भारतीय संस्कृति का आधार भारत की ग्रामीण लोक संस्कृति और परंपरा है । पूर्वकाल मे लोक जीवन की कुछ मौलिक आवशकताओं मे जिस प्रकार लालटेन , ढिबरी , आता पीसने की चकिया , मसाला पीसने के लिए सिल-बट्टा होता है उसी प्रकार प्रत्येक घर के सामने Chauntara / Chabutara (चौंतरा / चबूतरा) होना लोक जीवन का अभिन्न अंग माना जाता था ।
चौंतरा / चबूतरा विलुप्त होती ग्रामीण लोक संस्कृति और परंपरा
चबूतरों का लुप्त होना सामाजिक समरसता में कमी आने का बड़ा कारण है । चबूतरे पर बैठकर गांव के बड़े-बड़े विवाद सुलझाए जाते थे । मामला चाहे कितना ही पेचीदा हो, लोग चबूतरे पर बैठते ही हल निकाल ही लेते थे । और वो लोग ऐसा रास्ता निकालते, जिससे आपस का प्रेम बना रहता।
क्या कभी आपने सोचा है कि कुछ दशक पूर्व तक हमारे आस-पडौस ही नहीं बल्कि समाज में जो एकजुटता, एक दूसरे के प्रति सामंजस्य की भावना हुआ करती थी, उसके तीव्रगति से पतन के कारण क्या हैं? उनमें से एक महत्वपूर्ण कारण है – हमारे घरों के बाहर से चबूतरों का लुप्त हो जाना। महानगरीय संस्कृति में जीवनयापन करने वाले, बगल के फ्लैट में कौन है इसकी जानकारी न रखने वाले आज के युवाओं को कदाचित इस बात का बोध भी न हो कि चबूतरा होता क्या था।
हमारे बुंदेलखंड में “चबूतरे” को “चौंतरा” कहते थे जो प्रत्येक घर का सर्वप्रथम हिस्सा हुआ करता था। उसके बाद होती थी “पौर” जहाँ बब्बा (दादाजी) एक और छोटे से दरी या गलीचा बिछे “एल शेप “ के चौंतरे पर एक किनारे मिट्टी की बनी तकिया जैसी स्थायी आकृति पर हमेशा अधलेटे से टिके हुए बैठे बाहर की तरफ नज़र रखते और आते-जाते लोगों से निरंतर संवाद बनाये रखते, पौर के बाद या बगल में “बैठक” होती जिसे हम “बैठका” कहते, उसके बाद एक छोटी सी ऊँची जगह थी जिसे शायद मंच की तरह उठा होने से “मंचपौरिया” (छोटी सी पौर) कहा जाता था । हमारे यहाँ जूते चप्पल यहाँ से आगे निषिद्ध होते और इन्हें करीने से पंक्तिबद्ध रखा जाता था । उसके बाद “आँगन” जिसके बीचों-बीच “तुलसीघरा” होता था।
नीचे कमरे होते उन्हें इस तरह नाम दिए जाते – “मड़ा” (घर का भण्डार इसी में था), गायों का कमरा – “सार”, शौच वाला कमरा – “टट्टी”, नहाने वाला कमरा – “गुसलखाना” कहलाता परंतु अधिकांश लोग आँगन में ही नल के नीचे नहाते (चौबीसों घंटे नगरपालिका का शुद्ध पानी फुल फ़ोर्स से आता था), जाड़ों में सुबह सुबह ही पीतल की बड़ी सी “नाद” में उस जगह पानी भरकर रख दिया जाता जहाँ सूर्य की पहली किरण आती हो। स्कूल जाने के पूर्व तक पानी प्राकृतिक गुनगुना होकर स्नान योग्य हो जाता है
ऊपर की मंजिलों पर पच्चीस तीस फुट तक लंबे बड़े बड़े कमरों को “अटारी” कहा जाता, उनका बाकायदा नामकरण इस तरह होता – जहाँ “ठाकुरजी” का सिंहासन विराजमान था उसे “पूजा वाली अटारी” जहाँ भोजन बनता, खाया जाता उसे – “चौका वाली अटारी” और बाहर का कमरा जिसकी छत पत्थर की छत्तियों की थी को – “छत्ती वाली अटारी” कहते थे। ऊपर की छत को “अटा” कहते थे।
आँगन से सटी कवर्ड जगह पर ऊँची पटरी पर पानी के मटके रखे जाते जिसे “घिनौची” कहते थे। सभी कमरों और अटारियों में दीवारों में खोखली पोल बनाकर बड़ी बड़ी “बुखारियाँ” होती थीं। घर के पीछे के हिस्से में कच्चे कमरे और खाली जगह थी जिसे “बाड़ा” कहते और यहाँ भूसा, चारा और जलाऊ लकड़ी इत्यादि का भंडारण किया जाता था ।
घरों के बाहर “चौंतरे” निजी होते हुए भी सबके लिए सुलभ थे, उपलब्ध थे। सुबह सुबह इन्हें धोकर गोबर से लीप दिया जाता था। सुबह सूरज की रोशनी आते ही सूख जाता बच्चे और बुजुर्ग सबसे पहले आकार बैठ जाते और आते-जाते लोगों का एक दूसरे से अभिवादन, एक दोसारे का हाल-चाल जानना । यही से बच्चे अपनी परंपरागत नैतिक शिक्षा ग्रहण करते थे जिसकी आज कमी देखी जा सकती है ।
शाम होते ही आसपास के घरों की महिलायें एक दूसरे के चबूतरों पर बैठकर सप्रेम वार्तालाप करतीं, कहीं कहीं भजन और सत्संग हुआ करते थे । बच्चे एक चबूतरे से दूसरे पर उछलते कूदते खेला करते, न तो जाति का भेद होता और न ही लड़का लड़की का। छुट्टियों या फुर्सत के दिनों में इन्हीं चबूतरों पर “शतरंज” और “चौपड़” की लंबी लंबी बाजियाँ खेलीं जातीं जिनमें खेलने वालों से अधिक उत्साह दर्शकों में दिखाई देत था ।
इन्हीं चबूतरों पर इतवार को “नाऊ कक्का” आकर उंकडूं बैठकर हमारे बाल काटते और पिता जी की तीखी निगाहें देख रहीं होतीं कि बाल कहीं लंबे तो नहीं रखे जा रहे है ।बीच-बीच में पिताजी “नाऊ कक्का” को चेतावनी दे देते हैं… एकदम बारीक बारीक काटना एकदम मिलिट्री कट।
आते- जाते लोग, विशेषकर महिलायें क्षणभर के लिए रुककर चबूतरों पर बैठी महिलाओं से कुशलक्षेम इस तरह पूछतीं – “काय जिज्जी, क्यांय खों चलीं? या फिर “काय काकी, अब तुमाई तवियत कैसी है या कक्का अब कैसे हैं? बच्चे खेलते कूदते बेधड़क किसी के भी घर में घुस जाया करते, खा पी लिया करते थे ।
किसी के घर अतिथि का आगमन होता तो घंटाघर से सुभाषपुरा की तरफ तांगे का रुख होते ही कम से कम चार मोहल्लों के लोगों को खबर हो जाती कि फलाने के मामाजी आ गए या फलाने के लाला (दामाद) मौड़ी (बिटिया) की विदाई कराने आ गए। ये सब चबूतरों पर बैठे या पुरुष या महिलाओं के कारण ही संभव हो पाता ।
सारी महिलायें उन घरों में पहुँचकर दामाद से अनुरोध करने लग जातीं कि बिटिया को अभी महीना खांड़ और मायके में रहने दें, ऐसी क्या जल्दी है कि डेढ़ महीने में ही विदा कराने आ गए। नहीं मानने की दशा में दामादजी को ही दस पंद्रह दिन अतिरिक्त रोकने का प्रयास किया जाता।
जब बेटी ससुराल जाने लगती तो सारे चबूतरों पर डबडबाई आँखें लिए खड़ी महिलायें गले मिलकर उसे विदा करतीं। वहीं बेटी या अन्य के घर आने पर हर दरवाजे पर प्रसन्नचित्त महिलाएं “काय बिन्नू, आ गयीं” और “ई बार तौ दो चार महीना रुकौ” कहकर स्वागत करतीं।
किसी के भी घर में शादी विवाह, फलदान, टीका जैसे अवसरों के कार्यक्रम के लिए चबूतरों की कतारें सर्वसुलभ होतीं, गली के एक कौने से दूसरे कौने तक चबूतरों पर पंगतें सज जातीं, परस्पर सहयोग करने की होड़ सी लगी रहती। चबूतरों की रौनक देखते ही बनती थी। कई सप्ताह यहाँ उत्सव का माहौल बना रहता।
ये चबूतरों के ही कारण संभव था कि परिवार घरों की चारदीवारी में संकुचित न होकर गली और मुहल्लों में फैले हुए थे| कालांतर में घरों में सदस्य संख्या बढ़ने से जगह सिकुड़ती गयी, कुटुम्बों में पहले भाइयों में बँटवारे हुए फिर पिता पुत्र में, लोगों ने चबूतरों को ख़त्म करके कमरे बना लिए, सडकों और गलियों तक पर गाड़ियाँ चढाने के रैंप करके उन्हें भी छोटा कर दिया। और चबूतरे खत्म होते गए।
चबूतरे नहीं सामाजिकता ही समाप्त हो गयी, जगह नहीं सिकुड़ी, लोगों के दिल सिकुड़ गए। अब किसी की बहिन बेटी मायके आती है तो स्वागत करती आँखें और विदा होतीं हैं तो अश्रु बहाती आँखें कहाँ से होंगीं जब वे घर के किसी कौने में बंद टीवी पर सास बहू के झगड़ों या घरफोडू नाटकीय अंदाजों का बनावटी मजा ले रहीं होंगीं|
बच्चे अब आपस में खेला कूदा नहीं करते, लोग कहते हैं ज़माना एडवांस हो गया है, मैं कहता हूँ बैकवर्ड हो गया है, हमारे समय लड़का लड़की जिस स्वच्छंदता से साथ खेलते, आज संभव ही नहीं। हमारे दोस्तों में जितने लड़के होते उससे कहीं अधिक लड़कियाँ रहतीं, साथ साथ बचपन से किशोर और युवा होते, किसी तरह की कोई मलिन भावना नहीं होती। हर घर के मातापिता सभी बच्चों पर पैनी नज़र इसी लिये रख पाते कि चबूतरे थे।
लगता है चबूतरे समाप्त नहीं हुए, समाज के अंदर से पारदर्शिता ही चली गयी, सब लोग अपने मुर्गी के दड़बे जैसे बंद घरों में दुबककर बैठ गए हैं| जगह सिकुड़ी, दिल सिकुड़ गये,सामाजिक भावनाएं मृतप्राय हो गयी हैं। वक्त बदला वक्त के जीवनशैली भी बदल गई और लोग व्यस्त होते चले गए। बच्चे गांव से दूर शहर की ओर शिक्षा पाने के लिए जाने लगे।
चबूतरे के एक कोने मे खेलने के बाद सारे मित्र हाथ-पैर धोया करते थे। आपस में हंसी-ठिठोली किया करते। कितना अपनापन था तब। सबको अंधेरा होने तक घर पहुंचने की जल्दी होती थी ।
इन चबूतरों पर जो बैठकी लगती, उसमें बुजुर्गों को सम्मान के साथ बैठाया जाता। उनकी बातों का बड़ा असर था। वह चबूतरा भी बड़ा खास था। वहां बैठकर हमेशा अच्छी ही बात होती, मानो चबूतरे को किसी देवता का आशीर्वाद प्राप्त हो। अब लगता है उस चबूतरे को किसी की बुरी नजर लग गई। आज न वो बगीचा रहा, न वैसे बुजुर्ग।