Homeहिन्दी कहानियांEk Budhe Ki Gujarti Sham एक बूढ़े की गुजरती शाम

Ek Budhe Ki Gujarti Sham एक बूढ़े की गुजरती शाम

उम्र के आखिरी पडाव मे जब शरीर किसी लायक नहीं रहेगा? चलना-फिरना बंद !!! एक असहाय ज़िंदगी की  शुरूआत …!  सब कुछ बिस्तर में होगा, तब क्या कर पाएंगे उसके बेटे उसकी उसार? Ek Budhe Ki Gujarti Sham का आगे क्या होगा?

‘‘आक थू…’’…‘‘हत् तेरे की…काय फर्श ई पे थूक दओ सकोरा (थूकदान) में थूक देते, इत्तों भी नई टिपत का…अब को उठाहै तुम्हाई थूक-खंखार…’’ बहू बड़बड़ाती हुई जैसे कमरे में अन्दर आई थी, ठीक उसी चाल से बाहर निकल गयी। बूढ़े, कृशकाय, कंकाल शरीर असहाय रामदरश आने वाली आफत के लिए तैयार होने लगे। और फिर जैसे ज्वालामुखी फटा हो…‘‘मैं तो जिच्च आ गई ई आदमी से…चैन से नई रान देत तनकऊ, अब तुमई उठाओ अपनो थूको…काय तुम्हें इत्तो बड़ो सकोरा नई दिखानो…’’

‘‘सॉसी नई दिखानो, इत्ती कम लाइट में।’’ रामदरश मिमियाया। सास ने बहू की ओर देखा। पति की बात में दम था, फिर भी वह तेज स्वर में बोलती रही और बहू के जाते ही स्वर में गर्मी लाते हुए पुनः बोली ‘‘अब तुमई उठाओ और साफ करो…मोए तो घिन आऊत…’’ धर्मपत्नी के कुबोल सुन रामदरश शांत पड़ा रहा, पहले कमरे में बल्ब बड़ी पावर का लगा था। बड़े बेटे ने बल्ब कम पावर का लगाते कहा था, ‘बिजली का बिल ज्यादा आता है, हमेशा बल्ब जलता रहता है तुमाए कमरे में…सो चालीस वाट का बल्ब लगा दिया है। कौन तुमे कछु पढ़ने-लिखने आए।’

अब बूढ़ी आंखें, ऊपर से कम पावर का बल्ब, नहीं दिखा सकोरा, का करें…हे भगवान! रामदरश ने दोनों हाथ जोड़ लिए। हृदय अजीब-सी बेचैनी से भर उठा। आंखों की कोरों से दो बूंद आंसू के ढुलक आए। रेलवे की नौकरी से रिटायर हुए बारह साल बीत रहे थे। दो लड़के, दोनों बेरोजगार, ऊपर से दोनों बाल-बच्चेदार। चालाकी से दो-चार पैसे कमा लिए तो जैसे युद्ध जीत लिया। उसी की पेंशन से घर का खर्चा चल रहा था और उसी की इतनी उपेक्षा। पेंशन लेने के पहले अपने जिन्दा रहने का सर्टिफिकेट प्रत्येक माह उसे दिखलाना पड़ता था, तब पेंशन मिलती थी। जिस दिन वह नहीं रहेगा, क्या होगा?

घर के लोगों का कैसे भरण-पोषण होगा? वही नाहक चिन्ता करता रहता है सबकी और सबके सब उसकी कितनी कदर करते हैं, यह उससे बेहतर और कौन जान सकता था। वह जिन्दा बना रहे ताकि पेंशन मिलती रहे। बस इतनी सी चाहत उससे सभी रखते थे। नाश्ते में चाय के साथ दो बिस्किट, दोपहर दो रोटी दाल-सब्जी के साथ या दाल-चावल। रात में वह कुछ नहीं खाता था। चाय का एक गिलास या गुनगुना दूध, जो मिल गया, वही पर्याप्त।

ग्रेच्युटी, जी.पी.एफ. का सारा पैसा दोनों बेटियों के वर ढूंढ़ने और उनके ब्याह में ही पूरा पड़ गया था। कुछ बच नहीं सका तो इसमें उसका क्या दोष…पेंशन तो पा रहा है, पर दोनों बेटे और बहुएं इसी बात पर उससे कुढ़े रहते हैं कि हमारे लिए क्या किया बाबूजी ने? अब वह कैसे बताएं इन मूर्खों को कि कैसे उसने अपनी जिम्मेदारियां निभाई हैं। रेलवे के अल्प वेतनभोगी कर्मचारी की तनख्वाह ही कितनी होती है, उस पर मां-बाप, भाई-बहनों की जिम्मेदारी, उससे निबटे तो अपना घर-परिवार, भरण-पोषण, पढ़ाई-लिखाई, क्या-क्या नहीं लगता, हां कभी कोई भूखा नहीं सोया, न ही नंगा रहा। क्या यह कम है आज की इस महंगाई के दिनों में?

जितनी तनख्वाह नहीं मिलती थी, उससे कहीं ज्यादा तो वह अब पेंशन पा रहा है, फिर भी पैसों की तंगी बनी रहती है। इस जमाने में दो-दो बेटियों का ब्याह खाते-पीते घर में सकुशल कर देना क्या कम बड़ी बात है? गनीमत है जो उसे पेंशन मिल रही है, नहीं तो ये आज के कलयुगी बेटे उसे रख सकते थे, कहीं का न छोड़ते…वृद्धाश्रम में दिन गुजारने पड़ते। इत्ती-सी बात इस कुंद बुद्धि की समझ में नहीं आती…इसे जब देखो, तब; उसे ही दुत्कारती रहती है और निकम्मे लड़कों की तरफदारी में चौबीसों घंटे लगी रहती है…बहुएं सेटती तक नहीं हैं, फिर भी उन्हीं की चापलूसी करती रहती है।

पोते-पोतियों का हगना-मूतना, उठाने-धोने में घिन नहीं आती और बूढ़े-बीमार-असहाय पति की खखार उठाने में घिन आती है। पचास साल होने जा रहे हैं ब्याह के, कभी सुख नहीं दिया, हमेशा ताने और सिर्फ ताने…मायके के सामने ससुराल वाले कुछ नहीं, हारी-बीमारी…‘कौन बुढ़ा गए हो, जब अशक्त हो जाओगे, मैं ही काम आऊंगी, तभी हाथ-पैर दाबूंगी, अभी तो समर्थ हो, समक्ष हो, शरीर से हृष्ट-पुष्ट हो।’ और जो स्वयं बीमार पड़ी…जीजान से सेवा की, हाथ-पैर सब दाबे, पति धर्म का निबाह किया।

ससुराल पक्ष की वक्त-जरूरत हर सम्भव मदद की…साले को रेलवे में खलासी बड़े साहब से मिन्नते कर लगवाई, तब भी कुछ नहीं किया का ताना, अब इस बुढ़ापे में घिन आ रही है। कुछ दिन बाद बोलेगी तुम्हारे से भी घिन आ रही है। ‘‘अब का परे-परे सोच रए…लो चाय पिओ और सो जाओ…ब्यारी के बाद उठा देहों तुम्हारी खखार…’’ अहसान सा जताते स्टूल पर चाय का गिलास रख हांफती-सी शारदा अन्दर चली गयी।

शारदा उसकी धर्मपत्नी मोहमाया में पड़ी सब कुछ सहती। सहन करती, बेटों-बहुओं की लातें-बातें सुननी पड़ती हैं; पोते-पोतियों के मोह-ममता में। उसने तो कहा था लानत जाय इन बेटों पर, चलो दोनों जने चलते हैं किसी वृद्धाश्रम में, पेंशन मिलेगी ही, हँसी-खुशी जिन्दगी के शेष दिन बिताएंगे, पर जूठन खाकर ही क्यों न रहना पड़े, पर रहूंगी अपने बेटों के पास ही। अब सुनो उनकी लातें-बातें और जली-कटी सुनाओ पति को, दूसरों की भड़ास उस पर निकाल स्वयं हल्की हो जाती है।

वह किससे क्या कहे? कौन है उसकी सुनने वाला इस घर में? एक पत्नी थी, वह भी अब उससे दूर-दूर रहती है। वह तो अब भगवान से मनाने लग गया है; उठा ले अब उसे इस जलालत भरी जिन्दगी से। उसी के बेटे, उसी की बहुएं, उसकी पत्नी, सभी उसकी उपेक्षा करने में लगे हैं, क्या करें, क्या न करें? रोज की कहानी दिन में कई-कई बार दोहराई जाती है, क्या होगा जब शरीर किसी लायक नहीं रहेगा? सब कुछ बिस्तर में होगा, तब क्या कर पाएंगे उसके बेटे उसकी उसार? अभी यह हाल है उनके, तब आगे क्या होगा?

रामदरश कल्पना मात्र से ही अन्दर-ही-अन्दर सिहर उठा। ‘स्टूल पर रखी चाय जल्दी पी ले, कहीं फिर शारदा न आ जाए और फिर सोने से पहले उसे आज की तारीख में एक और जली-कटी सुननी पड़ जाए…’ रामदरश चारपाई पर उठकर बैठ गया और ठंडी होती जा रही चाय जल्दी-जल्दी सुड़कने लगा।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

कथाकार- महेंद्र भीष्म

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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