Dr. Bhavani Singh “Bhagavant” का जन्म टीकमगढ़ में कार्तिक कृष्ण 5 संवत् 1911 वि. में हुआ था। आपके पिता श्री मिरधा मिठू जू(नकीब) थे। आप खाँगर क्षत्रिय थे। आपका उपनाम ‘भगवंत’ कवि था। डॉ. भवानीसिंह ‘भगवंत’ ने सं. 1946 वि. से कविता लिखना प्रारंभ कर दिया था और सं. 1988 वि. तक आप बराबर कविता करते रहे। आपने 3 काव्य संग्रह की रचना की।
1 – भगवन्त-प्रेमावली
2 – गंगा मनोहरी
3 – स्फुट काव्य
भगवन्त प्रेमावली मई 1922 ई में प्रताप प्रभाकर प्रेस टीकमगढ़ से मुद्रित हुई थी। ‘भगवन्त’ कवि महाराजा ओरछा (प्रताप सिंह जू देव 1874-1930 ई.) के कृपापात्र और टीकमगढ़ के सिविल अस्पताल में लगभग 63 वर्ष तक डॉक्टर रहे। आपने बुन्देलखण्डी कहावतों पर भी दोहे और छंदादि लिखे हैं। आप समस्या पूर्ति बड़ी ही शीघ्रता से करते थे। आपकी कविता में अलंकारों की भरमार है। आप भाव पूर्ण और सरल कविता लिखते थे। बुन्देलखण्डी कहावतों पर आपने सुन्दर दोहे लिखे हैं।
1 – मन तुम छोटे अति बड़ी माया लागी रुच। हाथ भरे लड़ई लला नौगज की है पूंछ।
2 – कै कर लै हरि भजन कौ कै घर लै भव भार। दादू दो-दो ना बने, जालें वा दै डार।।
3 – माया ही में ब्रह्म है, ताहि न चीने कोय। माते दुके पियार में, को कह बैरी होय।।
4 – हिय के हर लघु लगत है, मंदिर के बहु वृद्ध। जैसे जोगी गांव को आनगॉव को सिद्ध।
सवैया
लषि पातिक पुंज अनेकनहू लघु दासन वेग बिसारहुगे।
भगवंत जू पूरन प्रेम भरे परसे पनवारन फारहुगे।।
अपनैं जन दीनन के जग मैं अपराधन कौं उर धारहुगे।
तव हे हरी दीन दयाल प्रभु तुम कैसे अनाथ उघारहुगे।।
क्या तुम पापियों के अनेक समूहों को देखकर छोटे दासों को भूल जाओगे? भगवंत कवि कहते हैं कि क्या प्रेम से परोसे गए पतवारे (पत्तल पर परोसा गया भोजन) को फाड़कर फेंकोगे? क्या अपने दीन जनों के जग में किए गए अपराधों को हृदय में धारण करके रखोगे ? तो हे हरि ! दीनों पर दया करने वाले प्रभु आप अनाथों का उद्धार कैसे कर पाओगे?
कोटन दैत्य हनै क्षणमैं नहि पाप प्रचंड पछारत कैसे।
चक्र गदा गहकै भगवंत महां बल बांहि विसारत कैसे।।
दीनन कौ दल देष दुनी विच तारवे कौ मन डारत कैसे।
भारत गीत अनेकन हू अब आरतसौ हरि हारत कैसे।।
आपने हजारों राक्षसों का वध क्षण में कर दिया, तो अब प्रचण्ड पापियों को कैसे नहीं पछाड़ोगे? भगवन्त कवि कहते हैं कि हे भगवन ! आपके हाथों में सुदर्शन चक्र तथा गदा है, तो इनके बल को आप कैसे भुला पाओगे? दीनों का द्वेष दालन करके दुनिया से तारने का मन कैसे बदल सकोगे? भारत में अनेक परेशान लोग आपको पुकार रहे हैं, आप उनसे कैसे हारोगे?
है भव भार अपार अहो प्रभु सेवक कौ दुष वेग नसावो।
नाथ अनाथन के भगवंत सहाय करो मुहना बिसरावो।।
देषौ दया निधि देव बड़े तिहु लोक चतुर्भुज आप कहावो।
मै भुज द्वै सिर पाप धरौ तुम चार भुजा तै उतार न पावो।।
हे प्रभु ! इस सेवक पर संसार का अपरिमित बोझ लदा है जिसको उतारकर आप शीघ्र दुख समाप्त कीजिए। भगवन्त कवि कहते हैं कि आप अनाथों के नाथ हैं, मेरी सहायता कीजिए, मुझे विस्मृत मत करो। देखो, दया के आगार आप बड़े देव, तीनों लोक के मालिक तथा चार भुजाओं के स्वामी चतुर्भुज कहलाते हैं। मैंने अपनी दोनों भुजाओं से अपने सिर पर पाप रूपी गठरी रखी है, उसे आप चार भुजायें होते हुए नहीं उतार पा रहे हैं।
वीर बड़े औ दया निधि हौ रिपु दानव दासन के हितु मानै।
मारन पालन सक्ति सवै सब लायक हो भगवंत वषांनै।
एहो हरी करुना निधिजू हम आपनी अंतर की गति जानै।
स्याम तमोगुन हौतन मैं मनमैं तुम सुभृ सतोगुन सानै।।
आप बड़े वीर, दयानिधि और सेवकों के शुभचिन्तक तथा राक्षसों के शत्रु माने जाते हो। कवि भगवन्त कहते हैं कि मारने तथा पालने की शक्तियां आपके पास हैं। हे हरि जू ! करुणानिधान ! मैं अपने अंतर की गति जानता हूँ। मेरे शरीर में कालिमा युक्त तमोगुण है जबकि आपने मेरे मन में धवल सतोगुण समाहित किया है।
सुंदर संष लसै इक मै, अरु दूजी सुदर्सन चक्र गहौगे।
तीजी तहां भगवंत भलै, गरुऔ सौ गदा धर भार सहौगे।
दीन दयाल सुनौ विनती तुम, चौथी प्रमोदक पद्म लहौगे।
चारौ भुजा भरहौ अपनी तव कैसे गुपाल गरीब गहौगे।।
आप एक हाथ में सुन्दर शंख तथा दूसरे हाथ में सुदर्शन चक्र धारण किए हैं। भगवन्त कवि कहते हैं कि तीसरे हाथ में भारी वजनी गदा लिए हैं और दीनदयालु मेरी विनय सुनिये। चौथे हाथ में सुहावना कमल धारण किए हैं। जब आप अपनी चारों भुजाओं को इस तरह से भरी (व्यस्त) रखोगे, तो दीनों का हाथ कैसे पकड़ पाओगे ?
भूर भुजां बलवांन बड़ी धनुधान लै सत्रन सैन सिघारी।
बाल बली दसकंधर से भगवंत हने अरु लंक बिदारी।।
तोर दियौ धनु संकर कौ सुन सोर भलेई भयौ भुय भारी।
वीरता श्री रघुवीर कहा जब मो मन माया मरै नहि मारी।।
आपने अपनी बलशाली भुजाओं में धनुष बाण लेकर असंख्य सेनाओं का संहार किया है। बलवान बलि का वध किया। भगवंत कवि कहते हैं कि दस भुजाधारी रावण को मारकर लंका को तहस नहस किया। शिव का धनुष तोड़ दिया जिसका शोर सारे संसार में सुनाई दिया। हे रघुवीर राम जी ! मैं आपकी वीरता क्या मानूँ ? मेरे मन की माया तो आप मार नहीं पा रहे हैं।
कवित्त
हम ढूंड फिरे सिगरे जग में न मिले कहुं कांधै धरे कमरी।
जब हारौ हिय भगवंत सदा अरु सूख गई तनकी चमरी।
जन दीनन की न सुनौ विनती कहिए अब कौन तरां समरी।
भजबे की परी हम कौ प्रभु जूबे तजवे की परी तुमकों हमरी।।
मैं सारे संसार में तूझे ढूँढ़ता रहा आप कहीं भी काली कमरी
धारण किए मुझे नहीं मिले। भगवंत कवि कहते हैं कि मैं हार गया और मेरे शरीर की चमड़ी भी सूख गई। इन गरीबों की विनय जब आप नहीं सुनेंगे, तो किस विधि बात संभाली जाएगी। हे प्रभु ! मुझे आपको भजने की शीघ्रता पड़ी है और आपको मुझे त्यागने की शीघ्रता पड़ी है।
रोय रही माता भई कैसी जा विधाता,
अब भ्राता भर अंक कहै मोह मुड़ौ जात है।
कहै भगवंत पित व्याकुल वीलाप करै,
प्रेम भरी छातिहु कौ प्रेम छुड़ौ जात है।।
नारी निज नीर भरै नैनन निहार रही,
अवतौ न स्वामी सौ सनेह जुड़ौ जात है।
सुन्दर सुषेन सन सारके सरोवर तैं,
वंसके विसूरै हाय हंस उड़ौ जात है।।
माता रो रही है कि हे विधाता ! आपने ये क्या किया? भाई गोद में लेकर विलाप करते हुए कहते हैं कि मेरा भाई समाप्त हुआ जा रहा है। कवि भगवन्त कहते हैं कि पिता विलाप करते हुए कहते हैं कि मेरे हृदय का प्यारा हमसे छूटा जा रहा है। पत्नी अपनी आँखों में आँसुओं से सराबोर हो रुदन कर कहती है कि मेरे प्रियतम का प्रेम हमसे छूटा जा रहा है। इस भवसागर से पार सुन्दर स्वर्ग सरोवर हेतु यह जीव रूपी हंस उड़ा जा रहा है।
सवैया
खेलत ही लरकाई कटी उर आई न एक हू भाई सुकीन्हौ।
ज्यौं भगवंत जू जागी जुवा मन लागी मया ममता भ्रम भीन्हौं।।
ब्रद्ध भये जग जाल हीमै तब काल के सोच सबै तन छीन्हौं।
जे पन तीन हू अैसै गए हिय हाय मैं राम कौ नाम न लीन्हौं।।
खेलते-खेलते ही बचपन कट गया और एक भी सुकर्म नहीं किया। कवि भगवंत कहते हैं कि जैसे ही युवावस्था आयी तो मोह-ममता के भ्रम में भ्रमित हो गया। संसार के जाल में ही उलझे हुए वृद्ध होकर मृत्यु के बार में सोचते हुए शरीर क्षरित हो गया। इस तरह से जीवन की तीनों अवस्थायें बिना ईश्वर का नाम लिए गुजर गई।
कवित्त
मुदित मनोज मोह माया मैं मड़ोई रहै,
लागी लोभ लहिर सरीर सुख सानो है।
कहै भगवंत धन संपत कौं धाय फिरै,
जीवन कौ जक्तमाल ठौर न ठिकानौ है।।
गहत न गैल गुन ग्यान की गुमान भरौ,
लहत न सीख बनौ सुन्दर सयानौ है
ढूवत गंग हरी भक्त के जुड़ायवे कौं,
अधम अरे क्यौं भवसिंध मैं समानौ है।।
काम, मोह तथा माया में संलग्न रहते हुए शरीर को लोभ में लगाये रहा। कवि भगवंत कहते हैं कि धन दौलत के चक्कर में पूरा जीवन दौड़ते हुए गुजारा और जीवन में भक्ति को कोई स्थान नहीं दिया है। घमण्ड में चूर होकर ज्ञान व गुण का मार्ग न गहकर बुजुर्गों से कोई सीख नहीं ग्रहण की है। गंगा में हरि के भक्त कहलाने हेतु डुबकी लगाते रहे हो किन्तु रे नीच ! क्यों इस भवसागर में डूबा हुआ है ?
झुक झूलत झोकन चंदमुखी, छवि छूट छटा छहरान लगी।
भगवन्त लफै लचकै अचकै, मचकै मिचकी थहरान लगी।।
हरुयै हरि बेवलन की चुनरी, उड़ अंगन ते फहरान लगी।
रसरंग भरी लख लालन के, मन लोनी लता लहरान लगी।।
(उपर्युक्त सभी छन्द श्री हरिविष्णु अवस्थी के सौजन्य से)
चन्द्रमुखी नायिका झूला झुककर झूल रही है। जिससे उसकी सौन्दर्य छटा छहराकर फैल रही है। भगवन्त कवि कहते हैं कि झूलने से पेड़ की शाख लफते (झुकते) हुए रुक-रुककर लचक रही है। इस तरह झूला के झुकने से नायिका की आँखें मिचकने लगती है। हरे रंग की चूनरी हवा में उड़कर अंगों को उघाड़कर फहराने लगी है। रसिकों के मानस में यह दृश्य देखकर लावण्य सौन्दर्य से युक्त वह लता सी नायिका लहराने लगी।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)