बुन्देलखण्ड की प्राचीन राजधानी ओरछा नरेश महाराज मधुकरशाह धार्मिक और भक्ति भावना वाले राजा थे। Madhukarshah Ko Sako मे उनकी भक्ति भावना और दिलेरी का वर्णन है। वे हमेशा माथे पर तिलक और गले में तुलसी की माला पहनते थे। वे बादशाह की धार्मिक नीति से कभी भी भयभीत नहीं हुये।
बुन्देलखण्ड की लोक-गाथा महाराज मधुकरशाह कौ साकौ
राजधानी ओरछा में राजा भारती चन्द्र की मृत्यु के पश्चात् उनका लघु भ्राता मधुकरशाह गद्दी पर बैठे। उन दिनों भारत में बादशाह अकबर का शासन था। समस्त राजाओं को समय-समय पर शाही दरबार में उपस्थित होना पड़ता था। मुगलों के अधीनस्थ होते हुए भी मधुकरशाह पर मुगल संस्कृति का रंचमात्र भी प्रभाव नहीं था।
वे सच्चे धार्मिक और भक्त राजा थे। सदैव भक्ति भावना में लीन रहा करते थे। वे सदैव मस्तक पर रामानंदी तिलक और गले में तुलसी की माला धारण करते थे। वे बादशाह की धार्मिक नीति से जरा भी भयभीत नहीं होते थे। जब कभी शाही दरबार में उपस्थित होते तो उसी वेशभूषा में। किन्तु अकबर को उनकी धार्मिक कट्टरता और हठधर्मिता जरा भी पसंद नहीं थी। वे मन ही मन मधुकरशाह से जलते थे।
एक बार अकबर ने यह आदेश प्रसारित किया कि मेरे दरबार में कोई भी राजा तिलक लगाकर और माला पहिनकर नहीं आयेगा। किन्तु मधुकरशाह पर उनके आदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे पहले की अपेक्षा और लंबे और गहरा तिलक लगाकर और अधिक मालाएँ पहिनकर शाही दरबार में उपस्थित हुए। अपनी आज्ञा की अवहेलना देखकर बादशाह बहुत ही क्रोधित हुआ और ओरछा राज्य पर अधिकार करने की योजना बनाने लगा।
अकबर ने उन्हें पराजित करने के लिए दो बार फौजें भेजीं। उन फौजों के साथ न्यामत अली खाँ, अली कुली खाँ और जामकुली खाँ को सेनापति बनाकर ओरछा पर चढ़ाई की, किन्तु मधुकरशाह ने उन सबको पराजित करके लौटा दिया। राजा तो परम भक्त थे ही, किन्तु उनकी रानी गणेश कुँवरि भी दिव्य स्त्री थीं। राजा मधुकर शाह की निर्भीकता और धार्मिक कट्टरता को देखकर अकबर बादशाह ने उन्हें ‘टिकैत’ की उपाधि से विभूषित किया था।
यही कारण है कि बुंदेलखंड के इतिहास में राजा मधुकरशाह ‘टिकैत’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। स्व. मुंशी अजमेरी जी ने अपने सुप्रसिद्ध काव्य ग्रंथ ‘मधुकरशाह’ में इस गाथा का वर्णन किया है…
एक दिन आके बादशाह बहार में,
बोले बादशाह उसी खास दरबार में।
राजा महाराजा यह हुकम सुनें मेरा सब,
तिलक लगाकर आना ठीक नहीं होगा अब।
देखिये किसी का नहीं यह घरबार है,
जानें आप लोग यह मेरा दरबार है।
तिलक लगाना मुझे सख्त नागवार है,
आपसे इसी से यह इसरार है।
तिलक लगा के यहाँ कोई अब आयेगा,
दाग गर्म लोहे से लिलार दिया जावेगा।
कह गये बादशाह यह बातें गंभीर हो,
रह गये राजा सब शिथिल शरीर हो।
लौट दरबार से विचार किया सबनें,
दोष बादशाह को यथेष्ट दिया सबनें।
अकबर बादशाह की आज्ञा का मधुकरशाह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। बल्कि उन्होंने दूसरी बार और अधिक बड़ा सा तिलक लगा लिया और शाही दरबार में उपस्थित हुए। गाथाकार ने इस घटना का वर्णन करते हुए लिखा है…
ओरछेश प्रातकाल नित्य कृत्य करके,
पूजा में प्रवृत्त हुए ध्यान धरके।
तिलक लगाते नित्य माथे पर छोटा सा,
उस दिन नाक से लगाया मोटा सा।
उनकी निर्भीकता को देखकर बादशाह ने प्रशंसा करते हुए लिखा कि…
आपके ही नाम से लगाया अब जायेगा।
मधुकरशाही अब ये टीका कहलायेगा।
बुंदेली संस्कृति की रक्षा करने वाले महान भक्त राजा मधुकरशाह का नाम बुंदेलखंड के जन-जन के मानस पटल पर अंकित है। राजा मधुकरशाह की रानी गणेश कुँवरि की भक्ति भावना से सारा भारत भलीभाँति परिचित है।
इस गाथा का सम्बन्ध ओरछा के राम राजा से माना जाता है। कहा जाता है कि रानी गणेश कुँवरि ही राम राजा को अयोध्या से ओरछा ले आईं थीं। राजा मधुकरशाह भगवान कृष्ण के उपासक थे और उनकी रानी प्रभु राम की उपासक थीं। आराध्यों में अंतर होते हुए भी पति-पत्नी के सम्बन्धों में कोई विरोध नहीं था।
एक बार राम भक्ति में लीन होने के कारण रानी को कुछ विलम्ब हो गया। राजा कहने लगे कि मैं तुम्हारी कब से प्रतीक्षा कर रहा हूँ। तुम तो राम के अनुराग में इतनी तन्मय हो जाती हो कि जैसे वे तुम्हारे सब कुछ हों। हालाँकि महाराज का यह कथन परिहास मात्र था, किन्तु महारानी को उनकी यह बात चुभ गई। वे शांत होकर रह गई और मन ही मन राम को पाने की योजना बनाने लगीं। वे अपनी सच्ची भक्ति का परिचय देकर पतिदेव को लज्जित करना चाहतीं थीं।
वे मन ही मन प्रतिज्ञा करके अयोध्या नगरी को चल दीं। उनकी उस महत्त्वपूर्ण यात्रा पर आधारित एक पद प्रचलित है…
प्रणत हित करत सदा रघुराई।
संवत् सोलह सों इकतिस में, अवधपुरी को जाई।
श्री सरजू अस्नान करत में, आन मिले रघुराई।
मधुकर शाह नरेश भक्तिमय, भक्तिमाल में गाई।
तिनकी रानी गणेश कुंवरि दे, राम ओरछा ल्याई।
प्रणत हित करत सदा रघुराई।
रानी अयोध्या नगरी में जाकर निवास करने लगीं और वहाँ भक्ति में लीन रहकर उन्हें प्राप्त करने का प्रयास करने लगीं। वे भगवान राम को ओरछा में ही लाना चाहती थीं। बहुत दिनों तक निवास करते-करते जब उन्हें भगवान राम नहीं मिले तो वे बहुत निराश हुईं। वे सरयू में डूबकर प्राण त्यागने को तत्पर हो गईं।
एक दिन प्राण त्यागने के उद्देश्य से ज्यों ही उन्होंने सरयू में डुबकी लगाई, त्यों ही उनकी गोद में भगवान राम आ गये। उन्हें देखते ही रानी का हृदय प्रसन्न हो गया। वे भगवान राम को छाती से लगाकर जल के बाहर निकली। रात्रि में उन्होंने स्वप्न देखा कि कोई उनसे कह रहा है कि देखो मैं केवल पुष्य नक्षत्र में ही यात्रा करूँगा। तुम मुझे पुष्य नक्षत्र में ही ले जाना।
कहा जाता है कि रानी उन्हें पुष्य नक्षत्र में ही लेकर चलीं थीं। जब पुष्य नक्षत्र का समय निकल जाता, तब वे वहीं रूक जाती और पुनः पुष्य नक्षत्र आने पर यात्रा आरंभ कर देतीं। इस प्रकार अयोध्या नगरी से ओरछा तक आते-आते उन्हें कई वर्ष बीत गये।
किन्तु ईश्वर की कृपा से उनकी इच्छा पूर्ण हो गई। अपनी रानी की भक्ति भावना देखकर मधुकरशाह को बहुत आनंद प्राप्त हुआ। राजा ने राजा राम की स्थापना हेतु एक मंदिर का निर्माण करवाया। बड़ी ही धूमधाम से मंदिर में मूर्ति की स्थापना की थी। ओरछा में राजा राम की मूर्ति और वह मंदिर आज भी विद्यमान है।
हमारी बुंदेली संस्कृति, भक्ति, आदर्श और त्यागशीलता से परिपूर्ण है। मधुकरशाह और रानी गणेश कुँवरि का उदाहरण हमारे समक्ष है। यहाँ के ग्रामों में मधुकरशाह और रानी गणेश कुँवरि की यश गाथाएँ बड़े ही चाव से गाईं जातीं हैं। संवत् 1661 चैत्र शुक्ल सोमवार को रानी अपने राम लला सहित ओरछा पधारी थीं। उसी समय से चैत्र शुक्ल 9वीं तिथि को ओरछा के मंदिर में रामनवमी का पर्व मनाया जाता है। पुराणों में यह तिथि रामजन्म के नाम से प्रसिद्ध है। यह संस्कृति का प्रमुख केन्द्र है।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)