कवि गंगाधर व्यास जी कवित्त, शैर, ख्याल और Gangadhar Vyas Ki Chaukadiya प्रचलित छन्दों में रचनायें हैं। वे फड़ (प्रतिद्वन्दी) साहित्य के सृजन में अधिक रुचि रखते थे।कवि श्री गंगाधर व्यास की विलक्षण प्रतिभा ने सोलह वर्ष की आयु में ही आपको कवि बना दिया था।
बिसरे ना मोय हलन दूर की, बेसर की गूज तनक मुरकी।
दस उंगरी दस मुन्दरी सोहैं, बजन पैजना के सुर की।
कानन भर भर करनफूल हैं, गोरे गाल सांकर लरकी।
नैनन भर भर सुरमा सोहै, सेंदुर मांग भरी मुरकी।
गंगाधर के संग चलौ हो, मारें मजा छतरपुर की।
नैना वारे से ना ठांसे, देखत बनत तमासे ।
छोबा करत चलत तिरछौहें सुखी रहें जे सांसे ।
जित खां चलत रुकत ना रोके, दै दै जात झमांसे ।
इनको पीर भई है भारी, के उ जनन खांआंसे ।
गंगाधर कयें इन नैनन खां, मनमोहन ने गांसे ॥
नैना भये प्रान के भूके, चूंघट में हो ढूंके ।
लागी लगन चोट हाड़त में, रक्त मास सब सूके ।
नहीं मिलत मीजान मरज कौ, आयें वैद कहूं के ।
जत्र – मंत्र कैयक करवाये, बहतक झारे फूंके।
गगाधर खंजन मद – गंजन हैं दृग राधा जू के ।।
नैना लज्जित भये प्यारी के देखें गिरधारी के ।
सोहन सरस सलौनें लौंने, मोहन नर-नारी के।
तनक कटाक्ष परत जा ऊपर, सरबस सुखकारी के ।
काम कृसान जगत जुवतिन के, करन कृपा भारी के ।
गंगाधर सोखन रस – पोखन, मोखन सिंसारी के ॥
राधा – माधव के नैन लगे, सुख चैन न दिन रैन लगे।
डारत डीठ जुगल आनन पै, तानन तिरछे सैन लगे।
दोर करत मनो मृग खंजन, छीन मीन मद लैन लगे।
बरबस करत प्रान बस सरबस, पियन सुधा-रस ऐन लगे।
इछन में तीछन गंगाधर, चरसन बर सर मैंन लगे ।
दोई नैना विष वारे हैं, चूंघट से काये निकारे हैं।
ज्वानी भरे ज्वान मस मीजत, दीन दीन के मारे हैं।
जब से सुरत सभारी इन ने प्रानन प्रान अहारे हैं ।
चल तन चोट चुभी चितवन की, भए पाखान दरारे हैं ।
गंगाधर कये इन नैनन सों, नंदनादन लौं हारे हैं ।।
नैनन में नैन समान लगे रस भरन करन कलकान लगे।
जानन लगे जुगत तक छक की, तानन भोह कमान लगे।
सोहें होन लगे पीतम के, तिर छौहें कड़जान लगे।
लोयन के दोऊ कोयन सें, लौं, कर कटाक्ष छहरान लगे ।
भये मन मुदित स्याम गंगाधर, मोहन तन अकुलान लगे।
तुमरे नैन करें बमनौती, मानों हूलत सेती।
चंचल चपल चलत चारउ दिश, मानों भमें बनती।
जितखां झकत, थकत ना उतसें, सीके सुघर पटती।
गंगाधर आशिक भये तुम पै, चितवन देख बनैती ।।
दोऊ नैनन की तरवारें, जात बिदरदन मारें।
लम्बी खोर दूर लौं डाट, टांड़ी हती उवारें।
दुबरी दशा देह की हो गई, हिलत चली गई धारें।
गंगाधर बस होत सुघर पै, बेरहमन से हारे ।।
ऊधौ जा कैयौ उन हर से, नन्दनदन गिरधर से।
कीसें कब कियै पौंचानें आवे कौनऊ कर सें।
का न बनी बिगर गई हम से, काये निकर गये धर से।
कै गय ते दस-पांच रोज की बीत गई हैं बरसें।
गङ्गाधर राधे के असुआ, चौमासे से बरसें ।।
बिन देखें तुमारे कल नइयां, जियरा खां चैन इक पल नइयां।
तलफत प्रान तनक विछुरे से ज्यों मछरी खां जल नइयां।
उड़ उड़ के छाती से लगते, सो छाती में बल नइयां ।
यरियत कौल तुमारी सौगंद, इन बातन में छल नइयां ।
‘गगाधर’ हस मिली न जौलौं, तौलौं जनम सुफल नइयां ।
बेदरदिन दरद नहीं तोरें, हेरी न चली गई मुख मौरें।।
हम तो चाह करें तन मन से, तुम राती बिस सौ घौरें ।
तुमरी नेह निघा के साथी, होत भोर ठाड़े दौरे ।
कैयक खड़े तुमारे लाने, होस नहीं खाली खौरे ।
गंगाधर कयें चैन परै ना, नैनन से नैना विना जौरें ।।
जैसे केश राधिका जी के, और न काह तीके ।
सटकारे अति स्याम सचिक्कन, रंग में अलि सेनी के ।
तम के तार हार हिय मानत, खेचे काम जती के ।
मन बस करन कहत गंगाधर, करन कान के टीके ।।
जौ तिल लगत गाल को नीको, मन मोहत सब ही कौ।
कै पूरन पूनों के ससि में, कुरा जमों रजनी कौ ।
कै निरभल दरपन ऊपर, सुमन परी अरसी कौ ।
गरल कण्ठ लै आन विराजो, कै पति पारवती को।
गंगाघर मुख लखत सांवरो, राधा चन्दमुखी कौ ।
गुदना लगत गाल पै प्यारौ, हम खां रज उ तुमारौ।
गोरे वदन गाल के ऊपर, बन बैठौ रखवारौ।
देखन देव नजर भर हमखां घंघट पट ना डारौ ।
ठाड़ी होव देखले चितसे, जी ललचात हमारौ।
गंगाधर की तरफ देख के,दैदओ तनक इसारौ ।।
बिसरे न घलन कदेला की, दयें झोंक जूवन अलबेला की।
गोटादार हरीरी अंगिया, बेल भरी चौबेला की।
आड़ी डरो भुजन के ऊपर, कोर लदाऊ सेला की !
उड़-उड़ परत थमत ना थामी, पवन चले झकझेला की।
गंगाघर कयें राह चली गई, खजुराहे के मेला की ।
मोहन ने मुरलिया झनकारी, सुन चौंक परी सब व्रज-नारी ।
पग में पैर पटेला ककना, हाथन में धुंघरू धारी ।
सिर से ओढ़ घांघरा लीनों, कटि में पहिर लई सारी ।
बूदा लगा कपोलन ऊपर कानन में नथनी धारी।
गंगाधर सर नर मुनि मोहे, संकर की खुल गई तारी ।
मधुवन में वीन बजी हर की, कुवर राधका के वर की।
पशु पंछी सुर नर मुनि मोहे, कौन बात नारी नर को।
जब से सुनी स्रवन व्रज वनिता, मिलवे काज भुजा फरकी।
उलट पलट सिंगार पैर लए, सुरत भूल गई है घर की।
देव दरस जन जन आपनों, विनय सुनों गंगाधर की।
करिके तयारी फेट बांध कर कमरा की,
दै दै के कछोटा झुण्ड देखे लुगैयन के।
गड़ई डोर टांगे बड़ी बिन्नू खां आगे कर ।
गठरी पीठ बाधे झन्ड देखे गमैयन के ।।
कैसी हुनगारू हो आई, हती तनक सी बाई ।
बहुतक माल बाप के खाये, सो काँ जाय चराई।
दिपन लगी दिन पै दिन दिहिया जैसें रंग दरयाई ।
तिहरी ओले परे पेट में, थोंद सोउ बड़ आई ।।
गंगाघर चलतन में होवे, लचर लचर करहाई ॥
तुमखां कैसें मिलें मनइयां, बस मोरो कछु नइयां ।
मसकिल परत द्वार हो कड़तन, घर के होत लरइयां ।।
एसा लगत लगौं छाती से, झपट उठा ले कंदयां ।
फेरे हात ल रम गालन पै, डार गरे में बंइयां ।।
कसा कर कहत गंगाधर, प्रान लेत लरकइयां ।।
पछी भए न पंखनवारे, इतनी जांगां हारे ।
भीतर घरे घोंचआ धरते, काये खां परते न्यारे ।
जां तुम होतीं तां उड़ जाते, करते मिलन तुमारे ।
राते बिडे प्रेम पिंजरा में, कबउं न टरते टारे ।
गंगाधर परन हो जाते, मन के काम हमारे ।।
अनुआं कैसे मिटत मिटायें, लगे उपत के आयें ।
हजम न होत सुनी कउं मांछी, आंखन देखत खायें ।
ऐसी प्रवल होत है होनी, बरकत ना बरकायें ।
सो तो आन परी सिर ऊपर, मारे चाय बचायें।
गंगाधर ससि का गिनती में, गगन छिपत धन छायें।।
वहीं अपनी हदय – धारा उड़ेल सकते हैं अन्यत्र नहीं l
अपनो ओरे चाल बताबी, अब ना तुमें सताबी।
तुमरें चाय हमारी नइयां, हम तुम खां ना चाबी ।
बदली नजर तुमारी हमसे, अब बखरीं ना आबो ।
गंगाधर कयें अपने मनखां, कउ अन्ते समझाबी ।।
सौदा ल्याये तुमारे लाने, जैसी तमखां चाने ।
बंदा ल्याये डांक के पंचरंग, देखत चित्त लुभाने ।
जारीदार पोत के झटा, बने बहुत सोफानें ।
थोरी सी सिन्नी ले आये, दोरे हो ले जाने ।
गंगाधर मिल जाव प्रेम से, जब जा लगी बुझाने ।।
बाबा भए तुमारी दम पै, कपट न करियो हम पै ।
सर्वस प्रान सोंप दये रजुआ, तुमरे धरम-करम पै ।
रइयो बनी सुचार हिये की, जइयौ ना अधरम पै ।
लगियो नहीं कहें काऊ के, कोउ कहै कछ तुम पे ।
कर का सके कोउ गंगाधर, तुमें चाहये गम पै ।
किसी अधीरा प्रोढ़ा का चित्रण निम्न फाग में देखिए l
मारग आधी रात लों हेरी, यार विदरदी तेरी।
कैयक बेर पौर देरी लौं, दे दे आई फेरी।
कल ना परी चौंक लों दौरी, काउ पंछी की टेरी।
गंगाधर निरदई सांमरे, कहां लगाई देरी ।।
हू है जान तुमारे कारी, मोरी प्रानन प्यारी।
कारिन की कउं देखी नइयां. बसत बसीकत न्यारी।
कौन बात कारी के नइयां, का गोरी के भारी।
अपने भागन मिलत सबई खा, कारी गोरी नारी।
गंगाधर मन बपी हमारे, सांवरिया रंग वारी॥
हम खां है कारी धन नोंनी, तुमें तुमारी नोनी ।
कारी खां कउं खान न जाने, तुमरे संग कालोनी।
गोरी देखत की खच सूरत, लाज शरम की खोनी ।
जोन काम कारी से कड़ने, गोरी से है जौनी ।
गंगाधर मतलब से मतलब, करनें कौन दिखौनी ।।
चंपक वरण राधिका को है, ई को कारण जो है ।
जग-जननी को रंग समज के, भौंर नहीं परसो है ।
अन्तान भये हरि जबही, प्रफुलित ताहि लखो है।
हरि विछ रत फलो अलि-द्रोही, गोपिन साप दओ है।
गंगाधर ता दिन से भोरा फिर नहिं पास गओ है।
ससुरै ना जैबी अखत्यारें, लगवारन के मारें।
आगे नहीं एक डग देबी, चाय चलें तरवारें।
लिखवादेब बलम खां पाती बैठे रये झक मारें।
धरबौ करे नांव सब कोऊ, कछ न सोंच हमारें।
गंगाधर छैलन के संगे, अपनी उमर गुजारें।
तुम तो भोर सासुरे जाती का कऔ हम से काती।
तुमखां चैन चौगुनों होने लगौ बलम की छाती।
जो जा बाँह गही ती तुमनें किये गहायें जातीं ।
देत असीस व्यास गंगाधर बनी रही ऐवाती ।
जौ जी कैसे लगत ठिकानें, बलम मजा ना जाने ।
आधी उमर बीत गई अबलों, हसके नहीं बताने ।
कर सोरा सिंगार बताये, तनक उ नहीं अघाने ।
रूप, शील, गुन देख हमारे, गेलारे ललचानें।
गंगाधर हिम्मत ना हार एक जनम के लानें ।।
ताके कमल वरन पद ताके ता वृषभान सुता के।
ताके पाप दूर हो जैहें उड़ हैं पुन्य पताके ।
ताको जस दुनिया में फैले कहें कवीश्वर ताके ।
ताके फाग कहत गंगाधर ज्ञान देत रसता के ।
हरि ने अजन के रथ हाके बने सारथी बाँके ।
दहिनी चौकी हनमान को ध्यान शारदा मां के ।
छकछकात रथ जात गगन में धरनि लगें ना चाकें।
गंगाधर बाजू के ऊपर महाभारत रंग भांके ।
सुनतन लगे लुगाइन आँदू बूड़ों गिनें न सादू ।
सुनतन ही मोहित हो जावें क्या गरीब धन माँदू ।
विशकर्मा से कोउ बचे ना फना खोल रये दादू ।
गंगाधर ईसूर रसिया ने फाग कही के जादू ।।
जिन खाँ खाने और कमानें कैसें जुरत खजानें।
मायः जोर धरी घर भीतर कहो काये के लानें ।
चलती बिरिया संग न जाबे देख-देख पछतानें ।
जीने देह दई मानुस की तिये फिकर में राने ।
गंगाधर ईसुर लये ठाढ़े जी खाँ जितनों चानें।