संस्कृति सहानुभूति का वातावरण निर्मित करती है। एक दूसरे को परस्पर जोड़ने का प्रयन्न करती है। संस्कृति हमारी आत्मा का गुण है। प्रेम का भाव है। Datiya Jile Ki Sanskriti समन्वय की संस्कृति है। यदि यहाँ कप्तान मुसलमान रहा तो हिन्दू मुसाहिब के पद पर रहा। सद्भाव की संस्कृति, भैया बन्दी की संस्कृति है यहाँ की इस-भू–भाग में यज्ञ, व्रत, उत्सव और मेलों का वातावरण रहा है।
दतिया-ग्वालियर संभाग का एक जिला है जिसमें सेंवढ़ा, दतिया और भांडेर सहित तीन तहसीलें हैं। दतिया जिले की पुरातात्विक महानता आदिमानव के विकास काल तक जाती है। दतिया का सबसे पहले उल्लेख ‘वीरसिंह देव चरित’ में मिलता है। 20 अक्टूबर 1626 ई० में दतिया राज्य की स्थापना हुई।
वीरसिंहदेव ने अपने पुत्र भगवानराव को बड़ौनी मिलाकर दतिया की जागीर प्रदान की थी। दतिया जिले में बुंदेली का पंवारी रूप व्यवहृत है। बुंदेला नरेशों ने 322 वर्षों तक दतिया पर शासन किया। दतिया नरेश ने सेंवढ़ा में जनतोत्सव के नाम से सनकुआ के मेले का शुभांरभ किया था। जो कार्तिक की पूर्णिमा से शुरू होकर एक माह तक भरता था। वर्तमान में पन्द्रह दिन का रह गया है यह मेला/मेले व्रत और त्यौहार संस्कृति के मूल अंग हैं।
दतिया जिले के जन-जीवन को त्यौहार, उत्सव, मेला और हाटे इन्द्र-धनुषी बनाये रहते हैं। आस्था सामूहिक होकर संतरगीं हो जाती है। ईसुरकुंड‘, ‘भैरारेश्वर‘ और बालाजी के मेले अपनी पृथक सत्ता रखते है। शिवरात्रि के अवसर पर ‘ऐरारेश्वर और दीपावली की दौज को ‘रतनगढ़ का मेला‘ दतिया जिले की खास पहचान बन गया है। सावन के महिने में नागपंचमी और मुजरियों का मेला लगता है।
जिले का जनजीवन-आस्थावान हैं। आस्थावान हर घर के आँगन में तुलसी का पौधा दिखाई दे जाता है और उसी के आसपास ठाकुर जी विराजे होते हैं। स्त्रियों और पुरुषों में व्रत रखने की परंपरा है। हरदौल लला गाँव–गाँव में पूजे जाते हैं। मेहतर बाबा और बछेरा को भी उतना ही आदर मिलता है। घाट के घटौरिया के साथ नटनी और लोढ़ी की पूजा होती है। रक्कस, बीजासेन, ‘आसमाई, दानेबाबा, मसान, कालका, अघोरी, कुँअरसाब, हीरामन, जिंदपीर, सैय्यद वली, परीतबाबा आस्था और विश्वास के केन्द्र है।
उरैन डालना, सतिया धरना, कुंआ पूजना, शादी में मूसर बदलना, मटयाना लेना काजर लगाना चौक पूरना, कलश रखना, , छोर डारना, आदि परिपाटियाँ पूरे बुदेलखंड में एक जैसी हैं। समदी रोटी में बरा, मॅगौरा, पापर–पपरिया, कचरिया, कढी, दाल, मांड–बरे का स्वाद है। दतिया की सस्कृति कॉलोनी की संस्कृति है। सबको मिलाकर एक-दूसरे को परस्पर जोड़ने की संस्कति मदद करने की संस्कति। अच्छे-बुरे में काम आने की सस्कृति।
कुआरी लड़कियाँ कंघेला मारती थी और कछोटा लगाती थीं। यह चलन अब छूट गया है। बजीर के बजना बिछिया और बूंदा-टिकुली ने अपना स्वरूप बदल दिया है। संस्कार के बारीक बिंदुओं को नकारा नहीं जा सकता और यह क्रम सदियों पुराना हैं। सांस्कृतिक परंपराओं में सामाजिक विशेषतायें भी जुडी रहती हैं। साम्प्रदायिक सद प्रतीक नबीबख्श फलक का यह दोहा जिसमें आस्था प्रतिबिंबित होती
राम लखन संग जानकी, रोको बनहिं न जाय।
कठिन–भूमि कोमल चरन, फलक परेंगे पायं।।
लोक-मन समाज के रहन-सहन के एक-एक क्षण को निहार लेता है। “भैया अब सुराज के लाने तन–मन से लग जाने‘ – इन पंक्तियों में लोक के अनुभव स्पष्ट दिखलाई देते हैं। दतिया जिले में ग्राम-नामों से संबधित लोकोक्तियों में पीढ़ियों के अनुभव है। ऐतिहासिक घटनायें हैं। सामाजिक दशायें हैं। दतिया की ठसक अभावों में भी देखी जा सकती है।
फटी पनहियाँ, टूटे म्यान।
जे देखौ, दतिया के ज्वान।।
कक्काजू, बब्बाजू, बिन्नू महाराज, लल्लासाहब, बाईजूराजा, बेटी राजा जैसे संबोधन व्यवहार में हैं।
लोक-जीवन में जनेऊ, सगाई, लगन, ब्याव, कथा-भागवत का महत्व रहा है। यहां का साहित्य समृद्ध और सदियों पुराना है। दतिया में कपड़ा पहिनने मे स्त्रियां काले रंग की छड़याऊ, बांड, अमाउआ की तोई, अंगिया, लुगरा और कॉकरेजू धोती चलन में थी। पुरुष पंचा, फतूही, कमीज, धोती,आदि पहनते थे।
दतिया साई साफा की अपनी पहचान रही है। साथ ही मधुकरशाही तिलक का प्रचलन था। आभूषणों में खंगौरिया, साँकरदार तरकियाँ, चूरा, पटला, दौरीं, लच्छा, कन्नफूल, लल्लरी, तिधानौ, हमेल, साददानी पहने जाते थे। दतिया के झिंझरया पैजना’ पूरे बुंदेलखंड में नामी रहे प्रसिद्ध रहे हैं।
धीरे-धीरे खान-पान, रहन-सहन, और जीवन शैली सब बदल रहा है । रीति-रिवाजों में शुष्कता आ गई। बनावटी जीवन शैली और रूखा-व्यवहार। चिंता का विषय है। नई पीढ़ी अपनी लोक-संस्कृति को भूलती जा रही है। क्वाँर के महिने में इक्का-दुक्का जगह कुआंरी लड़कियाँ, मामुलिया और सुअटा खेलती हुई दिख जाती हैं। उच्चवर्ग में लड़कियों को शर्म लगती है। लोकगीतों का फिल्मीकरण हो गया।
बूढी-पुरानी औरतों के पास ही संस्कार गीत सुरक्षित वचे है। इन्हें सहेजने की आवश्यकता है। लोक नृत्य में दतिया का ‘राई‘ नृत्य और गायन में दतिया की ‘लेद गायिकी‘ का अलग स्थान है। शादी के अवसर पर गाये जाने वाले गीत बहुत नोंने हैं। ‘दतिया साई हॉकना‘ बोली में प्रचलित है। दतिया गले का हार है। दतिया की संस्कृति में मिठास है। माटी में सौंधापन है। यहाँ की बहुरंगी संस्कृति पर हमें गर्व है।