Jagdev Ko Panvaro जगदेव कौ पंवारौ

पंवारे परमार वंशीय राजाओं के इतिहास तो हैं ही, इनमें परमार वंश के सुप्रसिद्ध और लोकप्रिय शासक विक्रमादित्य, भोज और जगदेव की गाथाएँ हैं। Jagdev Ko Panvaro में  परमार वंश की वीरता और शौर्य वर्णन है।

भारतीय इतिहास के अनुसार सातवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी अर्थात् पांच सौ वर्ष तक राजपूत काल माना जाता है। राजपूतों की वीरता और शौर्य की गाथाएँ तो इतिहास प्रसिद्ध हैं ही। राजपूत क्षत्राणियों के जौहर की कथाएँ भी लोक प्रचलित और लोकप्रिय हैं।

राजपूतकाल को यदि संक्रान्ति काल कहा जाये तो अनुचित नहीं होगा। इस काल में राजपूत वीरों को विदेशी आक्रमणकारियों से डटकर सामना करना पड़ा। धार नरेश राजा भोज ने अनेक मुस्लिम हमलावरों का सामना किया और उनका अधिकांश समय यु़द्धों में ही व्यतीत हुआ।

बुन्देलखण्ड की लोक-गाथा जगदेव कौ पंवारौ

उन दिनों भारत की राजनैतिक स्थिति अत्यधिक दयनीय थी। विदेशी मुसलमानों के आक्रमण  के कारण भारतीय राजनीति असंतुलित हो गई थी। हिन्दू धर्म और संस्कृति पर भारी वज्रपात हो रहा था। राजपूतकालीन स्थापत्य और वास्तुकला पर इस्लाम संस्कृति हावी होती जा रही थी। भोज की बनवाई गई इमारतों पर मुसलमानों का आधिपत्य हो रहा था। भोज की बनवाये गये शिवजी के मंदिर, सरस्वती शालाएँ मुसलमानों की कब्रों, मकबरों और मस्जिदों के रूप में बदल गईं थीं।

उनकी अश्वशालाएँ, राजभवन थोड़े बहुत कायाकल्प के बाद आततायियों की बेगमों के हरम बन गये थे। बड़ी विचित्र स्थिति थी उन दिनों भारतीय राजनीति की। राजपूतों की आपसी फूट का लाभ मुगलों को प्राप्त हुआ। भोज ने मुहम्मद गजनवी के साथ युद्ध किया था। जगदेव के पंवारे में बादशाह की सेना के साथ युद्ध का वर्णन है। गाथा में राजा सेन का वर्णन है।

राजपूत काल में बंगाल में सेन वंश के राजा राज्य करते थे। भोज परमार ने दक्षिण के राजा तैलप, गुजरात के सोलंकी और कलचुरियों पर आक्रमण किये थे। धीरे-धीरे मुस्लिम आक्रामक अपनी जड़ें जमाने लगे और उनकी शक्ति बढ़ने लगी। कुछ राजपूत राजाओं को पराजित कर उन्होंने अपना अधिकार जमा लिया था।

मुगल आततायी हिन्दू माँ-बहिनों की लाज लूटने का प्रयास करने लगे। राजपूत क्षत्राणियों ने जौहर करके अपने धर्म की रक्षा की थी। मथुरावली, चंद्रावली, कुसुमादेवी और भगवती देवी जैसी नारियों ने हँसते-हँसते प्राण -प्रसून न्यौछावर कर दिये थे। मथुरावली के चाचा ने पारस्परिक शत्रुता के कारण आक्रामक से मिलकर भतीजी का अपहरण करवाया था। लोक गाथा में आपसी फूट का स्पष्ट उल्लेख है…!
सगौ री चाचा बैरी भयो, जिननें भंजायों बैर।

राजपूत काल के अंतिम शासक इतने निकम्मे और कायर निकले कि अपने राज्य की रक्षा भी नहीं कर पाये और अंत में अपने राज्य को खोकर दर-दर की ठोकरें खाते फिरे। मुगलों के हमलों के कारण देश की सांस्कृतिक स्थिति पर भारी आघात पहुँच रहा था।

सर्वत्र अशांति और संघर्ष का वातावरण था। ऐसे समय में अपने धर्म और सांस्कृतिक विरासतों की रक्षा के लिए जन-जन के मन में राष्ट्रीयता की भावना का उदय होना स्वाभाविक ही था। भयंकर रक्तपात और नरसंहार हो रहा था। पंवारों के संघर्षों की घटनाओं से सारा भारतीय इतिहास भरा पड़ा है।

जगदेव के पंवारे में भी जगदेव के द्वारा लड़े गये युद्ध का वर्णन है। उसने आक्रमणकारी मुगल से युद्ध किया था। गाथा में उस घटना का स्पष्ट उल्लेख है…
माँ सें बेटी बोले जगत की, सुन बाबुल बात है, भारी दल मेलों जगत कौ,
आबैं मुगल कौ राज, अये मुगल कौ राज, मोइयें तो ले जैय मुगल कौ,
अरे बेटी करियों राज, बाँदें तलवार राजा रे  जगत सेमाँ भले हो माय।


पंवारे में जगदेव की उदारता, त्याग, तपस्या और दयालुता का वर्णन है। वह अपने नगर वासियों की भलाई के लिए जीवन भर युद्ध करता रहा। वह परमार वंशीय राजा उदयाजीत की वंशावली के अन्तर्गत आते हैं। गाथा में स्पष्ट उल्लेख है…

दल के फूदल भये, मोय राजा महाराजा, जिनके होबैं जुगल किशोर माता मोरी,
जुगल किशोर के भये राजा  महाराजा, जिनके होबैं पवन कुमार माता मोरी,
पवन कुमार के भये राजा महाराजा, जिनके भये उदयाजीत माता मोरी,
उदयाजीत के भये राजा महाराजा, जिनके दियल न बात माता मोरी।

इसका अर्थ यह हुआ कि उदयाजीत निःसंतान थे, किन्तु देवी जी की तपस्या करके वरदान-स्वरूप जगदेव और रन्धौर नाम के दो पुत्र उत्पन्न हुए। जगदेव बाल्यकाल से ही देवीजी का भक्त था। उनके वैराग्य-भाव को देखकर राजा उदयाजीत ने रन्धौर को राज्य सौंप दिया था। राजा रंधौर के दुर्व्यवहार से असंतुष्ट होकर जगदेव धार नगरी में जाकर राजा के यहाँ नौकरी करने लगे थे। उन्होंने राजा भोज के दुर्ग पर हमला करने वाले ‘काला दानव’ को दूर खदेड़ दिया था। लोक गाथा में उस काले दानव को संबोधित करते हुए कहा गया है…

इन झिरियंन जल तै पियें करिया दानों, संगै रेतै धरम की माता मोरी।
इन सखियंन बतिया नन परौ फूला माली। कै रओ गरब की बात माता मोरी
कौन जतन जनम लयें मोये राजा महाराजा, सारौ हो अपनौ नांव माता मोरी,
धार नगर जनम भये हमाये हो राजा महाराजा, जगदेव हैं हमाये नांव माता मोरी,
जगदेव जब बनों हो  राजा  महाराजा, जब ओढ़ो अवन कौ हांत माता मोरी।
पिड़िनी सें पिड़िनी डगो हो मोये राजा महाराजा,
बंध गये दांतन सें दांत माता मोरी।

इसके बाद वे राजा सेन के यहाँ नौकरी करने लगे। उन दिनों उनका छोटा भाई रंधौर धारा नगरी में राज्य कर रहा था। इसी बीच धारा नगरी पर विदेशी शत्रुओं ने हमला कर दिया और उस समय रंधौर अकेला था, इसलिए घबड़ा गया। उसने अपने राज्य पर आने वाले काले संकट का समाचार दिया। सुनते ही जगदेव धारा नगरी को चल दिया। वहाँ पहुँचते ही वे दोनों भाई देवीजी के मंदिर में पहुँचे और उनकी पूजा-अर्चना करते हुए कहने लगे…

मैया अबकी लाज मोरी राखियौ हो मांय, ढिक धर आंगन लिपाब हो मांय।
मुतियन के मैया चैक पुरवाये, कंचन कलश धराव हो मांय।।
गोबर की धारा नगरी बनवाई, जगदेव भये रखवार हो मांय।।

शत्रुओं के द्वारा धारा नगरी के घिर जाने पर राजकुमारी चिंतित होकर कह रही…
माँ सें बेटी बोलें जगत की, सुन बाबुल बात, भारी दल मेलों मुगल कौ,
आबैं मुगल कौ राज, अये मुगल कौ राज, मोइयें तो ले जैय मुगल कौ।

राजकुमारी को चिंतित देखकर जगदेव उसे धैर्य धराते हुए कहने लगते हैं…
अरे बेटी करियों राज, बाँदें तलवार,
राजा रे जगत से, माँ भले हो माय।
हीन जिन बोलियों बेटी राजकुमारि, छत्री धरम नसाय।
इक लख मारे मुगल खौं, दूजे तुरक पठान, तीजे मारे दिल्ली आगरौ, चैथे गुजरात।
हनो किवरियां मोरौ नांव पुकार,
राजा रे जगत से मां भले हो मांय।
आज्ञा भुमानी सुन दै दई, जगदेव बांदौ तलवार,
डेरी सोहैं कटरिया, दांई सोहैं तलवार।
लंगरे अगवान खप्पर लयें हात, नरियल लयें हांत।
उतरी कमान जगत की दुर्गा देत चढ़ाय।
राजा हो जगत से मां भले हो मांय।

जगदेव देवी जी का परम भक्त तो था ही। वह देवी जी की आज्ञानुसार उनके चरणों में अपना शीश काटकर चढ़ा देता है। गाथाकार आत्म-बलिदान की स्थिति का चित्रण करते हुए लिखता है…

मैं पूछो जगदेव की रनियां, जगदेव शीश मगायें हो मांय,
घरियक बिलंब करियों मोई माता, गंगा करों असनान हो मांय।
सपर खोर ठाँढ़े भये जगदेवा, पीताम्बर पहराय हो मांय,
सिर पर तिलक तिलक पर कलगी, नैंना करें रतनार हो मांय।
ऐंच खड़ग जगदेव माथौ उतारो, धर दओ थार मझार हो मांय।

कहा जाता है कि देवीजी ने जगदेव की रानी को उसके पति का शीश लौटाना चाहा, तब रानी ने कहा कि माता जी मैं दिया हुआ दान वापिस नहीं लेना चाहती। माता जी ने प्रसन्न होकर अपनी छिंगुरी चीरकर जगदेव के धड़ पर छिड़क दिया। तब जगदेव जयकाली-जयकाली कहता हुआ उठ खड़ा हुआ और सीधा देवीजी के चरणों में जा गिरा। तब देवी जी ने उसे उठाते हुए वरदान दिया कि सदा विजयी रहो मेरे लाल।

यह पंवारा बहुत ही विस्तृत है। यह चैसठ दरबारों में बंटा हुआ है। नवरात्रि में नौ दिन तक लगातार गाने के बाद भी पूरा नहीं होता है। यह किसी भी महाकाव्य से कम नहीं है। इस गाथा के सारे अंश विधिवत लिपिबद्ध नहीं किये जा सके और लोक-मुख में बिखरे पड़े हैं। जितना जो कुछ प्राप्त हुआ, उसे लिपिबद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है।

संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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