दिवाकर के हाव-भाव से मैं समझ गई कि मेरे गर्भ में पल रहा भ्रूण Kanya का है। सौम्या के चौथे जन्मदिन के बाद हम दोनों ने एक पुत्रा की कामना की थी। इसके बाद परिवार नियोजन अपनाना तय किया था, पर हर तय की हुई बात कब कहां पूरी हो पाती है? ऐसा ही इस मामले में हुआ। न चाहते हुए भी मैंने दिवाकर की बात मान ली और मां जी की अनुमति के साथ अल्ट्रासाउंड के द्वारा भ्रूण लिंग परीक्षण करवा लिया, पर यह दृढ़ निश्चय सुनाते हुए कि बच्चा चाहे जो हो, लड़का या लड़की, मैं गर्भपात नहीं कराऊंगी और हुआ भी यही।
मेरे गर्भ में पुनः कन्या है और अब मुझे और अधिक मां जी का कोसना सुनना होगा। पति महोदय के अनुचित आग्रह-आदेश-दबाव के आगे न झुकूं, इसके लिए स्वयं को तैयार करना होगा। मां जी से कुछ कहना-सुनना बेकार था। वह स्वयं स्त्रा होते हुए भी पोते का मुंह देखना ज्यादा अच्छा समझ रही थीं। उनकी मनःस्थिति का आकलन करना दूभर था। पोते की कामना के लिए उन्होंने जितने व्रत-उपवास रखे, शायद ही कोई रखता हो। ऑफिस जाते-जाते दिवाकर किचन में आकर अपना अन्तिम फैसला हथौड़े की चोट की तरह सुना गये, ‘‘शाम को तैयार मिलना…नहीं चाहिए हमें एक और लड़की।’’
दिवाकर का स्पष्ट आशय मेरे गर्भ में पल रही कन्या की भ्रूण हत्या अर्थात् गर्भपात कराने से था। कन्या भ्रूण समाप्ति की रोकथाम से सम्बन्धित कानून पीपीएनडीटी बन चुका है। इसके तहत प्रसव पूर्व लिंग निर्धारण की जांच करना व कराना अवैधानिक है। एक्ट के अंतर्गत तीन साल तक की कैद और दस से पचास हजार तक का जुर्माना निर्धारित है। इसकी परवाह किए बिना कितने डॉक्टर मनचाही फीस वसूल कर भ्रूण-लिंग परीक्षण चोरी-छुपे कर रहे हैं और दिवाकर जैसी मानसिकता वाले मोटी रकम देकर यह घृणित-अमानवीय परीक्षण करवा रहे हैं।
पूरी दोपहर मैं अनिर्णय की स्थिति में रही। मां जी दो-तीन बार कह चुकी थीं, ‘‘बहू तैयार हो जाना, दिवाकर के साथ क्लीनिक चली जाना।’’ अपने गर्भ में अजन्मी नन्ही कन्या के प्रति उपजे मातृत्व स्नेह से मैं फूट-फूट कर रो पड़ी, सौम्या स्कूल से आते मुझे रोता देख पूछने लगी, ‘‘मम्मी पापा ने मारा, मैं दादी से पापा की शिकायत करूंगी। मैंने उसे गोद में लेकर दुलारा और कहा, ‘‘नहीं पगली!’’ तेरी याद आ गयी थी। तुझे स्कूल से आने में देर हुई थी न, इसलिए आंसू आ गये।’’
‘‘मम्मी आप कितनी अच्छी हो, मुझे कितना चाहती हो। आई लव यू मम्मा।’’ सौम्या लड़याते बोली। ‘‘आई लव यू टू बेटा।’’ मैंने सौम्या के गालों को चूमते हुए कहा। नन्ही सौम्या खुश हो गयी और ड्रेस के कपड़े बदलवा दादी के पास चली गयी। मैं किचन में सौम्या के लिए भोजन गरम करने लगी। तभी दिवाकर का फोन आया, ‘‘नंदिता डॉक्टर रश्मि से बात हो गई है, उन्होंने शाम सात बजे अपने क्लीनिक में बुलाया है, आधे घंटे में सब निपट जाएगा। तुम तैयार मिलना, मैं साढ़े छह तक आता हूं।’’ आप ही आप बोलते रहे दिवाकर, मुझे कुछ कहने-बोलने का मौका दिए बगैर और फोन काट दिया।
अनुनय-विनय, मान-मनौवल सब व्यर्थ रहा। मन मारकर मुझे दिवाकर के साथ डॉक्टर रश्मि के क्लीनिक जाना पड़ा। दिवाकर के साथ कार में बैठते, जाते देख मां जी का परम सन्तोषी चेहरा मेरी आंखों से होता मस्तिष्क में चित्रा सा जड़ गया। एक स्त्रा दूसरी स्त्रा के ऊपर तीसरी स्त्रा को वजूद में न आने देने के लिए इतना दबाव डाल सकती है, अपने कृत्य पर हर्षित हो सकती है? कोई भी मेरी सास को देखकर आश्चर्य कर सकता है।
ईश्वरीय विधान! डॉक्टर रश्मि के पति को हार्ट अटैक आया था…उन्होंने कार में बैठे-बैठे एक चिट दिवाकर को पकड़ा दी और कहा, ‘‘अभी अधिक समय नहीं हुआ है, एबोर्शन कराने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, यह दवाएं खिला देना, एबोर्शन खुद ब खुद हो जाएगा।’’ दिवाकर प्रसन्न थे, चलो एबोर्शन का खर्चा बचा। कैमिस्ट की दुकान से डॉक्टर रश्मि द्वारा लिखी दवाएं खरीदकर हम दोनों घर वापस आ गये। मां जी ने रात्रि भोजन बनाने की तैयारी शुरू कर दी, सौम्या टी.वी. में अपना मन-पसन्द कार्टून देखने में व्यस्त थी।
मैं थकी-हारी सी निढ़ाल पलंग पर कुछ देर सुस्ताने की गरज से लेट गयी। दिवाकर बाथरूम चले गये। किचन से मां जी तत्काल मेरे कमरे में आ गयीं। मैं उठने को हुई, पर वह मुझे रोकते, माथा छूते खुशी से बोलीं, ‘‘निपट गया नंदिता…’’ ‘‘नहीं, डॉक्टर ने ये दवाएं खाने को दी हैं।’’ मैंने पर्स में रखी दवाइयां निकालकर उन्हें दिखाईं और उठकर खड़ी हो गयी।
मां जी की आंखों की खुशी पलभर में तिरोहित हो गयी, ‘‘दवा खाने से अच्छा एबोर्शन करा लेती, कौन समझाए तुम पढ़े-लिखो को।’’ और बड़बड़ातीं, पैर पटकतीं वापस किचन की ओर चली गयीं। रात सोने से पहले मैंने दिवाकर से झूठ बोल दिया कि दवाएं ले ली हैं। दिवाकर निश्चिंत हो दो पैग लेने के बाद अपने हिस्से का सुख पा जल्दी ही खर्राटे भरने लगे और मैं निश्चय-अनिश्चय के भंवर में डूबती-उतराती सोई-अधसोई-सी रातभर बेचैन रही।
भोर में दो पल के लिए आंख लग गयी। स्वप्न में सौम्या की प्रतिमूर्ति नन्ही बालिका ने मेरी गोद में किलकारी मारी…मैं प्रसन्न चरम वात्सल्य में डूबी अपनी दूसरी पुत्री को गोद में पा हर्ष के अतिरेक में पहुंच झर-झर आंसू बहा उस नन्ही परी को प्यार-दुलार कर रही हूं। मुस्कराती बच्ची एकाएक चीख मार कर रो पड़ी, स्वप्न टूटा, सौम्या रो रही थी। उसने भी कोई स्वप्न देखा था, शायद डरावना, तभी वह रोई थी।
मैंने सौम्या को अपने आंचल में समेट लिया। पलभर में वह पुनः सो गयी। भोर में देखे स्वप्न ने मुझे बल दिया। स्त्रात्व का तेज मेरी आत्मा में उदित हुआ। गर्व और दृढ़-निश्चय के चिद्द मेरी आंखों में छा से गये। दृढ़ संकल्पित हो मैंने सूर्य की पहली किरण को बालकनी में आकर निहारा और पति दिवाकर के नामराशि सूर्य भगवान को साक्षी मान प्रण किया कि मैं अपने गर्भ में पल रही कन्या को जन्म दूंगी, उसे मरने नहीं दूंगी।
डॉक्टर रश्मि की दी दवाएं मैंने खुर्पी से गमले में लगी तुलसी के नीचे मिट्टी हटाकर दबा दीं। मैंने बचपन में किसी से सुना था कि दवाएं मिट्टी में मिलकर खाद का काम करती हैं। दिवाकर निश्चिंत थे, पूछते रहे, ‘‘दवा ले ली, सब ठीक रहा…कोई परेशानी हो तो डॉक्टर के यहां चलें।’’ मैं झूठ पर झूठ बोलती रही, इस भय से सन्तप्त हुए बिना कि आखिर वह क्या कर रही है। जब सच सामने आएगा, तब वह दिवाकर और मां जी दोनों का सामना कैसे कर पाएगी?’’
एक सप्ताह बीत गया। एक सुबह बालकनी में रखे तुलसी के पौधे पर मेरी दृष्टि पड़ी। पौधा कुछ-कुछ मुरझाया-सा दिखा। हां…वाकई, तुलसी की पत्तियां सूखी-मुर्झाई दिखीं। मैंने तत्काल खुर्पी से मिट्टी के नीचे दबी सारी दवाएं निकालीं। मुझे अपने कृत्य पर क्षोभ हुआ…जो दवाएं प्राण ले सकती हैं, एक अजन्मे को संसार में आने रोक सकती हैं, वह भला किसी पौधे के लिए उर्वरा कैसे बन सकती हैं? मैंने दवाएं कागज की पुड़िया में लपेट डस्टबिन में फेंक दीं।
पुरुष, जिसे एक स्त्रा अपने शरीर में नौ माह धारण करने के बाद जन्म देती है, पुरुष जो स्त्रा से पोषित होते हुए स्त्रा से ही संसार का अवर्णनीय चरम सुख प्राप्त करता है, वही पुरुष एक स्त्रा को संसार में न आने देने के लिए सतत् प्रयासशील है। वह अपनी ही सन्तान नहीं चाहता क्योंकि वह स्त्रा लिंग से है। उससे बढ़कर विडम्बना यह है कि दिवाकर की मां जो स्वयं स्त्रा है, वे भी इस मामले में दिवाकर के साथ हैं। इक्कीसवीं शताब्दी में स्त्रा, स्त्रा के विरुद्ध है।
क्या कन्या भ्रूण हत्या सम्पूर्ण मानव जाति और मानवता का घोर अपमान नहीं है, अभिशाप नहीं है? परमात्मा का अंश जीवात्मा हमारे भीतर प्रतिपल साक्षी भाव से विद्यमान रहता है। हमारे छोटे से छोटे और बड़े से बड़े कार्य में कभी उसकी सहमति होती है तो कभी असहमति। जिन कार्यों में हमें आत्मा की सहमति प्राप्त होती है, उनमें से प्रायः प्रत्येक कार्य का परिणाम सुखद होता है।
मेरी अन्तरात्मा की आवाज मुझे मेरे गर्भ में पल रही बच्ची को बचाने के लिए प्रेरित कर रही है और मैं अपनी आत्मा की आवाज मानने के लिए दृढ़ हूं, फिर भले ही मुझे अपने निर्णय के लिए अपने पति, अपनी सास की इच्छा-आज्ञा के विरुद्ध ही क्यों न जाना पड़े क्योंकि मुझे मालूम है कि मैं सही हूं, मेरा निर्णय सही है।