Homeबुन्देलखण्ड का सहित्यGuljari Lal Gupt ‘Lal’ Ki Rachnayen गुलजारी लाल गुप्त ‘लाल’ की रचनाएं

Guljari Lal Gupt ‘Lal’ Ki Rachnayen गुलजारी लाल गुप्त ‘लाल’ की रचनाएं

कवि Guljari Lal Gupt ‘Lal’ का जन्म भिण्ड जिले के आलमपुर में 3 मार्च सन् 1930 को हुआ। इनके पिता का नाम श्री भगवान दास गुप्त था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा आलमपुर में ही हुई। आपने हिन्दी साहित्य सम्मेलन से प्रथमा की परीक्षा उत्तीर्ण की है। इनका स्वभाव बचपन से ही धार्मिक है। ये काव्य में बाल्यावस्था से रुचि रखते रहे हैं।

जात समाज में लाज प्रभो वृजराज हरो मम संकट भारी।
दीनदयाल दरो दुख दीरघ दुष्ट दुशासन खैंचत सारी।।
अम्बर के अम्बार लगे पर सारी घटी न घटी गुलजारी।।

द्रोपदी विनय करते हुए कहती है कि हे प्रभु! ब्रजराज कृष्ण समाज में मेरी लज्जा का सम्मान छिना जा रहा है, आप इस संकट का हरण कीजिए। दीनों पर दया करने वाले, दुशासन मेरी साड़ी को खींच रहा है, आप इस महान् दुखद क्षण का दलन कीजिए। कानों में पुकार के स्वर पहुँचते ही मुरारी कृष्ण ने बिना विलम्ब किए साड़ी का वस्त्र बढ़ा दिया जिससे खींची गई साड़ी के वस्त्र का ढेर लग गया लेकिन साड़ी नहीं समाप्त हुई।

दीनबंधु दीनानाथ लखन समेत सिय,
बिरहत विपिन आये अत्रि जू के अँगना।

आश्रम पधारे राम अत्रि ब्रम्हानंद लयौ,
दंड जिमि पौढ़े पग मोहि लाचौ अँगना।।

कहैं मुनि हाथ जोर विनती मैं काह करौं,
नाथ के चरित्र कह सकत भुजंग ना।

पतिव्रत धर्म के महान भेद-भाव मर्म,
सीता कों सुनावैं धन्य अत्रि जू के अँगना।।

दीनों के बंधु व स्वामी श्री राम लक्ष्मण व सीता सहित वन भ्रमण करते हुए मुनि अत्रि के आश्रम में पधारे। राम के आश्रम में पधारने पर अत्रि ने ब्रह्मानंद पाकर उनका स्वागत किया। मुनि अत्रि ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि मैं स्वामी के चरित्र का क्या वर्णन करूँ ? यह वर्णन तो शेषनाग भी सहस्त्र मुखों से नहीं कर सकते। मुनि अत्रि की पत्नी अनुसुइया सीता जी को पतिव्रत धर्म के महत्व को बता रही हैं।

कारे छवि बारे घुँघरारे गभुआरे केश,
आनन लुनाई लख मार हार मानी है।

दुई-दो रद सोहैं मन मोहैं मुनीषन के,
भौंहैं विशाल जनु कमान काम तानी है।।

अंग पै अनंग कोटि वारी हजार बार,
को कवि छवि कहै शारदा हू लजानी है।

मोहनी अनुपम विलोकी छवि राघव की,
‘लाल’ गुलजारी मम अखियाँ सिरानी हैं।।

कृष्ण की छवि का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि श्यामवर्ण के शिशु रूप में छोटे-छोटे घुँघराले बालों वाले मुख की लावण्यता देखकर सौन्दर्यदेव काम भी पराजित हैं। मुख में दो-दो दाँत हैं, धनुष के समान विशाल भौंहैं ऐसी हैं जैसी कामदेव ने स्वयं धनुष उठाया हो, ऐसे सौन्दर्य को देखकर मुनियों के मन में प्रसन्नता हो रही है। प्रत्येक अंग में हजारों गुना सौन्दर्य परिलक्षित है। इस सौन्दर्य का वर्णन तो ज्ञानदेवी शारदा भी नहीं कर सकतीं। ऐसी मनमोहक अनुपम छवि को राम में देखकर कवि गुलजारी की आँखों को शांति मिलती है।

सोहत हाथ में रंग भरी पिचकारी औ काँधै अबीर की झोरी।
मोहन ग्वालन संग इतै उत राधिका हीय उमंग न थोरी।।

डारें गुलाल सुता वृषभानु की होरी के रंग रची शुचि जोरी।
आज मची वृज-बीथिन में वृषभानु लली बृजराज की होरी।।

हाथ में रंग की पिचकारी ले तथा कंधे पर अबीर की झोली

डालकर कृष्ण ग्वालों के साथ तथा राधा अपनी सखियों के साथ हृदय में उल्लास से परिपूरित होली खेल रही है। वृषभानु की पुत्री राधिका गुलाल डाल होली के रंग में रंगी है। आज ब्रज की गलियों में वृषभानु सुता राधा व ब्रजराज कृष्ण की होली हो रही है।

गुजरि का मद में रई भूल, तेरौ दिन में सब मान नसैहौं।
फोर दऊँ दधि की मटकी, रस-गोरस गैलन में बगरैहौं।।

देहु सखी सबरीं दधि-दान, दिये बिन दान में जान न दैहौं।
राजी सें देहु तौ राजी रहौं, गुलजारी नहीं बरजोरी छिनैहौं।।

ग्वालिन तू किस घमण्ड में भूली है ? मैं क्षण भर में तेरा घमण्ड समाप्त कर दूँगा। दही की मटकी को फोड़कर इस गोरस को गलियों में फैला दूँगा। तुम सभी सखियों सहित मुझे दही दान दो अन्यथा बिना दान दिये मैं तुम्हें आने नहीं दूँगा। यदि सहमति से दोगी तो प्रसन्नतापूर्वक जाओगी अन्यथा मैं जबरदस्ती छीनकर ले लूँगा।

मोहिं बतावत कारे सखी, फिर कारे तऊ तुमरे मन भाये।
चैन परै तुमकों ललिता नहिं, नेकु बिना हमरे लख पाये।।

कारे कहान लगीं ‘गुलजारी’ जबै कहवे की तुवै मन आये।
कारे अबै कह जानी ग्वालिन, पर कारे के छौंके भटा नहिं खाये।।

श्रीकृष्ण ललिता सखी से कह रहे हैं कि तेरी सखी राधा मुझे काला बनाती है किन्तु काले (कृष्ण) ही उसके मन को भाये हैं। ललिता तुमको भी क्षण भर देखे बिना मुझे देखे चैन (शांति) नहीं मिलता। गुलजारी कवि कहते हैं कि काले कहते हुए भी उन्हें (राधा) काले ही मन भाये। काले कहकर जब ग्वालिन जाने लगी तो उन्होंने व्यंग्यपूर्वक कहा कि तुमने अपने काले (कृष्ण) के हाथों बनाया गया भटा का साग नहीं खाया।

ऐ हो वृजराज नेक कीजै कृपा की कोर,
लाँच-घूँस पूतना कुघातिनी संहारिये।

नाथ, नाथ दीजै गरु काली नाग शोषण कौ,
अनाचार, दुराचार कंस कौं पछारिये।।

आसुरी प्रवृत्ति गरु ग्राह कौं पराजित कर,
धर्म-कर्म गजपति की विपति विदारिये।

दानवीय संस्कृति के प्रबल दुशासन से,
मानवीय संस्कृति की द्रोपदी उबारिये।।

हे ब्रजराज कृष्ण! थोड़ी सी कृपा करके वर्तमान में रिश्वत रूपी दुष्टा पूतना का संहार कीजिए। स्वामी! शोषण रूपी कालिया को नाथ (नियंत्रित) दीजिए और अन्याय व अनाचार रूपी कंस का वध कीजिए। राक्षसी प्रवृत्ति रूपी मगर को हराकर धर्म-कर्म रूपी गज (हाथी) को विपत्ति से मुक्ति दिलाइये। दानवी (पश्चिमी) संस्कृति रूपी सक्षम बलशाली दुशासन से मानवी (भारतीय) संस्कृति रूपी द्रोपदी की लाज बचाइये।

गुलजारी लाल गुप्त ‘लाल’ का जीवन परिचय 

शोध एवं आलेखडॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)

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