतनी….
जब से सुनी है बंशी चैन न परत जिय,
हेरी बार बार झाँकी मोहनी पे ना मिली,
करो न निराश मोकुं दरस दिखाव देव,
कैसी करी रसाई प्यारे –
इतनी देर लगाई हो कान्हा प्यारे – इतनी…….
हे कृष्ण! मैं यमुना के किनारे कितनी देर से खड़ी प्रतीक्षा कर रही हूँ तुम अब यहाँ नहीं आये, इतना अधिक विलंब कर दिया है। प्रातः होने पर गाय और उनके बछड़ों को साथ लेकर ग्वाल बाल वन की ओर निकले। रूपवती स्त्रियाँ हाथ में घड़ा लेकर पानी लेने घाटों की ओर चल पड़ीं। मोरों की प्रेम में आनंदित जोड़ियाँ ठसक भरी चाल में चलती है और नाचती आ रही हैं। यह प्रेम का कैसा आनंद है ? सखियाँ मिलकर संकेत में अपनी बात कहती हैं और कलश भरकर झुकती, लचकतीं और इठलातीं हुई चल देती हैं।
यमुना की लहरों में प्रति क्षण तरंगें उठ रही हैं मानों वह भी इनके हँसने में सम्मिलित हो रही है। मंद मंद गति से चलती पवन के झोंके लगता है जैसे नायिका के अंगों का चुम्बन करती जाती हो। भ्रमर को देखकर कली ने भी मुस्कान भर ली। उगते हुए सूर्य की किरणें कदंब की डालियों के बीच से निकलते हुए मनोरम शोभा बिखेर रही है।
इसी समय श्रीकृष्ण ने बंसी की मधुर ध्वनि सुना दी अर्थात् श्रीकृष्ण की बांसुरी बजने लगी। जब से बंशी की ध्वनि सुनी तब से मेरे मन को शान्ति नहीं है। मैंने बार-बार देखा किन्तु उस मोहनी रूप के दर्शन नहीं हुए। हे स्वामी! आपने यह क्या किया? इतनी देर लगा दी, मेरी आशा न तोड़िये मुझे दर्शन अवश्य दीजिये।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)