Homeबुन्देलखण्ड के साहित्यकारLok Kavi Khayaliram लोक कवि ख्यालीराम

Lok Kavi Khayaliram लोक कवि ख्यालीराम

Lok Kavi Khayaliram महाकवि ईसुरी, गंगाधर व्यास के साथ बुन्देली काव्य परम्परा की वृहत्त्रयी में सम्मिलित है। लोक कवि ख्यालीराम का जन्म चरखारी में श्री रामसहाय लोधी के घर विक्रम संवत् 1906 को हुआ।

लोक कवि श्री ख्यालीराम…  रस और अनुभूति के चित्रक

श्री ख्यालीराम के पिता एक सम्पन्न कृषक थे, इनकी ससुराल वाले भी सम्पन्न थे। इनके दो पुत्र महिपाल सिंह तथा छत्रपाल सिंह थे। ख्यालीराम अपनी मौलिक काव्य प्रतिभा के कारण काफी ख्याति प्राप्त कर चुके थे। ये लोककवि ईसुरी के समकालीन थे। इन्होंने कवित्त, घनाक्षरी तथा चौकड़िया फागें लिखी हैं। इनके साहित्य का विधिवत् संग्रह कहीं नहीं मिलता है। लोकमुख में ही इनकी रचनाएँ उपलब्ध हैं।

ग्रामीण इलाकों में लोक विभिन्न उत्सवों और मेलों में इनकी रचनाओं को गाते हैं। कहा जाता है कि ख्यालीराम की जमींदारी चरखारी नरेश के पास गिरवी रखी थी। इसके बारे में जब उन्होंने कवित्त में ही नरेश से प्रार्थना की तो चरखारी नरेश ने काव्य प्रतिभा से प्रभावित होकर उनकी जमींदारी लौटा दी थी। ख्यालीराम बिजावर स्टेट में थानेदार के रूप में पदस्थ रहे। ख्यालीराम क्षत्रिय थे। इन्हें शिकार खेलने का बहुत शौक था। स्वभाव से वे आत्मलोचक भी थे। ख्यालीराम ईसुरी की शैली से अलग ढंग की फागें लिखते थे। उनकी काव्य-उपमा चित्ताकर्षक होती है। नायिका भेद, अंग-प्रत्यंग चेष्टाओं आदि में रीतिकालीन प्रभाव है। इनका निधन संवत् 1961 में हुआ।

दोहा – कहा दोस करतार कौ, करम कुटिल गहि बाँह।
करमहीन किलपत फिरैं, कलपवृक्ष की छाँह।।

फाग – किलपैं कल्प लता के नीचैं, दोसी दोई दृग मींचैं।

मैले चीर-नीर में लैकैं, उज्ज्वल होउ न फींचें।।
करै उपाव दाव कोऊ कितनऊँ, फरतीं करम रंगीचैं।

ऊँच नीच करतव कर काया, रै गई दोई दुबीचें।।
इमली आम होय न ख्याली, चाये दूद सें सींचें।

कर्मगति ही प्रधान होती है। इसमें ईश्वर का कोई दोष नहीं है कि कोई कुमार्ग की बाँह पकड़ कर चले और दोष ईश्वर को दे। कल्पवृक्ष की छाया में भी कर्महीन व्यक्ति कष्ट से पीड़ित रहता है। कल्पलताओं के नीचे बैठकर दोनों आँखें बंद करके कोई भी कर्महीन व्यक्ति दुखी हो सकता है।

गंदे वस्त्र को गंदे पानी में धोने से वह साफ नहीं होता। कोई भी व्यक्ति कितने ही उपाय कर ले किन्तु कर्मगति का परिणाम उसे भुगतना ही पड़ता है। ऊँच-नीच की गति भी करम से ही निर्धारित होती है। ख्यालीराम कहते हैं कि इमली के वृक्ष को चाहे दूध से ही क्यां न सींचो उसमें आम नहीं फल सकते या आम जैसे मीठे फल नहीं हो सकते।

दोहा – नहिं वियोग नहिं सौत घर, नहिं ग्रहा बलवन्त।
बहू होत कस दूबरी, लागे ललित बसन्त।।

फाग – अली नहिं वियोग के पिय कैरौ, मलिन भओ तन तेरौ।

भोरौ भाव सुभाव साथ लयै नहिं सौत दुख मेरौ।।
सुख सम्पत सब ग्रहा बली है नहिं विधाता डेरौ।

ऐसी ललित बसन्त अबाई, स्रवत समीर छरैरौ।।
ख्यालीराम नायिका कौ दुख, कवि जन करौ नबेरौ।।

वियोग भी नहीं और न ही सौंत घर में हैं न ही कोई दुष्ट ग्रह बलवान है फिर भी सुहावने बसन्त के लगते ही वधू क्यों दुबली हो रही है? सखी प्रिय का विरह भी तुझे नहीं है फिर तेरा शरीर क्यों मलिन (कांतिहीन) पड़ रहा है।

सभी सुख सुविधाएँ, धन दौलत तेरे पास होते हुए सभी ग्रह तेरे बलवान हैं। यहाँ तक की विधाता (सृष्टिकर्ता) भी तुमसे रूठा नहीं है। ऐसे सुन्दर बसन्त के आगमन पर मन्द-मन्द पवन चल रही है। ख्यालीराम कहते हैं कि कविजन ही निवारण करें कि इस नायिका को कौन सा दुख है ?

फाग – कीनै दया धरम के पाखे, सील सपीलन राखे।

अतरारी प्यारी ममता की, करम करे दौ पाखे।।
मन मजबूत माया की म्याँरी, माल मौज के साखे।

छाये सील छमा के छप्पर, खप्पर खैर नबाके।।
कवि ख्याली ऐसे- घर काजें, सुर मुनि नर अभिलाखे।।

कवि ख्यालीराम कच्चे मकान निर्माण की प्रक्रिया के माध्यम से एक सुन्दर मकान की कल्पना करते हुए कहते हैं कि दया और धर्म मकान की दो पाखे (विपरीत दीवालें) हैं जिनपर शील की सपील (लकड़ी का लट्ठा) रखी गई है। ममता की अतरारी (छोटी लकड़ियां) लगाकर कर्म के दो पक्षों पर उसे रखा गया है।

मन के दृढ़ संकल्प की म्यारी (बीच में वक्राकार मोटी लकड़ी जो मुख्यतः छप्पर का भार वहन करती है) तथा मस्ती के माल (म्यॉरी पर सीधी मोटी लकड़ियाँ) रखे गये हैं। ऐसे मकान में क्षमा तथा शील के छप्पर छाकर उस पर नम्रता की खपरैल डाली गई है। ख्यालीराम कहते हैं कि ऐसे मानवोचित सद्गुणों से युक्त निर्मित आवास में रहने के लिए देव, मुनि तथा मनुष्य सभी अभिलाषा रखते हैं।

बालम सोच लेव बेदरदी, बागन छाई जरदी।
कोंप कली विधि हमखाँ दीनीं, उनै दई नामरदी।

अब रस परो कलिन के ऊपर, भौंर करत है गरदी।
ख्यालीराम कोंप पै बगिया, हर दम चाहत सरदी।।

हे निष्ठुर प्रिय ! तू विचार कर कि बागों में मनहूसियत क्यों छाई है? विधाता ने हमें जवानी रूपी कली की कोंपल दी है और उनको (पति) नपुंसक बना दिया है। अब मेरे युवावस्था रूपी कलिका रसवंत हुई है जिससे मेरी ओर भ्रमर बन लोग चक्कर काटते हैं। ख्यालीराम कहते हैं कि युवावस्था रूपी वाटिका की कलिकायें सदा नमी (प्रेम) चाहती हैं।

फाग – रजनी बीत गई सुन सइयाँ, भोर भये निस नइयाँ।

दीपक जोत मलीन भई है, बिरलई लखत तरइयाँ।
उतरी ननद सास महलन सें, आहट भई अंगनइयाँ।

मोतिन माल गरैं सीरी सी, पीरी मुख विकसइयाँ।
ख्याली राम सबेरौ हो गयो, बैठौ जाव अथइयाँ।

 नायिका नायक को रात समाप्त होने तथा भोर होने पर संबोधित करती हुई कहती है कि हे प्रिय ! रात्रि बीतकर प्रातः हो गया है। दीपक की लौ, पूरब की पौ फटने से मलीन (धीमी) हो गई है तथा नभ में कम तारे ही दिखाई दे रहे हैं। सास व ननद भवन के ऊपरी हिस्से से उतरकर आँगन में आ गई है। गले में पड़ी मोतियों की माला आभाहीन हो मुख मलिन हो रहा है। ख्यालीराम कहते हैं कि नायिका कहती है कि हे प्रिय ! अब सबेरा हो गया है, उठकर बाहर अथाई (चबूतरा) पर बैठिए।

फाग- तिल की परन तिलन सें हलकी बाँये गाल पर झलकी।
कै गोविन्द गुराई ऊपर, निकर गए कर छल की।

मानों चुइँ चंद के ऊपर, बुंदिया जमुना जल की।
लैन पराग गुलाब फूल पै, उड़ बैठन भइ अलकी।

दोऊ नैन रहे हेरत से, झरप उरी नहिं पल की।
ख्याली राम हो गई पूरन, दिल पै दाव कतल की।।

नायिका के बाँयें गाल पर जो तिल है वह तिल (तिली का दाना) से भी छोटा है किन्तु शोभायमान है। इसको देखकर ऐसा लगता है कि या तो गोपाल गोरे रंग से छलपूर्वक निकल गए हैं जिसका अवशेष बच गया है। या चन्द्रमा के ऊपर यमुना के जल की बिंदु चूँ गई है या भ्रमर गुलाब फूल पर पराग लेने आकर बैठ गया हो। इस तिल की शोभा को दोनों नेत्र विस्मित होकर ही देखते रह गए। ख्यालीराम कहते हैं कि ऐसा सुन्दरमुख देखकर (जिस पर तिल है) हृदय का कत्ल ही हो गया।

फाग – जग में बारा रासें जानौ, जोतिस मत खाँ मानौ।

कर्क मीन वृश्चिक रास में, विप्र बरन पहचानौ।
कन्या मकर और वृष इनमें वैश्य बरन कर छानौ।

मेष सिंह धनु रास वास में सो क्षत्रिय सन मानौ।
कुंभ तुला अरुँ मिथुन जौ ख्याली सोई सूद्र बखानौ।

ख्यालीराम कहते हैं कि ज्योतिष मत को मानते हुए संसार में बारह राशियों को जानना चाहिए। कर्क, मीन, वृश्चिक राशियों वाले विप्रवर्ण, कन्या, मकर और वृष राशि वाले वैश्य वर्ण, मेष, सिंह एवं धनु राशि वाले क्षत्रिय वर्ण तथा कुंभ, तुला और मिथुन राशि वाले शूद्र वर्ण वाले होते हैं।

फाग – नाहक छेड़त मग श्यामलिया, साख विसाखा ललिया।

श्री वृषभान सुता महरानी, राज त्रिलोकी अलिया।
कट गओ सम्मन तुरत पकर कें, मँगा लओ छल बलिया।

दफा तीन सौ सैंतालिस में, राय हुकुम फैसलिया।
ख्याली राम राधिका जी की, झारौ जाए महलिया।।
(उपर्युक्त रचनायें डॉ. के.एल. पटेल के सौजन्य से)

श्याम तुम व्यर्थ में ही रास्ता में छेड़खानी करते हो साथ में विसाखा व ललिता सखियाँ हैं। राधा वृषभान की पुत्री तथा महारानी हैं, उनका तीनों लोकों में राज्य है। छेड़खानी के आरोप में तुम्हारा सम्मन जारी होकर छल बल से आपको पकड़ लिया गया है और अपराध की धारा 347 में यह निर्णय दिया गया है कि श्याम राधा के महल में झाडू लगाएंगे।

राधा तै बड़भागनी, कौन तपस्या कीन।
तीन लोक त्रिभुवनधनी, तैने बस कर लीन।।

है बड़भाग राधका तेरौ, पुन्न पुरातन केरौ।
सिव सनकादि और ब्रम्हादिक, जिनकौ चहत छहेरौ।

सो माधव राधा के उरमें, बैठो खेत बसेरौ।।
सुंदर श्याम रँगीले कौ मन, राधा चितकौ चेरौ।

कवि ख्याली उनकें का कमती, जिनके श्याम कमेरौ।।

हे राधिका जी! तुम बहुत ही भाग्यवान हो। तुमने ऐसी कौन सी तपस्या की है कि तीनों लोकों के स्वामी श्री कृष्ण को तुमने अपने बस में कर लिया है। हे राधिका जी! तुम्हारा भाग्य बहुत ही अच्छा है जो तुम्हारे पूर्व जन्म के पुण्य-कर्मों का प्रभाव है। सनकादि ऋषिगण और शिव-ब्रह्मा आदि देवता जिनकी कृपा चाहते हैं वे श्रीकृष्ण जी राधिका जी के हृदय में निवास करते हैं। सांवले सुन्दर श्रीकृष्ण का मन राधिका जी के चित्त का सेवक है। कवि ख्याली कहते हैं कि जिसके लिये अर्जन करने वाले स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हो उसको संसार में क्या कमी हो सकती है?

काउ ने बरनी नासिका, काउ ने वरनी दीठ।
कवि ख्याली वरनन करी, कदलि पत्र सम पीठ।।

कवि ने कदलि पत्र सम वरनी, पीठ सुरन मन हरनी।
जोड़ी जुग कुंदन की पटरी, वहीं बीच वैतरनी।।

अमी अगाह थिये के लाने, चढ़ी नागिनी तरुनी।
कवि ख्याली की जीवन दाता, नन्दनन्दन की घरनी।।

 नायिका के नख-शिख वर्णन में किसी कवि ने नायिका की नासिका का वर्णन किया और किसी ने नायिका की नजर का वर्णन किया हैं किन्तु ख्याली कवि ने नायिका की पीठ को केले के पत्ते के समान वर्णन किया है। ख्याली कवि ने नायिका की पीठ को केले के समान बताते हुए कहा हैं कि यह पीठ देवताओं के मन को भी मोहित करने वाली है। पीठ के दोनों भाग मानों सोने की पटरी बनी हो और बीच का भाग मानो वैतरनी नदी हो। पीछे लटक रही चोटी लगती है मानो तरुण नागिन अमृत से तृप्त होने के लिये चढ़ी हो। कवि ख्याली कहता है कि श्रीकृष्ण की प्रियतमा राधा जी मेरी जीवनदायिनी हैं।

अब लसगर रितुराज के, दृग-दृग छाये दौर।
बिगुल बजावै कोकिला, कलमी अंबन मौर।।

लसगर ऋतुराजा के छाये, मदन महीपत आये।
दीरघ दृगन वीरवर बाँगे, ऊधम अधिक मचाये।

सुमन कली पै कली लहर दै, अलिगन भाव बताये।
कवि ख्याली प्रीतम प्यारे ने, अंत बसंत मनाये।।

 ऋतुराज बसंत की सेना ने स्थान-स्थान पर अपना मोहरा बना लिया है। नायिका की आँखों में भ्रम हो रहा है। कोयल सुन्दर आमों की मौर पर बैठकर युद्ध का बिगुल बजा रही है। ऋतुराज बसंत की सेना सब जगह फैल गई है और कामदेव रूपी राजा का आगमन हो चुका है। गंभीर नेत्रों का वीरत्व भरा बांकपन सभी को परेशान कर दिया है। पुष्प की कलिका पर विहरते हुए भ्रमर ने मिलन हेतु नेह युक्त भाव को अभिव्यक्त किया। कवि ख्याली वर्णन करते हैं कि नायिका विचार करती है कि प्रियतम ने किसी अन्य स्थान पर रुककर बसंत का आनंद लिया है।

पटियाँ गोला मुख पै पारें, सेंदुर माग सँवारें।
मानो चंद्र ग्रहा के ऊपर, कागा पंख पसारे।।

तिरवेनी वेनी खाँ देखें रह गई सिमट किनारें।
ख्यालीराम दरस के होतन, कलिमल सब धौ डारें।।

नायिका का मुख सुन्दर गोलाकार है। सिर पर उन्होंने अपने बालों को कंधे से बीच की सीधी मांग छोड़कर दोनों ओर सम्हाल लिया है और बीच के भाग में सिंदूर भर दिया है। जो ऐसा लगता है मानो चन्द्रमा के ऊपर कौये ने अपने पंख फैला दिये हों। बालों की सुन्दर गुथी हुई वेणी (चोटी) को देखकर त्रिवेणी भी लजा गई है। ख्याली कवि कहते हैं कि उनके दर्शन ही कलिकाल के सभी मालिन्य समाप्त हो जाते हैं।

फूली फुलबाग फुलबाई, लखे लखन रघुराई।
टेसू पान तड़ाग तीर के, शोभा बरन ना जाई।

क्यारिन में कुंजन की करनी, क्यों विधि होत बनाई।
बेली बेल बितानन ऊपर ऋतु बंसत की छाई।

ख्याली जनकसुता जगजननी, गिरजा पूजन आई।।

जनकपुर के बगीचों में विविध प्रकार के सुन्दर फूल फूले हुए हैं जिन्हें देखकर श्रीराम और लक्ष्मण आनन्दित हो रहे हैं। सरोवर के किनारे पलाश के वृक्ष की छवि अनुपम है। क्यारियों में पौधों और लताओं को माली ने अपने कुशल चातुर्य से उन्हें कुंजों का सुन्दर रूप दे दिया है। उपवन की लताओं के विस्तार में बसंत ऋतु छाई हुई है। ख्याली कवि कहते हैं कि इसी समय जनकपुत्री सीता जी जगतमाता पार्वती जी की पूजा करने के लिये बगीचे में आईं।

तुमसों मिलबो चाहत नैना, आठ पहर बिसरै ना।
मिस लै लै आ कहिये तुमसौं, तुमें कछु कहवै ना।।

इ अटपटी कपट की बातें, हो गई अब सट है ना।
कवि ख्याली से मिलौ ललकभर, क्या लेना क्या देना।।

नयनों में तुमसे मिलने की चाहत है जिसे वे दिन-रात याद रखते हैं कुछ न कुछ बहाना करके तुमसे कुछ कहना चाहते हैं किन्तु तुम्हारे लिये कुछ नहीं कहते। इस तरह छल की अनोखी (विचित्र) अभी तक चलती नहीं किन्तु अब ऐसा नहीं चल सकेगा। कवि ख्याली कहते हैं कि अन्य बातों से कोई मतलब नहीं केवल मन भर कर मिल लो।

ऊधौ मनमोहन ना आबे, निठुर भये सरसावें।
हमखाँ जोग भोग कुब्जाखाँ, जा नई राय चलाबें।।

जबसे गये खबर ना भेजी, नहीं सँदेश पठावें।
आपुन जाय द्वारका छाये, कुब्जा कंठ लगावें।

कवि ख्याली इतनी ब्रजवाला, मृगछाला काँ पावें।।

हे उद्धव जी ! मनमोहन (श्रीकृष्ण) यहाँ वापिस नहीं लौटै, वह निष्ठुर (कठोर हृदय के) होकर रस से सिंचित कर रहे हैं अर्थात् योग के उपदेश का संदेश रूपी रस का पान हितचिन्तन के भाव से नहीं बल्कि निष्ठुरता से कर रहे हैं। हमारे लिये योग का उपदेश भेज रहे हैं और उधर कुब्जा को भोग का पाठ पढ़ा रहे हैं- यह नवीन व्यावहारिकता बनाई है। जब से यहाँ से गये हैं न तो कभी कुशल-क्षेम की जानकारी भेजी और न ही कोई समाचार दिया। उन्होंने कुब्जा को अपना लिया और द्वारिका में रहने लगे। ख्याली कवि कहते हैं कि ब्रजबालायें इतनी अधिक है कि उनके लिये मृगचर्म की व्यवस्था कैसे हो?

अंग नग नग नीकौ बनो, रँगनी कौ गोपाल।
कवि ख्याली देखौ सुचल, बलिहारी ब्रजबाल।।

नीकौ अंग नग नग रँगनी कौ रूप रमा रमनी कौ।
मृगी मीन मधुकर मद मोचन, लोचन लोच अमी कौ।

नासा कीर कपोल कंठ सुर कोकिल कल कमनी कौ।
कटिमृगपति लख रहत परायन, सुंदरि गज गमनी कौं।

कवि ख्याली निसदिन गुन गावें स्यामलिया सँगनी कौ।।

हे कृष्ण! नेहासिक्त ब्रजबाला आपके नेह में आप पर निछावर है आप चल कर देखो उसके शरीर की पोर-पोर सुन्दर है। वह नव यौवना लक्ष्मी के समान सुन्दर है। हरिण, मछली और भ्रमर के मद को चूर करने वाले नयनों की अमृत सी उत्तमता है। उस नायिका की नासिका तोते के समान, कंठ कबूतर के समान और स्वर कोयल के समान मधुर है। उसकी कमर को देखकर सिंह पलायन कर जाते हैं अर्थात् कटि सिंह की कमर से भी सुन्दर है। उस नायिका की चाल हाथी के समान है। ख्याली कवि रात-दिन राधा-कृष्ण का गुणगान करता है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

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