मध्ययुगीन इतिहास से स्पष्ट है कि 15वीं शती से 19वीं शती तक इस अंचल की राजनीतिक स्थिति संघर्ष पूर्ण रही है। तोमर नरेशों ने बुन्देलखंड के Madhyakalin Samajik Lokkavya की रक्षा करने और लोकभाषा को जीवित रखने में अग्रणी रहे।
प्रमुख राजनीतिक-सांस्कृतिक केन्द्र
राजनीतिक परिस्थितियाँ
15वीं शती से 16वीं शती के प्रथम चरण तक लगभग सौ-सवा सौ वर्ष तोमरों ने एक राजनीतिक इकाई का गठन किया था, जिसमें ग्वालियर बुन्देली संस्कृति का नया केन्द्र बना। तोमर नरेशों ने बुन्देलखंड को एक सूत्र में बाँधने की सफलता नहीं पाई, पर वे बुन्देली संस्कृति की रक्षा करने और लोकभाषा को जीवित रखने में अग्रणी रहे।
16वीं शती में केन्द्र बने ओरछा और पन्ना, जिसने विजातीय संस्कृति से संघर्ष भी किया और उसके प्रभावों को बचाया। साथ ही बुन्देलों ने मुगल आक्रमणों से अपने अंचल की रक्षा की। गढ़ा-मंडला, जिसमें गोड़ों की वीरता ने एक राजनीतिक इकाई बनाने की कोशिश की थी। लेकिन उनके सांस्कृतिक प्रतिमानों (कल्चरल पैटर्न्स) का प्रभाव भी बहुत व्यापक रहा। इस प्रकार इन चार सौ वर्षों के दीर्घकाल में युद्धमूलक राजनीति की वादियों में बुन्देली संस्कृति के वटवृक्ष बराबर हरे-भरे बने रहे।
मध्यकालीन युद्धमूलक राजनीति
तुर्क-काल में यह प्रदेश अनेक राज्यों में विभाजित था और उन्हें तुर्कों के आक्रमण का भय हमेशा बना रहता था। मुगल-काल में भी बुन्देलों और मुगल सेनाओं के बीच अनेक युद्ध हुए। मराठों के आने पर भी राज्यों की प्रमुख नीति विग्रह और सन्धि पर आधारित रही और अंग्रेजों की कूटनीति में निर्बल राज्य के खिलाफ युद्ध ही एकमात्रा शस्त्रा था। इस वजह से सेना और दुर्ग राज्य की रक्षा के लिए अनिवार्य साधन थे। राजा युद्ध करते थे और रानियाँ भी वीरता के लिए विख्यात रहीं।
तात्पर्य यह है कि मध्ययुग का प्रमुख लोकमूल्य वीरता था, जिसके फलस्वरूप यहाँ के साहित्य में वीरतापरक लोकगाथाओं, राछरों और लोकगीतों की रचना निरन्तर होती रही। युद्धमूलक राजनीति विस्तारवादी होती है और आक्रमणों के भय से लोकसंस्कृति एक तरफ अपना रक्षा-कवच बनाने के लिए पारिवारिक मूल्यों की कट्टरता और सम्बन्धों की एकता का आग्रह करती है, तो दूसरी तरफ ईश्वर के भरोसे छोड़कर भक्ति का साधन अपनाती है।
इसीलिए संस्कारपरक लोकगीतों में हर नवजात शिशु या तो राम है या कृष्ण और हर माता कौशिल्या या यशोदा है तथा हर पिता दशरथ या नन्द। इस रूप में परिवार और समाज को एक नई ऊर्जा मिली है, जो अराष्ट्रीय तत्त्वों से लड़ने के लिए बहुत जरूरी थी।
मध्यकालीन शासन-व्यवस्था
शासन की इकाई गाँव थी, जिसका प्रबन्ध पंचायत करती थी और उसके बाद परगना, जो बड़ी पंचायत और जागीरदार से शासित होता था। जागीरदारों की नियुक्ति राजा करता था, जो अधिकतर राजा के सम्बन्धी होते थे। जागीरदार छोटी-सी सेना भी रखते थे, जिसका उपयोग राजा राज्यहित में करता था। शासन-व्यवस्था में लगे कर्मचारी राजा के ही द्वारा नियुक्त किए जाते थे, अतएव वे राजा के प्रति उत्तरदायी होते थे। राजा ही इस व्यवस्था का सब कुछ था और उसके परामर्श के लिए मन्त्री, सेनापति आदि रहते थे।
अर्थ-व्यवस्था का प्रमुख आधार मालगुजारी थी, जो फसल के रूप में अथवा निर्धारित सिक्कों के रूप में जमींदार द्वारा वसूली जाती थी। मराठों ने अधिक वसूली करनेवाले को ही गाँव सौंपने की प्रथा डाली थी, जो नीलामी जैसी थी। अंग्रेजों ने बन्दोबस्त-प्रथा द्वारा वसूली की थी। बहरहाल, किसान ऋणग्रस्त होता रहा और साहूकारों का एक वर्ग उत्पन्न हो गया।
न्याय-व्यवस्था पंचायतों पर निर्भर थी। जाति पंचायतों के निर्णयों को भी मान्यता थी। ग्राम पंचायत सामूहिक पंचायत थी। छत्रसाल के समय उन्हें छत्रासली चबूतरा कहा जाता था, जिनके निर्णय पक्षपातहीन और लोकमान्य होते थे। अंग्रेजों ने अलग-अलग दीवानी, फौजदारी और माल की अदालतें कायम की थीं, जिसके कारण पंचायतों का प्रभाव कम हो गया था।
मध्यकालीन राजनीतिक स्थिति और लोकसाहित्य
मध्ययुग के परिनिष्ठित बुन्देली साहित्य के रचनाकार में राजनीति के प्रति सचेतना दिखलाई पड़ती है। ऐतिहासिक प्रबन्धों के विषय उसके नायकों की वीरता की प्रशस्ति तो थी, लेकिन उससे जुड़ी राजसी संस्कृति के वर्णन और देशप्रेम के संकेत यह सिद्ध कर देते हैं कि मध्ययुग का कवि राजनीतिक स्थितियों के प्रति पूर्णतया जागरूक था। वह व्यंजना (सूछम बानी दीरघ अर्थ) द्वारा अपने भाव व्यक्त करने में कुशल था।
ठीक इसके विपरीत मध्ययुग का लोककवि अपनी ऐतिहासिक और वीरतापरक लोकगाथाओं, राछरों, लोकगीतों, कथागीतों तथा कटक, समौ आदि में सहजतः स्पष्ट और मुखर है। उसे दुराव-छिपाव या व्यंजना में कहने की आदत नहीं है।
दूसरी विशेषता यह है कि लोकगाथा, कथागीत और लोकप्रबन्ध में किसी विशिष्ट वीरता का आख्यान नहीं है और न ही किसी विशिष्ट जाति, वर्ग या सम्प्रदाय का, वरन् उनमें एक पक्ष भारतीय नारी और दूसरा अपहरणकर्त्ता तुर्क, पठान और अंग्रेज का है।
तात्पर्य यह है कि तत्कालीन लोकसमस्या अपहरण का सहज वर्णन और उसके परिणाम लोकगाथा का प्रमुख अंग रहा है, जो तत्कालीन राजनीतिक चिन्तन की छाप छोड़ता है और यह प्रमाणित करता है कि तत्कालीन लोककवि भी राजनीतिक परिस्थिति के प्रति सचेत था और उसके लोककाव्य में राजनीतिक चेतना का लोकरूप अभिव्यक्त हुआ है।
लोकविश्वास
बुन्देली संस्कृति के महाकाव्य जगनिक कृत आल्हखंड में मानव जीवन का आदर्श युद्ध में खेत रहना था। मध्यकाल में विजातीय धर्म और संस्कृति के आक्रामक रूप के कारण यही लोक-विश्वास क्षात्राधर्म के प्रतीक रूप में आस्था का सन्देश देता रहा। छत्राप्रकाश के कवि ने इसी क्षात्र धर्म को बार-बार दुहराया है, किन्तु उत्तरमध्यकाल में मुगलों और और अंग्रेजी की दमननीति के कारण वह परिवर्तित हो गया।
‘बखरी रहयत हैं मारे की, दईपिया प्यारे की’’ में मानव-देह को किराए का घर मानकर ईसुरी ने ओजपरक मूल्य को आध्यात्मिक विश्वास में बदल दिया था। लोकमानस भाग्य पर अधिक विश्वास करने लगा था। लेकिन नारियों का सतीत्व और पातिव्रत्य मध्यकाल में भी जीवित रहा। आर्केलाजिकल सर्वे रिपोर्ट में कनिंघम और बैगलर ने इस जनपद में सती-स्तम्भों की बाहुल्य की चर्चा की है।
मध्यकाल की लोकगाथा में मथुरावली की गाथा और मनोगूजरी की गाथा में मुगलों से सतीत्व की रक्षा में ग्रामीण बाला खड़ी-खड़ी जल जाती है अथवा अपने शौर्य का परिचय देती है। इसके अतिरिक्त नारी में पतिव्रत की साधना का एक विशिष्ट रूप दिखाई पड़ता है। ओरछा के इन्द्रजीतसिंह की नर्तकी प्रवीणराय मुगल बादशाह अकबर द्वारा उसकी माँग होने पर कहती है।
‘जामें रहै प्रभु की प्रभुता अरू मोर पतिव्रत भंग न होई।’ बुन्देलखंड की नर्तकी का पतिव्रत-पालन अपने में अद्भुत है। राजा गिलंद की गाथा में बेटी अपने पति के लिए बारह वर्ष तक फलाहार और पूजा कर तपस्या-सी करती है। बुंदेलखंड में पृथ्वी, आकाश, बादल, वनस्पति और पशुपक्षियों सम्बन्धी नाना प्रकार के विश्वास मिलते हैं।
उदाहरणार्थ, वृक्षों से सम्बन्धित विश्वास वृक्षों पर देवों का वास, बाँस जलाने से वंश-नाश, आँवले की पूजा से पाप नाश, मरते समय मुख में तुलसीदल से मोक्ष, पीपल में बरम देव और बेरी में भूत का वास, महुआ वृक्ष की पूजा से वर प्राप्ति आदि मध्ययुग में विकसित हुए थे। इसी प्रकार पशुओं से सम्बन्धित विश्वास सेही काँटे से कलह, मोरपंख से सर्प नहीं आते, बिल्ली का रास्ता काटना अशुभ, सर्प को दूध पिलाना आदि आज भी प्रचलित है।
इन विश्वासों का आधार कुतूहल और भय की प्रवृत्ति है। देवताओं की पूजा में भी यह प्रवृत्ति कार्य करती है। देवी-देवताओं में हनुमान, खेरमाता, हरदौल, दूलादेव, मिड़ौइया, घटोइया, नागदेव, गौड़बाबा, मंगतदेव, पोरिया बाबा, मसान, नट, छीद, रक्सा,, मड़ई देवी, गुरैया बाबा, महादेव, भियाराने आदि
विविध जातियों और स्थानों के श्रद्धा केन्द्र हैं। महत्त्वपूर्ण यह है कि कुछ व्यक्ति विशेष गुणों के कारण ही देव-कोटि में स्थापित हो गए हैं, जैसे हरदौल, मंगतदेव, अजयपाल, कारसदेव आदि। रोगों, आपत्तियों, शारीरिक व्याधियों से रक्षा करने और पुत्रा-प्राप्ति, विवाह की कुशलता एवं समृद्धि आदि के उद्देश्यों से भिन्न-भिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं की मान-मनौती की जाती है।
इसी के साथ-साथ तन्त्र-मन्त्र में लोगों का अधिक विश्वास था। गोंड़, सौंर आदि आदिम जातियों का विश्वास भूतप्रेत में था। टोना, टोटका और दूसरे अन्धविश्वासों की बाढ़-सी आ गई थी और उनके अवशिष्ट रूप आज अध्ययन के रुचिकर विषय हैं। अन्धविश्वासी होने पर भी हिन्दू सत्य और ईमानदारी पर सर्वाधिक आस्था रखते थे, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
सामाजिक स्थिति और लोकसाहित्य
उपर्युक्त सामाजिक परिस्थितियों में बुन्देलखंड का परिनिष्ठित साहित्य कई धाराओं में विभाजित हो चुका था, जिनमें प्रमुख थीं। 1. वीर रसपरक साहित्य, 2. भक्ति परक साहित्य, 3. शृँगार रसपरक साहित्य, 4. प्रेमाख्यानक साहित्य।
इस जनपद पर मुसलमानों के आक्रमणों से जहाँ संघर्ष और युद्धों की गणना शुरू हुई, वहाँ त्वम्पतराय, छत्रासाल, दुर्गावती आदि के विद्रोह से ऐसी प्रतिरोधी जीवनी शक्ति और क्षात्राधर्म (देशप्रेम) की तीव्र भावुकता उदित हुई कि दो-तीन सौ वर्ष तक विजातीय लोकमूल्यों से लोहा लेने में सक्षम रही। वीर रसपरक लोककाव्य-धारा इसी उत्साह (सामाजिक शक्ति) की देन है, जिसके अंतर्गत वीरतापरक लोकगाथा और कथागीत की परम्परा हमेशा जीवित रही।
यहाँ तक कि देवीपरक गाथाएँ भी वीररसात्मक हो गईं। लोकभक्ति तो लोक की धरोहर है, इसलिए भक्तिपरक लोककाव्य-धारा का प्रवाह आदिकाल से प्रवाहित था, लेकिन लोक की निराशा से वह तीव्र गति से फूट पड़ा। यहाँ तक कि संस्कारपरक लोकगीत रामपरक था कृष्णपरक हो गए। रियासती वातावरण विनोदी और विलासी हो गया था और उसका प्रभाव एक सीमा तक लोक पर भी था, जिसके कारण शृंगारी लोककाव्य रचा गया।
लेकिन लोक में वह शृंगार और रसिकता उसकी दिनचर्या की वस्तु थी। वास्तव में लोकप्रेम का ही अंग बनकर वह जीवित रह सकी। इस प्रकार सामाजिक परिस्थितियों की कोख से पहले लोककाव्य ने जन्म लिया, बाद में परिनिष्ठित काव्य ने। कभी-कभी परिनिष्ठित कविता से प्रभावित होकर लोककाव्य का अवतरण हुआ है।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल