चौकड़िया के आविष्कार ने गायकी और फड़बाजी, दोनों को गति प्रदान की है। Chaukadiya Fag Ki Shilpgat Visheshta ईसुरी ने पुरानी ‘लाल’ फाग से अन्तरा की 28 मात्राओं की चार कड़ियों से फाग गायकी को नई रंगत में ढालने का कार्य किया है। प्रथम चरण में 16 मात्राओं पर यति और दोनों अर्द्धालियों को तुकान्त देने से फाग की संगीतात्मकता बढ़ गई है।
चौकड़िया का यह भी चमत्कार है कि उसके प्रथम चरण की अर्द्धाली में एक उक्ति का कथ्य सूत्राशैली में होता है, जिसे उसकी दूसरी अर्द्धाली उसे निखारती है। दूसरे और तीसरे चरणों में उक्ति का फैलाव रहता है और चौथे में कथ्य की सिद्धि पूरी फाग को अन्वित कर देती है। इस प्रकार चौकड़िया के फागकाव्य को एक नई भंगिमा और शिल्पकौशल दिया है।
संगीत, नृत्य और काव्य के त्रिबिध रसों की त्रिवेणी प्रवाहित करने में चौकड़िया बेजोड़ साबित हुई है। चौकड़िया की बनक ही सब कुछ नहीं है, उसकी अभिधा का सौन्दर्य भी गजब का है। ईसुरी की अभिधाओं में व्यंजनाएँ छिपी रहती हैं। एक फाग देखें…।
ऐंगर बैठ लेव कछु कानें, काम जनम भर रानें।
सबखाँ लागो रात जियत भर, जो नइँ कभउँ बड़ानें।
करियो काम घरी भर रैकें, बिगर कछू नइँ जानें।
जो जंजाल जगत को ‘ईसुर’ करत करत मर जानें।।
उक्त फाग के ‘कछु नइँ जानें’ में इतनी व्यंजना है कि फाग के सभी चरणों में वही गूँजता रहता है। थोड़े में अधिक कहने का आसान नुसखा है उक्ति का बाँकपन, जो अभिधा की सहजता में छिपे होने से पहचान में नहीं आता। वह अभिधा को ही पैना (धार दार ) बना देता है, जिससे वह तीर जैसी हृदय के भीतर तक धँस जाय। नखशिख-चित्राण में लोक उपमानों, लोक उत्प्रेक्षाओं और लोकरूपों के प्रयोग से अलंकृत फागें मिलती है, बल्कि यह कहना सही है कि उनकी संख्या अधिक है। यहाँ दो उदाहरण देखें…।
ऐसे अलबेली के नैना, कबि सों कहत बनैं ना।
मधुकर मीन कंज की लाली, कटसाली के हैं ना।
औसर पाय पराने खंजन, डर सें डगर बसैं ना।
कबि ख्याली आली नैनन सों, बनमाली उतरैं ना।।
लख तव नैनन की अरुनाई, रहे सरोज छिपाई।
मृग सिसु निज अलि भय खाँ तजकें, बसे दूर बन जाई।
चंचल अधिक मीन खंजन सें, उनईं न उपमा आई।
‘ईसुर’ इनकी काँनों बरनों, नैनन सुन्दरताई।।
ईसुरी की फागों की पहचान व्यंजना की अपनी निजता है। कवि की व्यंजना की खासियत यह है कि वह बहुत ही सरल शब्दों में गहरी बात कह जाता है। कहीं दो-चार शब्दों में, कहीं एकाध चरण में और कहीं पूरी फाग में। यहाँ दो पंक्तियाँ देखें…।
हंसा उड़ चल देस बिराने, सरवर जायँ सुखाने।
इतै रए की कौन भलाई, जितै बकन के थाने।
इनमें बकन या बगुलों के थाने से एक चुटीला व्यंग्य उभरता है। एक तो बगुले, जो बाहर से सज्जनता का प्रदर्शन करते हैं और भीतर से कुटिल हैं, दूसरे उनके थाने, जो रक्षा के स्थान कहे जाते हैं। जब रक्षक ही भक्षक बने हैं, तब ऐसी जगह रहने में भलाई नहीं है।
फाग फड़ का गीत रहा है। ईसुरी के पहले फाग की फड़बाजी मन्थर गति से चलती थी, क्योंकि उसकी सीमित वस्तु और समय उसे शिथिल बनाए थे। ईसुरी ने उसे इस जड़ता से उबारकर नई वस्तु और गति प्रदान की, जिससे एक तरफ फाग की समृद्धि का द्वार खुल गया और दूसरी तरफ फड़ों में नया उत्साह जगा।
चौकड़िया ने गायकी का नया स्वर दिया और अपनी संक्षिप्तता, गतिशीलता तथा लालित्य से फड़बाजी को लोकप्रिय बनाया। फागों के फड़ ख्यालों और सैरों के फड़ों से अधिक प्रभावी बनाने का पूरा श्रेय ईसुरी को ही है। चौकड़िया फाग के फागकारों की परम्परा आधुनिक काल तक विद्यमान है, क्योंकि उसे एक मुक्तक की तरह प्रयोग करने में अधिक उपयोगी समझा गया है।