Homeबुन्देलखण्ड की लोक संस्कृतिLok Jivan Aur Samajik Samrasta बुन्देलखण्ड का लोक जीवन और सामाजिक समरसता

Lok Jivan Aur Samajik Samrasta बुन्देलखण्ड का लोक जीवन और सामाजिक समरसता

किसी भी देश की संस्कृति का आधार उस देश के भौगोलिक आधार के साथ- साथ साहित्य, कला, संगीत, धर्म, दर्शन, कला तथा राजनितिक विचारों पर आधारित रहती है। बुन्देलखण्ड का ग्रामीण  लोक जीवन भी इसी पर आधारित है।  इसकी सबसे बड़ी विशेषता सामाजिक समरसता है। बुन्देलखण्ड के लोक जीवन मे सभी जातियाँ मिल कर एक स्वस्थ और सभ्य समाज का निर्माण करते है और सभी एक दूसरे के पूरक हैं । Lok Jivan Aur Samajik Samrasta लोक की सबसे बड़ी विशेषता है । 

लोक जीवन में कला, संस्कृति और साहित्य का आधार
भारतीय समाज की जीवन शैली एक जैसी है किन्तु उसमें आंचलिकता और लोकत्व की झलक उसे विशिष्टता प्रदान करती है। Lok Jivan Aur Samajik Samrasta के सांस्कृतिक पक्ष में लोक संगीत, लोकगीत, लोकनृत्य, लोकवाद्य, लोककथायें, लोकगाथायें, बुझौअल, पहेली, लोकोक्तियां, रीतिरिवाज, पर्व उत्सव, व्रत-पूजन, अनुष्ठान, लोक देवता, ग्रामदेवता, खेल, मेले, बाज़ार, आदि का समावेश है। कला पक्ष के अन्तर्गत भूमि, भित्त चित्र , मूर्तिकला, काष्ठशिल्प, वेशभूषा, आभूषण, गुदना, आदि है।

लोक जीवन मे सामाजिक समरसता
बुन्देलखण्ड की लोकधारा वैदिक काल से प्रवाहित होती हुई अपनी लोक शक्ति के माध्यम से समाज के सभी वर्गों में समरसता बनाए हुई थी। वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाज व्यवस्था समन्वयवादी, पारस्परिक स्नेह एवं सम्मानवर्धक है। जन्म से लेकर मृत्यु तक हर ऐसे मौके पर समाज के हर वर्ग का एक दूसरे के प्रति परस्पर प्रेम, सौहार्द और एक दूसरे की मदद करना जीवन का अभिन्न अंग है।

जिस प्रकार नाई का विशेष स्थान है जन्म से लेकर शादी-विवाह और जीवन के अंतिम चरण तक नाई अपनी क्रियात्मक उपस्थिति दर्ज कराता है। समाज के लोग स्नेह से उसे खबास जू कह कर पुकारते हैं। उसी प्रकार खबास जू की पत्नी खबासन का हमारे सामाजिक कर्म काण्डों मे विशेष स्थान है। धोबिन से सुहाग मांगा जाता है। कुम्हार मिट्टी के बर्तन जिसे शतप्रतिशत शुद्ध और पवित्र माना जाता है। बढई की,माली की, ढीमर की सभी का रचनात्मक योग्यदान होता है।

सामाजिक एकरुपता में सभी वर्ग एक दूसरे पर निर्भर हैं। विवाह की लकड़ी काटने हेतु छेई के बुलावा से अन्त्येष्टि तक का बुलावा लगता है। मृत्यु के पश्चात भी फेरा डालने में सभी जाति/वर्गों का अपना-अपना स्थान और योग्यदान है। सामाजिक तथा आर्थिक सहयोग की भावना महत्वपूर्ण है।

लोक जीवन का ग्राम देवताओं में आस्था
बुन्देलखण्ड के Lok Jivan Aur Samajik Samrasta में हरदौल तथा कारसदेव आदि वह व्यक्तित्व हैं जिसे मानव होकर भी देवताओं की तरह पूजा जाता है। उनका प्रतीक उनका चबूतरा बन जाता है और वही उनकी आस्था का केन्द्र बन जाता है। बुन्देलखण्ड के विशिष्ट पर्व कजलियों के मेले में प्रेम से आलिंगनबद्ध होकर मिलना, कजलियां देना तथा बड़ों का चरण स्पर्श करना लोक धर्म है।

दशहरे मे रावण रूपी सामाजिक बुराई का जलना और सभी का एक दूसरे को पान खिलाकर एक दूसरे से गले मिलना हमारी संस्कृति का अंग है। सुअटा, नौरता, टेसू, अकती, विशिष्ट लोक-पर्व हैं। यह खेल बालक बालिकाओं को अपने जीवन में उतारने के लिए  पूर्व प्रशिक्षण देते हैं। बुन्देली लोक जीवन में अधिकतर शुभकार्य उत्तरायण तथा मुहूरत निकलवा कर किये जाते हैं।

विज्ञान की दृश्टि से पर्वतों नदियों, सरोवरों, और वृक्षों की पूजा की जाती है। पीपल, बरगद, नीम, आंवला, तुलसी, केला, बेलपत्र आदि वनस्पतियों को पूज्यनीय श्रेणी में रखा गया है। भोजन बनने के पश्चात तुलसी डाल कर ठाकुर जी को प्रसाद लगाकर खाना तथा तुलसी के बिरवे को नित्य जलदान देना प्रतिदिन का कर्तव्य माना गया है। वनस्पतियों का संरक्षण एवं सम्बर्द्धन वातावरण को शुद्ध कीटाणु मुक्त करता है।

लोक जीवन में लोक गीत
बुंदेलखंड के लोग अपनी अभिव्यक्ति लोक गीतों के माध्यम से व्यक्त करते है। किसी को इन गीतों के रचनाकार का पता नहीं होता है। आदि काल से मौखिक परंपरा में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी मे स्थानांतरण transfer होते रहते हैं ।

यह गीत प्रायः देवी-देवताओं के पूजा विषयक संस्कार गीत, ॠतु विषयक गीत, Romantic प्रेम प्रसंगयुक्त गीत, श्रमदान गीत, जातियों के गीत, बालक-बालिकाओं के क्रीड़ात्मक (खेलपरक) गीत, उपासना गीत या शौर्य गीत होते हैं। अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का एक सुंदर तरीका है। बुन्देलखण्ड के लोक गीत लोक संस्कृति के दर्पण हैं।

लोक जीवन में लोक नृत्य
भावनाओं का अति उत्साहित होना, लोकनृत्य उल्लास पूर्ण अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम हैं। हर्ष के क्षणों में जब समूह में हर्ष उल्लास उत्पन्न होता है तो पैर स्वतः ताल लय में थिरकने लगते हैं। यह नृत्य प्रायः तीन प्रकार के होते हैं-सार्वजनिक नृत्य, पारिवारिक नृत्य तथा जातीय या आदिवासियों के लोकनृत्य। करमा और शैला आदिवासियों के लोक नृत्य हैं। सार्वजनिक नृत्य के अंतर्गत दिवारी नृत्य होता है जिसमे हाथ में डण्डे और लाठिया लिये रहते हैं कमर में घुंघरु बांधे रहते हैं तथा टेर के साथ( आवाज लगाकर)  गाते हैं। नृत्य ढ़ोलक तथा नगड़िया के साथ समूह में होते हैं।

बुन्देलखण्ड का राई नृत्य प्रमुख रुप से बेड़िनी जाति का लोक नृत्य है। झिंझिया क्न्वार माह की पूर्णिमा को टेसू के अवसर पर कुंवारी बालिकाओं से लेकर वृद्ध महिलाओं तक के द्वारा नृत्य किया जाता है। धुबियायी, रावला, काछियाई, चमार, गड़रिया, मेहतर, कोरी आदि के अपने अलग-अलग परमपरागत सामजिक लोक विधाएं है जिनमे पुरुष स्री का वेश रखता है और दूसरा विदूषक बनकर गीत गाते है रमतूला, केकडी( सारंगी जैसा ) ढोलक, नगडिया, मंजीरा, खड्ताल आदि के साथ गाते नाचते हैं।

ढीमरयाई  ढीमर जाति द्वारा विवाह के अवसर पर पुरुष तथा महिलाओं द्वारा नृत्य प्रस्तुत किया जाता है। पारिवारिक नृत्य में चंगेल या कलश नृत्य। शिशु जन्म के समय बुआ द्वारा लाये गये बधाई के साथ किया जाता है। लाकौर या रास बधावा नृत्य विवाह में भांवर की रस्म पूरी होने के पश्चात कन्या पक्ष की महिलाओं द्वारा जब वह डेरों पर जाती हैं तो बहू का टीका पूजन, वर पक्ष के रिश्तेदारों द्वारा किया जाता है। बालिकायें व महिलायें बन्नी गाते हुये नृत्य करती हैं।

इसी प्रकार बहू उतराई का नृत्य विवाहोपरान्त वर पक्ष के निवास में होता है। सगुन चिरैया गीत गाये जाते हैं सास देवरानी, जिठानी, बुआ आदि हर्ष और उल्लास में नाचती हैं।

लोक जीवन में लोक कथायें – लोक गाथायें
दादी या नानी द्वारा सुनाई जाती थीं। बहुधा यह पद्यमय होती थीं। लोकोक्तियां व्यवहार तथा नीति सम्बन्धी होती हैं। बुझौअल (पहेली) बालक, बालिकायें आपस में बूझते हैं। मुहावरों का प्रयोग लेख या मौखिक वार्ता में होता है। लोक देवता, ग्राम्य देवता तथा रीति-रिवाज सामाजिक स्वीकृति के आधार पर जन्मते तथा विकसित होते हैं।

लोक कलायें हमारे सामाजिक जीवन को सुसंस्कृत और सम्पन्नता प्रदान करती हैं। भूमिगत अलंकरण में गणेश जी, स्वास्तिक, यक्राकार सातिया (स्वास्तिक), कलश, कमल, शंख, दीपक, सूर्य चन्द्र आदि गोबर या चावल के घोल तथा गेरु से बनाये जाते हैं। इन पर जौ के दाने चिपकाते हैं। मूर्तिकला की दृष्टि से महालक्ष्मी तथा हस्ति (हाथी) गनगौर, सुअटा, दीवाली पर गणेश, लक्ष्मी तथा मलमास में काली मिट्टी की शिव प्रतिमायें बनाई जाती हैं। अक्ती के अवसर पर पुतरिया बनाई जाती हैं।

लोक जीवन में वेशभूषा
बुन्देलखण्ड की वेशभूषा में महिलाओं में घाघरा पहिनने का प्रचलन था। श्रमिक महिलायें कांछ वाली धोती पहिनती हैं। पुरुष साफा, बंडी, मिर्जई, कुर्ता, धोती पहिनते हैं, स्रियां पैरों में पैंजना तथा गले में सुतिया ये प्रायः चांदी या गिलट के होते हैं। बालक चूड़ा, पैजनिया, करघनी, कड़ा, कठुला पहिनते हैं। आदिवासी तथा ग्रामीण आंचल की महिलायें सौन्दर्य वृद्धि के लिये गुदना गुदवाती हैं। इनमें पशु, पक्षी, फूल, स्वयं का नाम इष्टदेव का नाम आदि होता है।

भोजन में प्रमुख बरा, बछयावर, फरा, हिंगोरा, ढुबरी, महेरी, सुतपुरी, आदि प्रमुख थे। लोकाचार में सगुन-असगुन, टोटका झाड़फूंक पर विश्वास अधिक प्रचलित है। लोक मंच में रामलीला, रास लीला, स्वांग, नौटंकी समय-समय पर आयोजित होते हैं। लोक क्रीड़ाओं में बालिकाओं के खेल चपेटा या गुट्टा लोकप्रिय हैं।

मैदानी खेलों में बालक सामान्यतः गुल्ली डंडा, छुआ छुऔअल, ओदबोद, कंचा (गोली), कबड्डी, खोखो आदि खेलते हैं। बुंदेलखंड साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक सांस्कृतिक, कलात्मक, प्राकृतिक, धार्मिक तथा भौगोलिक दृष्टि से बहुत सौभाग्यशाली रहा है।

बुन्देलखण्ड का लोक जीवन 

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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