Homeबुन्देलखण्ड की लोक संस्कृतिCharagahi Loksanskriti बुन्देलखण्ड की चारागाही लोकसंस्कृति

Charagahi Loksanskriti बुन्देलखण्ड की चारागाही लोकसंस्कृति

बुन्देलखंड की Charagahi Loksanskriti का उद्भव पशुपालकों अहीरों द्वारा हुआ। अहीर चरवाहे पशुओं के झुंड लेकर जंगलों में जाते थे, जहाँ उन्हें जंगली हिंसक पशुओं का भय रहता था, इसलिए वे तारसप्तक स्वरों में गाते थे, जिससे उनकी मौजूदगी का पता दूसरे चरवाहे को चलता रहता था। अनेक लोकगीत और लोकनृत्य चरागाही लोक संस्कृति की देन हैं।

पत्नी प्रियतम से कहती है कि तुम लाठी ले लो। गाय भूसा चर गई हैं वह प्रिय को बारम्बार मना करती है कि घोसी पुरा की छोकरियां बहुत चंचल है वह पुरूषों को बिरमा लेती है अत: तुम वहां न जाया करो – इस भाव से सुसज्जित एक सजनई देखने योग्य है –

लठिया लै ले रे सौंया, लठिया लै ले रे सैंया, भूसा चर गई रै गैंया।
बारे बलम खों  बेर-बेर हटकी, बारे बलम खों बेर-बेर हटकी, धोसी पुरा जिन जाव।  
घोसीपुरा की चंचल छुकरियां , घोसी पुरा की चंचल छुकरियां, छैला लये बिल माय ।
लठिया लै ले रे सैंया, लठिया लै ले रे सैंया भूसा चर गई रे गैंया।

बुन्देलखंड की Charagahi Loksanskriti काफी पुरानी है। उसके विकास के अध्ययन से पता चलता है कि महाभारत-काल में यह जनपद यादवों का गढ़ रहा है। ब्राम्हणो के बाद अहीरों को पुरोहित का दर्जा प्राप्त था। गोपगिरि (ग्वालियर) पशुपालक गोपों का केन्द्र था। इस क्षेत्र में अहीरों की संख्या अधिक थी और उनके ‘‘दिवारी’’ लोकगीत चरागाही संस्कृति के गीत थे। ‘‘दिवारी’’ लोकगीत से ही ‘‘दोहा’’ छन्द का उद्भव हुआ था।

अहीर चरवाहे पशुओं के झुंड लेकर जंगलों में जाते थे, जहाँ उन्हें जंगली हिंसक पशुओं का भय रहता था, इसलिए वे दिवारी लोकगीत तारसप्तक स्वरों में गाते थे, जिससे उनकी मौजूदगी का पता दूसरे चरवाहे को चलता रहता था। दिवारी गीतों की रचना 10 वीं-11 वीं शती में हुई थी।

अहीरों, गड़रियों आदि पशुपालकों के साथ ही गूजरों की स्थिति के सम्बन्ध में अनुशीलन भी महत्त्वर्पूण है। वे इस जनपद में चम्बल नदी और केन के मध्य यमुना नदी की तटीय पट्टी के चरागाहों में निवास करते थे, जिसमें मुरैना, भिंड, ग्वालियर, दतिया, झाँसी, ललितपुर, जालौन एवं हमीरपुर आदि जिले सम्मिलित थे। कारसदेव की गोटों में ‘‘चामल’’ चम्बल के लिए है, जहाँ राजू गूजर अपने परिवार के साथ रहा और ‘‘कारसदेव’’ का अवतार हुआ।

मध्ययुग की कई गाथाओं जैसे मथुरावली, मानों गूजरी आदि में गूजर स्त्रिायों की ही कथाएँ हैं, जो रूपवती, स्वस्थ और स्वच्छन्द होती थीं। गूजर सुन्दर होने के साथ-साथ शूरवीर भी थे। इसी कारण यादवों के बाद गूजरों का राज्य रहा। दाँगी और गूजर चन्देलों के पहले इस जनपद में अपने राज्य स्थापित कर चुके थे, जिन्होंने संस्कृति के विकास में अपना योगदान दिया था। मध्ययुग में भी इनकी अपनी रियासतें थीं जो संस्कृति, साहित्य और कला के विकास में विशिष्ट भूमिका अदा करती रहीं हैं।

उस युग की राजनीति में विवाह-संस्कार एक हथियार बन गया था, जिसके साक्ष्य वत्सराज के “रूपकषटकम्” और हिन्दी के महाकाव्य “पृथ्वीराजरासो” में मिलते हैं तथा दूसरी तरफ ‘आल्हा’ लोकमहाकाव्य की गाथाओं में। एक गाथा में दिल्लीनरेश पृथ्वीराज, चन्देलनरेश परमर्दिदेव (राजा परमाल) की पुत्री चन्द्रावलि के डोला की माँग करता है। शक्तिसम्पन्न नरेश युद्ध में विजय प्राप्त कर शत्रु राजा की कन्या का वरण कर लेते थे, जिससे वह राजा हमेशा आश्रित बना रहता था।

कारसदेव की गाथा में भी गढ़राझौर का राजा राजू गूजर की कन्या एलादी का विवाह अपने पुत्र से करने के लिए माँग करता है और जबरन उठवा लेने की धमकी भी देता है। राजू गूजर इस विवाह को ‘‘डाँड़’’ कहता है। विवाह का यह रूप राजा द्वारा निर्धारित डाँड़ या दंड है, जिसका बदला कारसदेव स्वयं लेते हैं। इस प्रकार इस युग की तीन प्रमुख प्रव त्तियाँ लोकमान्य थीं। वीरता का आदर्श, विवाह-संस्कार में वीरता को चुनौती देकर राजनीतिक हित-साधन और बदले की भावना।


खजुराहो के मंदिरों जहाँ सेना, युद्ध, शिकार आदि के द्वारा उत्साह और ओज का अंकन किया गया है, वहाँ, नृत्य, संगीत, लोकोत्सवों आदि के दृश्यों द्वारा कलाओं के प्रति विशेष अभिरुचि के संकेत मिलते हैं। कविवर राजशेखर की कृति ‘काव्यमीमांसा’ में राजासन के पूर्व भाग में नट, नर्तक, गायक, वादक, कुशीलव आदि का स्थान निर्धारित किया गया है। जिन मंडन के ‘कुमारपाल प्रबन्ध’ में चन्देलनरेश मदनवर्मन के समय वसन्तोत्सव पर हर घर से गीत-संगीत गूँजने का उल्लेख मिलता है।

संवत् 1011 वि. के खजुराहो अभिलेख में बताया गया है कि चन्देलनरेश वाक्पति क्रीड़ागिरि पर किरात स्त्रिायों के गीतों और मयूर नृत्य से मनबहलाव करते थे। तात्पर्य यह है कि लोकगीत, लोकसंगीत, लोकन नृत्य का प्रचलन अधिक था। शास्त्रीय संगीत पर हर घर का अधिकार सम्भव नहीं है। दिवारी, फाग, देवीगीत और राछरे इसी युग में रचे और गाए गए हैं। ‘‘आल्हा’’ की गाथाएँ इसी समय लिखी गई थीं। इन साक्ष्यों से प्रमाणित है कि लोकगाथाओं की रचना के लिए उर्वर भूमि चन्देलों की महत्त्वर्पूण देन थी।


चन्देलों के राज्यकाल (9वीं-14वीं शती) में सुख-शान्ति और समद्धि, ललित कलाओं के उत्कर्ष और साहित्य-सृजन के उदाहरणों से बुन्देली की लोकवाचिक परम्परा के विकास का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। इस युग में सत्ता का संरक्षण संस्कृत को प्राप्त था, लेकिन लोकप्रचलन में बुन्देली अग्रणी थी। 10वीं शती से ही दिवारी गीत, सखयाऊ फाग, राई और लमटेरा रचे और गाए जाने लगे थे।

इन लोकगीतों की संरचना दोहे पर केन्द्रित थी, जबकि चरागाही संस्कृति के प्रभाव में रची गई चरागाही लोकगाथाएँ प्राकृत की ‘गाथा’ पर आधारित थीं। उनके दो रूप थे। एक तो संक्षिप्त आख्यानक गाथा-रूप, जैसे ‘गहनई गाथा’ तथा दूसरा है महाकाव्यात्मक गाथा रूप, जैसे कारसदेव एवं धर्मासाँवरी की गाथाएँ।

गहनई की गाथा में कन्हैया और गोपी का आख्यान है, इसलिए वह 14-15वीं शती की रचना है, जबकि कारसदेव और धर्मासाँवरी की गाथाएँ 12-13वीं शती में रची गई थीं। इस प्रकार 12वीं शती लोकमहाकाव्यों की लोकवाचिक परम्परा का उत्कर्ष की प्रतीक सिद्ध होती है।


दोनों गाथाएँ अपने मूल रूपों की वस्तु और लय में बिल्कुल आरम्भिक जान पड़ती है। दोनों में चरागाही संस्कृति की पृष्ठ भूमि पर कथा का अंकन हुआ है। दोनों के नायक संघर्षधर्मी वीरता के सजीव प्रतिनिधि हैं और दोनों के पात्र चमत्कारक कार्यों में कुशल हैं। दोनों गाथाओं का उद्देश्य कल्याणकारी और सामाजिक चेतना से है।

ये कुछ समान तत्त्वों के होते हुए भी दोनों में काफी अन्तर है। कारसदेव लोकदेवता हैं, इसलिए कारसदेव की गाथा धार्मिक और भक्तिपरक भावना से जुड़ गई है। धर्मासाँवरी की गाथा पूंर्णतया लौकिक है, लेकिन जादुई चमत्कारों से परिर्पूण है। इस मूलभूत अन्तर के कारण दोनों गाथाओं का कथानक, चरित्र-चित्राण और सन्देश भिन्न हो गया है।

लोकगाथाएँ मूलतः चरागाही लोकसंस्कृति से उपजी हैं, लेकिन कारसदेव की गाथा विशुद्ध चरागाही रूप प्रस्तुत करती है। उसमें प्रारम्भ से ही चरागाही जीवन का एक चित्रा लिखा गया है और गाथा का अन्त सूरजपाल द्वारा पशुओं का खोड़ ले जाने से होता है।

चरागाही जीवन की विडम्बना यह है कि राजा कोई-न-कोई बाधा खड़ी करता है। गढ़राझौर के राजा एलादी को अपने पुत्र से जबरन ब्याहना चाहते हैं, जिसके कारण राजू गूजर अपनी जन्मभूमि छोड़ देता है।

कारसदेव के जन्म का दैवी र्वणन, उनके चमत्कारी कार्य और गढ़झौर के राजा को परास्त करने की महत्त्चर्पूण सफलता गाथा के कथानक को धार्मिकता की तरफ मोड़ देती है। यद्यपि चरागाही संस्कृति में लोकदेवता की अत्यधिक मान्यता है, तथापि इस गाथा में कारसदेव का देवत्व उसे चरागाही नायकत्व से पर उठा देता है। तात्पर्य यह है कि वस्तु की धार्मिकता ने चरागाही लोकसंस्कृति की बनावट को अनदेखा कर दिया है।

‘धर्मासाँवरी’ गाथा में दाम्पत्यपरक रिश्ते और सन्तति की समस्या को केन्द्र में रखा गया है, जो कि तत्कालीन स्वच्छन्द समाज में प्रमुख थी। चरागाही समाज निश्चित ही स्वच्छनता की प्रव त्ति को उत्साही मन से भोग रहा था, इसलिए उसके समक्ष जहाँ पशुओं सम्बन्धी समस्याएँ थीं और चरागाहों पर नियन्त्रण रखनेवाली सत्ता या राजा से संघर्ष भी अनिवार्य था, वहाँ पति और पत्नी में बिलगाव से सन्तति के बँटवारे की समस्या प्रधान थी।

इस दृष्टि से धर्मासाँवरी गाथा का सामाजिक महत्त्व तो है ही, साथ ही न्याय करनेवाली पंचायतों में पुरुष का स्वामित्व और नारी की उपेक्षा तथा वीरता और सुन्दरता का पारस्परिक आकर्षण से सामाजिक यथार्थ का पता चलता है। परसा द्वारा मामा की खोज की यात्रा में चरागाही संस्कृति के दृश्य भी लोकजीवन के क्रिया-कलापों का संकेत देते हैं।

‘गहनई’ में चरागाही संस्कृति करुण वियोग की भावुकता से रंजित होकर बार-बार युद्ध की उस विभीषिका की याद दिलाती है, जिसमें ग्वालिन का पति पत्थर बना दिया गया है। उससे निष्ठुर सत्ता या राजा के प्रति मूक विद्रोह की भावना का रिस-रिसकर फैलना गाथा को महत्त्वर्पूण बना देता है। ग्वालियन की बार-बार करुण पुकार युद्ध के प्रति गहराने में सक्षम सिद्ध हुई है।

‘परसा’ गाथा ‘धर्मासाँवरी गाथा की विकसनशीलता का परिणाम है, लेकिन उसमें परसा और रिछरिया की वीरता ‘अल्हा’ गाथा की वीरता का मार्ग प्रशस्त करने में सहायक हुई है। यदि ‘धर्मासाँवरी’ की विकसनशील प्रवत्ति में निहित तत्त्वों का अनुशीलन किया जाए तो ‘‘आल्हा’’ की महाकाव्यात्मक काया को रचतीं विभिन्न गाथाएँ ‘धर्मासाँवरी’ का विकास सिद्ध होती हैं।

इतना अवश्य है कि उनमें देश के तत्कालीन इतिहास के प्रति जागरूकता के कारण असाधारण वीरता का उत्कर्ष समा गया है और सर्वत्रा संघर्ष या युद्ध की अनिवार्यता की दुंदुभि बजी है। लोकसंगीत की दष्टि से भी एक विकासमूलक परम्परा का पता चलता है। कारसदेव की गाथा में ‘‘गाहा’’ का आधार लिया गया है, लेकिन उसकी गायन शैली कुछ कथनात्मक और कुछ एक ही स्वर-सन्निवेश वाली सबसे प्राचीन है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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4 COMMENTS

  1. […] बुंदेलखंड की चारागाही लोक संस्कृति सूत्रधार shri Lakhanlal Yadav  ने अपनी परंपरागत लोक कला दिवारी पाई डण्डा Divari Pai Danda का प्रदर्शन भारत ही नही अपितु अनेक देशो में किया और सम्मान प्राप्त किया। बुन्देलखण्ड आदिकाल से अनेक लोक कलाओं को अपने हृदय में सजोय हुए उसका संरक्षण संवर्धन करते हुए, पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी परंपराओं का निर्वहन करते हुए,  आज भी लोक मानस के हृदय में बसी हुई है। […]

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