कठिन जेठ को घाम तचैं गुस्सा में सूरज
बरजोरा बिलमौ पहूज के नीरें – तीरें
आठ दिना कढ़ गए न एकउ फँसे बटोही
दार चून घी निगट रहे हैं धीरे-धीरें ।
सात डाकुअन कौ पहरौ है नदी – घाट पै
बीस ज्वान बरजोर सिंह के हैं रखवारे,
हुकुम कठिन है सब रस्तागीरन कों लूटौ,
निकर न पावै कोऊ सम्पत बिना निकारें ।
तपैं ग्रीश्म महाराज बुँदेलन की धरती है
नीचें तचै ततूरी ऊपर अँगरा बरसें,
डरे जनावर भार भटोलन भीतर हाँपें,
मानुस – पच्छी कठिन समइया कढ़ें न घर सें ।
असवार बाई जू भाजत आबैं,
उनके तन के ऊपर चढ़ गई धूरइ-धूरा
ऐसौ लगे कि दौर रही है सिंह भवानी,
संगे दौरत आँय अघोरी भूत-भभूरा ।
तान तुपकियाँ ठाड़े है गए सातउ डाँकू
गैल छैक लई, रोकौ घोरे हाँक लगाई
गोरा धरे पछारी, आँगे करिया रोकें,
का अनहोनी, चौंकी रानी लक्ष्मीबाई ।
बोली, ‘को हौ ठाकुर ? गैल काए खाँ छैके
का अनवाद करौ घोरन ने ? रहे रूकाई
बूढ़ौ दउवा बोलौ, ‘हम हैं डाकू ठाकुर,
लूटन आए तुम्हें, तुरन्त आँख चढ़ आई।
रानी बोली, ‘को है मुखिया ?, है बरजोरा
‘कितै? ‘परे सोउत हैं, उतैं करौदी छाँई
‘चलौ बताऔ, दो-दो बातें करके जेहे’
पीछे-पीछे डाकू, आँगें लक्ष्मीबाई ।
संगी दऔं जगाए, उठौ तुरतई बरजोरा
देखौ आउत घुड़सवार वक्षस्थल तानें
चढ़ती उम्मर, रेख न निकरी, पैनी आँखें,
टेढ़ी बाँधे पाग, भाल मोती लहरानें ।
दग–दग दमकैं माथौ ईगुर पोती मानों
राजन की पोसाक विधाता रूप समारौ,
लै पाँचउ हँतयार हाँत में नंगौ तेगा
चढ़ तुरंग की पीठ स्वयं वीरत्व पधारौ ।
पाँव केवलन जमे, कसौ पिठी सें बालक
बँधवाबै चहुँओर बैरियन की घातन में,
सने रकत में वस्त्र, अस्व ज्यों बिजली कौंधा,
ऐसौ लगे सजीवन यौवन कूंदो रन मैं ।
ठाँड़ौ भओ तुरन्त समर बागी बरजोरा
तड़पी रानी, ‘क्यों तुमनें मारण रूकवाऔ ?
डाँकू उत्तर देत, ‘लूट है रोजी अपनी,
कौ हौ पुनः ? कहाँ के ? हमनें चीन्ह न पाऔं ।
आँखें खोलौ, चीनौं, खोलौ कान सुनावें-
मैं हौं लक्ष्मीबाई, बा झाँसी की रानी,
अँगरेजन से छिड़ गऔ है संग्राम भयंकर
मरबे और मारबे हेत फिरो भन्नानी ।
गऔ मोरचा टूअ हमाऔ झाँसी वारौ,
धाबा करौ कालपी में अब बजहै तेगा
बरछी बन्दूक के संग सगाई
खार कछारन में जमना के चुकहैं नेगा ।
मूँछ मँछारे मुँस ! तुम्हारी क्षत्री काया
पौरूस जो है ? बने आज अबला के घाती !
मैं नारी है, जूझ रही भारत-बैरी सें
रे क्षत्री नर, हाय न फट गई तोरी छाती ।
अपनी झाँसी गई गड़ौ दुसमन कौ झंडा,
बीर सिपाही तरवारन कौ पी गए पानी
धरती कर गए लाल रकत की लिख गएसाकौ,
जूझे आठ हजार लाल प्रानन के दानी ।
तुमने रस्ता रोकी, बैरी लगे पछारीं
जल चले हैं घोरे, घायल देह हमारी
आग उगलै धरती झोराँ लपट झँझावै
कारे कोसन बसी कालपी जेठ दुफारी ।
देखौ मोरे संगी, पाँच पुरूस दो नारी– मैं,
जा मुन्दर, पक्की मोरी संग सहेली
घोरे देखौ सात हमाए हाँपी छोड़ें
घावन भरे सरीर करारी विपदा झेली ।
पसु हैं घोरे जान देत, अबला है संगिन
तुम हौ क्षत्री मुंस, छैक लइ गैल हमाई
हे राजा, हे सिवा, हमें अब दोस न दिइयौं ।
लम्बी भरी उसाँस, चुप्प भई लक्ष्मीबाई
देखत मौ रह गऔ रानी को ठंड़ो ठाकुर
रोम-रोम जग परौ सिथिल सी हू वै गई बानी,
लैन हिलोरें लगौ रकत पुरखन कौ तातौ ।
तुरग दिखानो सिंह, छबीली सिंह भवानी
सन्त मण्डली जैसें बालमीक मन पलटौ,
अंगुलिमान कान ज्यों परी बुद्ध की बानी,
रानी की उसाँस बरछी सी हुकी हृदय में,
डाँकूपन की भई कुटिलता पानी – पानी ।
टपर-टपर आँखिन से अँसुवा टपकन लागे
घूँटे टेक दए, नंगी लइ खेंच सिरोही,
बाई साब के आँगे भींजी बनो बिलइया
वौ बरजोरा दस्युराज कट्टर निरमोही ।
आत्मघात करने की मन में बात विचारी
‘खबरदार हो’ रानी ने ललकार लगाई
प्रान कर रहे दान तौ फिर बैरी संग जूझौ
घरी दो घरी रोकी, करौ सहाय हमाई ।
झटका दैके हवैं गओ ठाड़ौ, तन गई छाती
सिथिल अंग में जैसें महाशक्ति घुस आई,
दई हुकार कि जैसें वन में सिंह डड़ी कै
‘बढ़ो साथियो!’ बरजोरा तलवार घुमाई ।
पार पहूज गोरन को मोहरा मारौं
रजपूती की लाज बचालो बढ़के प्यारे
धजी-धजी काया, खपरी हो टँका – टूँका
चलो बहादो मोरे भइया रकत पनारे ।
लै-लै निज हथयार सज गये उनतिस जोधा
आँगें -आँगें भैंसा बाँधी तोप हँकाई
दो संगी रानी नें छोड़े, पाँचइ लैकें
सुमन गजानन को, घोरे कैं एड़ लगाई ।
टपक- टपक टप टप टप घोरे भाजन लागे
उड़ी गुंग धूरा की, छिन में उड़ गई रानी
हाँत जोर के अन्तिम नमन करौ डाँकू में
चूम लई तरवार, आँख कौ पांछौ पानी ।
रचनाकार – शिवानंद मिश्र “बुंदेला”