Homeबुन्देलखण्ड के साहित्यकारHarprasad Gupt ‘Harihar’  हरप्रसाद गुप्त ‘हरिहर’

Harprasad Gupt ‘Harihar’  हरप्रसाद गुप्त ‘हरिहर’

Harprasad Gupt ‘Harihar’  का जन्म विक्रम सम्वत 1988 के वैशाख मास की जानकी नवमी के दिन मध्य प्रदेश के जिला छतरपुर के ग्राम, लखनगुवां में हुआ। आपकी माता श्रीमती राजदुलारी ‘मन्नू’ एवं पिता श्री आशाराम जी गुप्ता थे। पिता जी एक सदाचारी एवं शिक्षित सज्जन थे।

योग एवं काव्य रचनाकार श्री हरप्रसाद गुप्त ‘हरिहर’


श्री हरप्रसाद गुप्त ‘हरिहर’ का बाल्यकाल ग्रामीण वातावरण में व्यतीत हुआ। आपकी घर में ही प्रारम्भिक शिक्षा प्रारम्भ हुर्ह। तेरह वर्ष की आयु से ही आपको कविता लिखने का शौक हो गया और प्रचलित बुन्देली फाग छन्द में रचनायें प्रारंभ हो गई। सोलह वर्ष की आयु में आप प्राथमिक शाला के शिक्षक पद पर पदस्थ होकर अध्यापन कार्य करने लगे। उन्हीं दिनों निकटस्थ नगर बिजावर के राजकवि आचार्य बिहारी लाल जी से आपका मिलना हुआ तथा आप आचार्य श्री के काव्य शिष्य हो गये। दिनोंदिन कविता लिखने का प्रवाह बढ़ चला।

ब्रज भाषा में लिखे आपके अनेक छन्द सराहे जाने लगे। उन दिनों कवि सम्मेलनों में समस्या पूर्ति की प्रथा थी। आपने समस्या पूर्तियाँ कर कई सम्मेलनों में पदक प्राप्त किये। आपने शिक्षण कार्य के साथ-साथ स्वाध्याय भी निरन्तर रखा और स्वाध्यायी रूप में मिडिल मैट्रिक से लगाकर एम.ए. तक की परीक्षायें उत्तीर्ण की। एक बार बिजावर नगर के कवि सम्मेलन में समस्या पूर्ति का अवसर भी आप को प्राप्त हुआ।

श्री हरप्रसाद गुप्त ‘हरिहर’ ने अपने काव्य गुरु आचार्य बिहारी से योग शिक्षा प्राप्त की। योग क्रियाओं का विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने आप सन् 1961 में बिहार में होने वाले अधिवेशन में सम्मिलित हुए और योगाचार्य मुनीश्वर श्री शिवकुमार जी से सम्पर्क स्थापित किया तब से निरन्तर योग प्रचार व योग शिक्षा का प्रसार करते आ रहे हैं।

आप सन् 1991 में 20 वर्ष माध्यमिक शाला के प्रधान अध्यापक पद के पश्चात् सेवानिवृत्त हो गये। आपके साथ आपकी पत्नी श्रीमती हरबाई एवं दो पुत्र डॉ ओम प्रकाश एवं आनंद प्रकाश तथा नातीगण सम्मिलित रूप से गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुये योग एवं काव्य रचना के साथ-साथ रोगियों की चिकित्सा का कार्य भी करते चले आ रहे हैं।

समस्या ‘वरसत है’
गूँजित रहीं है जहाँ ध्वनि रण भेरिन कीं,
तहाँ पै मृदंग ताल राग सरसत है।
खनक सुनात रही खड़ग जँजीरन की,
झनक मजीरन की दिव्य दरसत है।।
‘हरिहर’ भाषै रही भीर रण वीरन की,
तहाँ धर्मवीर देख हिय हर्षत है।
जहाँ जुर जँग रहो मार मार रंग,
तहाँ आज राम रंग हो अभंग वरसत है।।


किसी समय जहाँ युद्ध के नगाड़े बजते रहे वहाँ मृदंग की थाप पर संगीत की ध्वनि चलती है। जहाँ पर कभी तलवारें और जंजीरों की खनक सुनाई देती थी, वहाँ आज मंजीरों आदि की झनकार सुनाई दे रही है। कवि हरिहर कहते हैं कि वीर योद्धाओं की इस धरा पर आज धर्मवीरों को देखकर हृदय प्रसन्न हो जाता है। जिस भूमि पर युद्ध हुआ करते थे और मारने-काटने की धूम रहती थी, वहीं पर आज राम-ध्वनि और भजनों को आनंद की वर्षा हो रही है।

चेतावनी चौकड़िया
जो तुम जनम अखारत खोहौ, बीज पापके बो हौ।
भजन भूलकें करम टुकनियां धरें मूड़ पै ढोहौ।।
सपने की सम्पत पावैं खां पाँव तानके सो हौ।
तौ वेतरनी तीर ‘हरिहर’ ठाड़े ठाड़े रो हौ।।


यदि तुम व्यर्थ में समय नष्ट करोगे और पाप कर्म करोगे तो तुम्हें प्रभु का भजन भूलकर अपने कर्मों को साथ में लेकर चलना पड़ेगा। अर्थात् तुम्हारे कर्म तुम्हारे लिये भार बन जायेंगे। यदि तुम रात्रि रूपी संसार में निश्चिन्त होकर सोते हुए स्वप्न में सम्पत्ति पाने के प्रयास करोगे तो इस वैतरिणी नदी के किनारे पर खड़े-खड़े रोते रहोगे।


बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

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