Chol Sanskriti Me Sahitya Aur Kala के विकास में तमिल लेखकों में सर्वाधिक प्रसिद्ध जयन्गोन्दार था। वह कुलोत्तुंग प्रथम का राजकवि था और उसने ‘कलिंगत्तुपणि’ नामक ग्रंथ की रचना की जिसने कलिंग व कुलोत्तुंग की युद्ध घटनाएं वर्णित हैं। कुलोत्तुंग तृतीय के काल में प्रसिद्ध कवि कम्बन् हुआ जिसने ‘तमिल रामायण’ अथवा ‘रामावतारम्’ की रचना की। यह तमिल साहित्य का महाकाव्य है। अन्य गंन्थों में शेक्किल्लार का पेरियपुराणम् तोलामल्लि का शूलामणि आदि विशेष है।
Literature and Art in Chola Culture
चोल शासकों ने अमृतसागर तथा बुद्धमित्र जैसे प्रसिद्ध जैन तथा बौद्ध विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया था। बुद्धमित्र की प्रमुख कृति ‘वीर-शोल्लियम्’ है तथा अमृतसागर ने ‘याप्परंगलम्’ तथा ‘याप्परूंगलक्कारिगै’ नामक प्रमाणिक गंथ लिखे। वैष्णवों के लेखकों में नाथमुनि, यमुनाचार्य तथा रामानुज के नाम उल्लेखनीय है तथा इन्होंने अपने ग्रंथ संस्कृत में लिखे।
कला और स्थापत्य
चोलवंशी शासक उत्साही निर्माता थे और उनके समय में कला एवं स्थापत्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुइ। Chol Sanskriti Me Sahitya Aur Kala और कलाकारों ने अपनी कुशलता का प्रदर्शन पाषाण मंदिर एवं मूर्तियां बनाने में किया है। द्रविड़ वास्तुशैली का प्रारम्भ पल्लव काल में हुआ इसका चरमोत्कर्ष चोल काल में परिलक्षित होता है। इस काल को दक्षिण भारतीय कला का स्वर्ण युग कहा जा सकता है। कलाविद् फर्ग्गुसन के अनुसार चोल कलाकारों ने ’दैत्यों के समान कल्पना की तथा जौहरियों के समान उसे पूर्ण किया।
चोलकालीन मंदिरों के दो रूप दिखाई देते हैं। प्रथम के अन्तर्गत प्रारम्भिक काल के वे मंदिर है जो पल्लव शैली से प्रभावित है तथा बाद के मंदिरों की अपेक्षा छोटे आकार के हैं। दूसरे रूप के मंदिर अत्यन्त विशाल तथा भव्य हैं। इन सभी में द्रविड़ शैली का पूर्ण परिपक्वता पाते हैं। चोलकाल के प्रारम्भिक स्मारक, पुडुक्कोट्टै जिले से प्राप्त होते हैं। इसमें विजयालय द्वारा नात्तमिलाई में बनवाया गया चोलेश्वर मंदिर सर्वाधिक प्रसिद्ध है।
चोलकालीन इस सुन्दर नमूने में एक वर्गाकार प्रकार के अन्तर्गत एक वृत्ताकार गर्भगृह बना हुआ है। प्रकार तथा गर्भगृह के ऊपर विमान हैं। यह चार मंजिला है। यह क्रमशः एक दूसरे के ऊपर छोटी होती हुई बनायी गयी है। नीचे की तीन मंजिल वर्गाकार तथा सर्वोच्च ऊपरी गोलाकार है। इसके ऊपर गुम्बदाकार शिखर तथा सबसे ऊपरी भाग में गोल कलश स्थापित है। सामने की ओर घिरा हुआ मण्डप है। मुख्य द्वार के दोनों ताख में दो द्वारपालों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं मुख्य मंदिर के चारों ओर खुले हुए बरामदे में सात छोटे देवस्थान हैं जो मंदिर ही प्रतीत होते हैं। ये सभी पाषाण निर्मित हैं।
इस प्रकार का अन्य उदाहरण कन्नूर का बालसुब्रह्मण्य मंदिर है जिसे आदित्य प्रथम ने बनवाया था। इसकी समाधियों की छतों के चारों कोनों में हाथियों की मूर्तियां हैं। आदित्य प्रथम के समय ही तिरूक्कट्लै के सुंदरेश्वर मंदिर का निर्माण हुआ। इसके परकोटे में गोपुरम बना हुआ है। इसी समय कुम्बकोनम् में बना नागेश्वर मंदिर है जिसके गर्भगृह के चारों ओर सुन्दर कलाएं, मानवमूर्तियां बनी हैं अत्यधिक सुन्दर है।
इस काल में मंदिर निर्माण का द्वितीय चरण परान्तक प्रथम के राज्यकाल में निर्मित श्रीनिवासनल्लूर का कोरंगनाथ मंदिर द्वारा प्रत्यक्ष होता है। यह कुल 50 फीट लम्बा है। इसका वर्गाकार 25 फीट का है तथा सामने की ओर मण्डप 25’×20’ के आकार है। भीतर चार स्तम्भ पर आधारित लघुकक्ष है। मण्डप तथा गर्भगृह को जोड़ते हुए अन्तराल बनाया गया है।
शिखर 50 फीट ऊँचा है, गर्भगृह के बाहरी दीवार में विभिन्न आकृतियां, विष्णु एवं ब्रह्मा की खड़ी हुई मूर्तियां उत्कीर्ण मिलती हैं। इस प्रकार वास्तु तथा तक्षण दोनों ही दृष्टि से यह एक उत्कृष्ट कलाकृति है।
चोल स्थापत्य कला का चरमोत्कर्ष त्रिचनापल्ली जिले में निर्मित दो मंदिरों-तंजौर तथा ’गंगैकोण्डचोलपुरम’ के निर्माण में परिलक्षित होता है। भारत के मंदिरों में से सबसे बड़ा तथा लम्बा बृहदेश्वर था तंजौर के इस मंदिर की उत्कृष्ट कलाकृति का निर्माण राजराज प्रथम के काल में हुआ था। इसे द्रविड़ शैली का सर्वोच्चतम नमूना माना जा सकता है।
इसका विशाल प्रांगण 500×250 के आकार का है ग्रेनाइट पत्थरों के प्रयोग से निर्मित यह चारों ओर एक ऊँची दीवार से घिरा है। आकर्षण गर्भगृह के ऊपर पश्चिम में बना हुआ लगभग 200 फीट ऊँचा विमान है। इसका आधार 84 वर्ग फुट है।
आधार के ऊपर तेरह मंजिलों वाला पिरामिड़ के आकार का शिखर 190 फुट ऊँचा है। गर्भगृह के भीतर विशाल शिवलिंग है जिसे अब बृहदीश्वर कहते हैं। दीवारों पर अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियां बनी हैं। इस प्रकार भव्यता तथा कलात्मक सौन्दर्य की दृष्टि से यह दक्षिण भारत का सर्वश्रेष्ठ हिन्दु स्मारक है।
‘गंगैकोण्डचोलपुरम्’ मंदिर का निर्माण राजराज के पुत्र राजेन्द्र चोल के शासनकाल में हुआ। यह भी बृहदीश्वर के समान निर्मित है किन्तु यह 340 फीट लम्बा तथा 110 फीट चौड़ा है। मण्डप के स्तम्भ अलंकृत व आकर्षक हैं, मंदिर की बाहरी दीवारों पर देवी-देवताओं की मूर्तियां एवं विविध प्रकार के अंलकरण उत्कीर्ण हैं जो तंजौर की तुलना में अधिक सुंदर है। राजेन्द्र चोल के उत्तराधिकारियों के समय भी मंदिर निर्माण जारी रहा इसमें राजराज द्वितीय तथा कुलोत्तुंग तृतीय द्वारा बनवाये गये दारासुरम का ऐरावतेश्वर तथा त्रिभुवनम् का काम्पहरेश्वर मंदिर अत्यन्त भव्य व सुन्दर है।
Chol Sanskriti Me Sahitya Aur Kala परवर्ती चोल कला पर चालुक्य, होयसल तथा पाण्ड्य कला का प्रभाव भी प्रत्यक्ष रूप से पड़ा परिणामस्वरूप अब विमान के पास शाला प्रकार का अम्मन मंदिर बनाया जाने लगा जो इस काल की नई विशेषता है। इस प्रकार वास्तुकला में चोलकाल सर्वश्रेष्ठ व निपुण सिद्ध हुआ।
तक्षण कला/शिल्प कला
शिल्पकला में भी चोल कलाकारों ने सफलता प्राप्त की। उन्होंने पत्थर तथा धातु की बहुसंख्यक मूर्तियों का निर्माण किया, प्रारंभिक मूर्तियां पल्लव शैली से प्रभावित हैं किन्तु दसवीं शताब्दी में इनमें विशिष्टता दिखाई देती है। आकृतियां इतने उभार के साथ बनाई गयी हैं कि वे दीवाल के सहारे सजीव प्रतीत होती हैं। उनके अंग-प्रत्यंग को अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ गढ़ा हुआ है।
इस काल में पाषाण मूर्तियों से अधिक धातु (कांस्य) की मूर्तियां निर्मित हुई, इसमें सर्वाधिक सुन्दर मूर्ति नटराज (शिव) अत्यधिक मात्रा में मिली हैं। त्रिचनापल्ली के तिरूभंरगकुलम से नटराज की एक विशाल कांस्य प्रतिमा मिली है जो इस समय दिल्ली संग्रहालय में है। इसके अतिरिक्त ब्रह्मा, विष्णु, लक्ष्मी, भूदेवी, राम-सीता, कालियानाग पर नृत्य करते हुए बालक कृष्ण तथा कुछ शैव संतों की मूर्तियां भी प्राप्त होती हैं जो कलात्मक दृष्टि से भव्य एवं सुन्दर हैं।
चोल मूर्तिकला वास्तुकला की सहायक थी और यही कारण है कि अधिकांश मूर्तियों का उपयोग मंदिरों को सजाने में किया गया। त्रिपुरान्त मूर्ति के माध्यम से शिल्पी राजराज के पराक्रम को उद्घाटित करता हुआ जान पड़ता है। ’गंगैकोण्डचोलपुरम’ स्थित मूर्तियां बृहदीश्वर मंदिर की मूर्तियों से कम हैं फिर भी अधिक कलात्मक एवं भावपूर्ण है। इस प्रकार शिल्पकला की उत्कृष्ट आकृतियां चोलकाल की शिल्पकला को श्रेष्ठ बनाती हैं।
चित्रकला
इस युग के कलाकारों ने मंदिरों की दीवारों पर अनेक सुन्दर चित्र बनाये हैं। अधिकांश चित्र बृहदीश्वर मंदिर की दीवारों पर उत्कीर्ण मिलते हैं। चित्र प्रमुखतः पौराणिक धर्म से सम्बन्धित है। यहां शिव की विविध लीलाओं से सम्बन्धित चित्रकारियां प्राप्त होती हैं। एक चित्र में राक्षस का वध करती हुई दुर्गा तथा दूसरे में राजराज को सपरिवार शिव की पूजा करते हुए प्रदर्शित किया गया है।
इस प्रकार चोल राजाओं के शासन काल में राजनैतिक और सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से तमिल देश की महती उन्नति हुई। वस्तुतः स्थानीय प्रशासन, कला, धर्म तथा साहित्य के क्षेत्र में इस समय तमिल देश जितना अधिक उत्कर्ष पर पहुंचा बाद के कालों में कभी भी नहीं पहुंच सका।
दक्षिण भारतीय इतिहास में चोलकालीन संस्कृति का महत्वपूर्ण स्थान है। चोल शासकों ने शासन व्यवस्था के साथ-साथ कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी काफी रूचि दिखाई। कालात्मक दृष्टि से भी चोलों का युग अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा है। बड़े-बड़े देवालय, मंदिर तथा राजप्रसाद इत्यादि बनवाए गये। चोलों का काल द्रविड़ शैली के लिए चरमोत्कर्ष का काल माना जाता है। कला और स्थापत्य कला के अलावा शिक्षा और साहित्य का भी पर्याप्त विकास हुआ।