भइया जिन मारौ मोये काँकरी, जिन बोलो भाभी बोली हमतौ चिरैया परदेश की, भाभी आज उडै कै काल।।
घर के आंगन में फुदकने वाली चिड़ियाँ हैं वालिकायें। Lok Jivan ke Swar धरोहर है। धरोहर की रक्षा का भार माता-पिता पर होता है। सुयोग्य वर के हाथों मे सौंप कर ही माता-पिता निश्चित हो पाते हैं, इस धरोहर की रक्षा के उत्तरदायित्व से ये धरोहर जीवंत है, प्राणवान हैं, हँसती-मुस्कुराती है, बोलती-बतियाती है रीझती-खीझती है, इन्हीं आधारों के कारण मूल्यवान है।
इन्हें लाड़-प्यार चाहिए, स्नेह और दुलार चाहिए। संस्कार चाहिए, कैसे चलें फिरें, कैसें बोलें-बतरायें, कैसें उठे-बैठें और अपने-विरानों से कैसे व्यवहार करें यह सब कन्या पिता के घर आँगन में ही सीखती है। सीखने का यह क्रम आराधना है। अनुष्ठान है। और खेलने-कूदने की उमर से ही आरम्भ हो जाता है। इसीलिए क्रीड़ात्मक भी है। शरद ऋतु के प्रभाव का स्मरण वेद की ऋचाओं में भी है। सौ शरद तक जीवित रहने की अभिलाषा के उल्लेख हैं।
शरद ऋतु में लोक जीवन के स्वर
भादों की पूर्णिमा से आंरभ होता है। कन्याओं का अराधना पर्व ‘सुअटा। और इस क्रीड़ात्मक आराधना का समापन होता है शरद पूर्णिमा को। शरद पूर्णिमा लोक-जीवन में सुअंटा की पूनें हैं। भादों की पूर्णिमा से थपियाँ आरम्भ हो जाती हैं। मोहल्ले की बालिकायें एकत्रित होकर गोबर की छोटी-छोटी थापा बनाती हैं। बरसात में गोबर गीला रहता है, उपले नहीं बनते। भादों की पूना थापने प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। आराधना लोक-जीवन से जुड़ जाता है।
टीपुरिया पै टीपुरिया घनेरी बमुरिया,
बई तरें उतरौ राजो बाई को डोला,
डोला के नीचे भइया सोनें कौ हिंडोला,
बई के चमकें उँदना-फूंदना, बई कौ चमके हिंडोला,
टीपुरिया पै टीपुरिया घनेरी बमुरिया….
बमुरिया बुंदेलखण्ड का सर्व-सुलभ पेड़ है। नव–परिणीता का डोला उसी पेड़ के आसपास उतरता है। सोने के हिंडोले में लटकते हुए फुदने आकर्षण को बढ़ा देते हैं। गोबर की थपियाँ बनाती हैं। फूलों की पंखुड़ियाँ चिपकाकर उन्हें अर्चित किया जाता है।
जिजी के घर पै फूली तुरइया
को टोरे को खाये रे..
जिजियई टोरें जिजियई पकायें
जिजी के आ गये आँउने-पाँउनें
हमरें आ गये वीर रे….
जिजी पकाई मठा महेरी
हमरें पकाई खीर रे…..
जिजी कौँ दै गये उंदरी-मुंदरी
हमकों दै गये भैंस रे….
जिजी की गिर गई उंदरी-मुंदरी
हमरी बी गई भैंस रे…..
जिजी के घर पै फूली तुरइया
को टोरै को खाय रे….
गीतों के स्वर पुरा-मोहल्लों को मुखरित करतें है। वातावरण जीवंत हो जाता है।
बई बरिया तरै खेलत तीं और बई के टोरे पान,
मैं तो संझा-लोई खेलत ती……..
उतई से आये बिरन हमारे,
बोली लई पहचान मैं तो संझा-लोई खेलत ती……..
काये बैना अनमनी और ननदी बोलें.
बोल मैं तो संझा लोई खेलत ती…..
क्वाँर का पहला पखवारा बीत गया। अंधियारा पक्ष निकल गया। क्वाँर की अमावस्या को ‘थपियाँ’ विसर्जित करने के लिए तालाब अथवा नदी में ले जाया जाता है। बालिकाओं के झुंड में सजी-धजी ‘मामुलिया’ होती है। विरिया की टहनी काँटेदार फूल-पत्तियों से सुसज्जित।
मामुलिया के आये लिबउआ, झमक चली मेरी मामुलिया……
ल्याओ-ल्याओ तुरइया के फूल सजाओ मेरी मामुलिया…..
सजी-धजी मामलिया को जल में सिराकर बालिकायें नहाती हैं। थपियों भी जल में अर्पित कर दी जाती है। मामुलिया की आराधना का समापन हो जाता है। घर लौटती बालिका का स्वर मार्ग को मुखरित करता है।
लहरें ले खैर बमुरियाँ,
लहरें लेत खजूर रे……
लहरें लेबै गुड्डी सी बिटियाँ,
उनई को सासरौ दूर रे….
आज पढ़ दऊँ नउआ-बरुआ
काल बमन को पूतरे…
परौं पठै दऊँ कल्लू से भैया
नौं घोड़ी असवार रे……
क्वाँर का उजयारा पाख, प्रतिपदा का प्रात-काल। सुअटा बनकर तैयार और बलिकायें गौरा की प्रतिमाएँ बनाती हैं। पड़वा से नवमीं तक ‘गौरें बनाई जाती हैं। फिर दूध में धतूरे का फूल डूबोकर उन्हें अर्पित किया जाता है। इसे ‘काँय डारना’ कहा जाता है। मिट्टी से बनाई गई ये ‘काँये’ गौरी प्रतिमायें हैं।
हिमांचल की कुवांरि लड़ायती नारे सुअटा,
गौरा बाई नेरा तोरा नाय…….
तो नहइयो बेटी नौ दिनां नारे सुझटा
दसरये कौँ परना परै,
परना परै मैं लड़े नारे सुअटा
भाई लड़ गये नदिया मोर,
नवरात्रि के नौं दिन पार्वती की आराधना के दिन माने जाते हैं। जागरण से आरंभ होते है। ये आराधना-गीत। पारिवारिक संबंधों की वास्तविका को उजागर करते हैं।
उठौं-उठौँ सूरज मल भैया भोर भये नारे सुअटा मालिन ठाड़ी दरबार……
का मालिनी नारे सुअटा कौन नगर को फूल……
नर वर गढ़ की मालिनी नारे सुअटा
राय बरेली कौ फूल……..
बालिकाओं को प्रातःकाल उठना है। सूरज निकलते-निकलते घर की सफाई करना है। घर को लीपना-पोतना है। घर के काम काज करना है।
कौन बड़े की लाड़ली नारे सुअटा, पलका से पाँव न देय………
पलका से पाँव बेटी ना धरै नारे सुअटा
बिछिया उठे झन्नाय,
कौन बड़े के बिछिया नारे सुअटा,
कौन बड़े की बाँक…..
ससुर बड़े की लाड़ली नारे सुअटा,
बबुल बड़े की बाँक……
कौन बड़े की लाड़ली नारे सुअटा,
पलका से पाँव न देय…….
बेटियाँ मंगल कामनायें होती हैं। .. वे मातृ गृह के साथ पति-गृह को भी सम्पन्न देखना चाहती है।
उगई ने रे वारे चंदा
मो घर होय लिपना-पुतना,
सास न होय दै दै गारियाँ,
नद न होय कौसे बरियाँ,
जौ के फूल तिली के दाने,
चंदा ऊगे बड़े मुन्सारे।
X X X X
मूंगा मसेला
चनन कैसी घंटी,
सजन कैसी बेटी,
दूर दिसंतर दई हैं गौरा बेटी।
को बेटी तोय लिबाउन जै है,
बुलाउन जै है
चन्द्रामल भैया, सूरज मल भैया
पाड़ियाँ चटकाउत जै हैं
लीले से घुड़ला कुंदाउत जै हैं ।
लिबाउन जैं हैं, बुलाउन है,
लै पियरी पहराउन जें है
विवाह के उपरांत बेटी पति गृह पहुँचती है। ससुराल दूर भी हो सकती है। ससुराल से बुलाने चंदा-सूरज भैया जायेंगे। लोक-हित इन भाइयों के रोम-रोम में व्याप्त है। सब सुखी रहें, यही कामना है।
झिलमिल झिलमिल आरती,
महांउदे तेरी पारती,
को बाओ नोंनी,
चन्दामल बाओ नोंनी
सूरजमल बाओ नोंनी
नोंनी सलौनी भौजी
बिरन हमारे झिलमिल होय,
सूरजमल की सूरजा बेटी,
चन्द्रामल की सुरजा बेटी,
जौ के फूल तिली के दाने,
चन्दा ऊगै बड़े मुन्सारें।।
कुमारी कन्याओं की यह क्रीड़ात्मक अराधना एक माह चलती है। नवमीं को गौरें जलाशय में विसर्जित कर दी जाती है। विवाहित कन्यायें सुअटा उजाती हैं। मलियों में खुरमे भरकर बाँटे जाते है। एक दिन पहले ‘भसकू हो जाती है। अष्टमी को। प्रकृति के प्रति अनुराग झलकता है उस आराधना में। सौन्दर्य बोध विकसित होता है। और कला के प्रति अनुराग भी।।
जो तुम माँगो सोई चढ़े हों,
आर गौरा पार गौरा,
गौर गौर को चलीं,
मउआ के पेड़ें, मउआ सियरौ,
गौरा रानी पियरी…
अंकुरे चांउर,
धजा नारियल,
बेल की पाती,
जनम-जनम गौरा से बाती,
पाँच भैया पंडा छठयें आरसी
आरसी न पारसी।
गौर-गौर का चली।।
इस पर्व को पहला चरण मामुलिया के विसर्जन का है और दूसरा चरण गौरों क साथ गौरा रानी का विसर्जन है। तीसरा चरण सुअटा, चौथा टेसू और अंतिम झिंझिया है। महिने भर चलने वाला खेल और आराधना। लोक गीतों से गूंजते मोहल्ले।
सात लरी को झूमका नारे सुअटा
धरौई धरौ मखराय.सुअटा धरोई मखराय…..
लेओ भूरे भैया मोल कों नारे सुअटा
तिहारी दुलैया वर जोग
सुअटा तिहारी दुलैया वर जोग……
प्रचलित लोक कथाओं के आधार पर यह उपासना दैत्य अथवा दानव ही इस उपासना के मूल में अभीष्ट का भय है और उस भय के निवारण के लिए यह आराधना की जाती है। ये दैत्य-दानव कुमारी कन्याओं को या तो मारकर खा जाते थे अथवा उनका अपहरण कर उन्हे कष्ट देते थे। सांस्कृतिक चेतना का सबल पक्ष है, इस आराधना में।
चन्द्रामल के घुल्ला छूटे,
सूरजमल के घुल्ला छूटे,
सब भैयंन के घुल्ला छूटे,
चाराना बैरागै जैहाँ,
बाराना बैरागै जैहौ,
पानी पियन महौबे जैहौं,
दानें को दरबाजे जैहाँ, पान.
खान पातालै जैहौ,
बैठी हौं तौ गड़ गड़ जैहौ,
भाई को कही न कर हौ,
भौजी के बोल न सह हौं,
पनियाँ की खेप न घर हाँ,
गोबर की हेल न घर हौं,
चकिया कौ डड़ा न छी हों,
चूले के जरां न हों,
ताती कौं लप-लप खैहौं,
बासी कौ कौर न देंहो…….
विरोध का यह सिलसिला अवचेतन की तैयारी है। लोक जीवन और घर-गृहस्थी के कार्यों की सूची है। भाभी के बोल ननद को छिदते हैं। पानी की खेप, गोबर की हेल, चक्की चलाना और चल्हे पर बैठ कर खाना बनाना उसे कष्ट प्रद लगता है। लेकिन लोक जीवन मे यह सब करना ही है। आराधना का क्रम आगे बढ़ता है। कन्यायें संध्या समय पुरा-मुहल्ला में झिझिया माँगने निकलती है।
नारे नरवर गढ़ से चलीं बिटीना
झिंझिया माँगन जाँय
नारे पूँछत-पूँछत चलीं बिटीना
कौन बड़े जू की पौर
नारे ऊँची अटरियाँ लाल किबरियाँ
जौई बड़े जू की पौर
थार भरे मोती आ गई भरकें
ले ओ बिटीना भीख…
लड़कियाँ झिंझिया में माँगकर जो धान्य एकत्रित करती हैं, उसी से सुअटा के दिन सह भोज होता है। माँगकर लाने, बीनने, पीसने, बनाने से लेकर एक साथ बैठकर खाने का क्रम कन्याओं द्वारा होता है। यह लोक जीवन का अभ्यास है। एक ओर कन्याएँ झिंझिया माँगती है तो दूसरी ओर लड़के ‘टेसू।
बड़ौ दुआरौ बड़ी अटरियाँ,
बड़े जान के टेसू आयें,
टेसू अगड़ करें, टेसू झगड़ करें,
टेसू लैई के टरै ।
X X X
इमली की ताड़ पै चढ़ी पंतग।
हाथी घोड़ा डंकई डंक, डं
क बाकी ऐसौ बजै,
बैरी बाको हल-हल
सुअटा को विवाह के पहले ही खंड-खंड कर दिया जाता है। बालक उसके अंगों को लूट लेते हैं। सजाई गई आरती के दीपक का तेल और झिझिया के अंदर जलाये गये दिये का तेल नवयुवक अपने चेहरे पर लगाते हैं। मान्यता है कि इस तेल को लगाने से सिंउआँ और मुहाँसे नहीं होते।
हरीरी चिरैया तोरे पियरे पंख,
उड़-उड़ जाय बमूरा तोरी डार,
काजर की कजरौटी ल्याव,
आँचर फार उड़नियाँ ल्याव,
बेला भर तिल चाँऊरी ल्याव,
ऊपर गुर की बटी धराव,
पाँच टका पानन के ल्याव,
लौंग सुपारी रुपया ल्याव,
आज बिदा हो रहे झिंझिया जू…..
‘सुअटा’ लोक-जीवन की अनुपम झांकियों का समन्वित रूप है। इन लोक गीतों में माँ की ममता है। पिता का लाड़-प्यार है। भाई का दुलार है। सास के अत्याचार हैं। एकता की पुष्टि है। नारी के प्रति पूज्य भाव है। और है शक्ति-साधना। इसे नौरता भी कहते हैं।
शरद ऋतु में खेला जाने वाला सुअटा या नौरता भारतीय संस्कृति के यथार्थ और आदर्श के ताने-बाने को बुनता है। लोक-जीवन का पूरा परिदृश्य सामने उपस्थित हो जाता है। गृहस्थ-संस्कृति की वास्तविकता नौरता के गीतों का प्रमुख विषय हो जाता है। नौरता भारतीय नारीत्व का एलबम है। एक तरफ घरेलू स्त्री की व्यथा-कथा है तो दूसरी तरफ त्याग और अनुराग से रंगी नारी की कहानी।
‘सुअटा’ में बुंदेलखण्ड की नारी का पूरा मनोविज्ञान अवतरित हुआ है। सुअटा की तैयारी-लोककला की तैयारी है। चित्रांकन के कई रूप हैं। संधिकाल के गीत हैं एक खेल है। प्यारे शरद ऋतु के गीत । वस्तुतः नौरता या सुअटा एक खेल है। लोक-कथाओं का संगम है। रिश्तों की सीख है। नारी के प्रति अन्याय का विरोध है और उन सबके लिए किया गया एक अनुष्ठान है।