Chandel Kalin Veshbhusha का आधार मूर्तियों से वस्त्रों का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। महोबा में प्राप्त सिंहनाद अवलोकितेश्वर से प्रतीत होता है कि पुरुष अधोभाग में घुटन्ना और ऊर्ध्वभाग में अंशुक या उपरना पहना करते थे। अधोभाग में नीचे तक की लहरियादार धोती के भी प्रमाण मिलते हैं, जिसे बुंदेलखण्ड में ’कुचीताला‘ कहते हैं।
इस तरह का वस्त्र चंदेली और कलचुरी मूर्तियों में अत्यंत कलात्मक ढंग से उत्कीर्ण किया गया है। जाँघिये या घुटन्ने का प्रयोग भी होता था। भेड़ाघाट के गौरीशंकर मंदिर में नर्तित गणेश की प्रतिमा उत्तरीय और जाँघिया पहने है। वत्सराजकृत ’रूपकषटकम्‘ में योगपट्ट का उल्लेख है, जिसे बुंदेलखण्ड में आँचला या अँचरा कहते हैं और जो पीठ से घुटनों तक होता है।
तेवर में प्राप्त अवलोकितेश्वर की प्रतिमा इस परिधान से सुशोभित है। पायजामे का प्रचलन शुरू हो गया था, पर इस अंचल में उसका प्रयोग कम था। धोती, अँगोछा और दुपट्टा के साथ कूर्पासक या कुरती का प्रयोग होता था। पगड़ी तो प्रतिष्ठा का प्रतीक हमेशा बनी रही। ’आल्हा‘ की लोकगाथाओं में पगिया या पाग का उल्लेख कई बार हुआ है।
स्त्रियाँ अँगिया, चोली और फतुही जैसे वस्त्र ऊर्ध्वभाग में धारण करती थीं। भेड़ाघाट की एंगिनी योगिनी चोली जैसी और ऋक्षिणी अँगिया जैसी पहने हैं। स्त्रियों के कूर्पासक पूरी और आधी बाँहों के सामने से खुलनेवाले होते थे। उनके अधोवस्त्र लहरियादार और चुन्नटवाली लम्बे जाँघिया जैसी पैरों से सटी धोती या साड़ी होती थी, जो आज की देहाती दोकछयाऊ या कछोटादार धोतियों से मिलती-जुलती है।
पुरातत्त्ववेत्ता बेगलर ने चार प्रकार के अधोवस्त्रों का उल्लेख किया है (आर्के. सर्वे
रिपोटर्स, भाग 7, पृ. 57)-
1 – पेटीकोट जिसकी गाँठ सामने की ओर होती थी। उसमें बेलबूटे भी बने होते थे। उसका कपड़ा महीन होता था।
2 – लम्बा कपड़ा साड़ी के रूप में प्रयुक्त होता था।
3 – जाँघ के नीचे तक आने वाली धोती जैसा महीन वस्त्र, जिसकी ग्रंथि पीछे लगती थी।
4 – टखनों तक लटकनेवाला छोटा महीन वस्त्र। ’आल्हा‘ की लोकगाथाओं में ’नौलखा हार‘ की कथा-सी बुनी गयी है, जिससे स्पष्ट है कि हार गले का सर्वप्रिय आभूषण था। ’रूपकषटकम्‘ में भी वत्सराज की यही मान्यता है (कर्पूर, श्लोक 21)।
खजुराहो की मूर्तियों में कंठा के साथ-साथ खंगौरिया और हमेल जैसे आभूषण गले में सुशोभित हैं। एकावली भी बहुत लोकप्रिय थी। कलचुरी मूर्तियों में माला विशेष रूप में तिलड़ी माला सामान्य थी। पुष्पमालाओं का श्रृंगार भी होता था। कान में कर्णफूल (रूपकषटकम्, रुक्मि., शलोक 4, पृ. 57) और सिर में शीशफूल एवं बीज (वही, हास्य., पृ. 137) सभी स्त्रियाँ पहनती थीं। कटि में करधौनी हर चंदेली और कलचुरी मूर्ति में उत्कीर्ण है।
करधौनी में सात लड़ें होने के कारण उसे सतलड़ी कहलाने का गौरव मिला था। हाथों में अंगद या बरा, खग्गा, कंगन (वही, रूक्मिणी. श्लोक 13, पृ. 59), चूड़ियाँ और अँगूठी (वही, कर्पूर., पू. 29) तथा पैरों में नूपुर, साँकर या पायजेब जैसा आभूषण। (त्रिपुरी की योगिनी मूर्तियों में उत्कीर्ण), बिछिया और अनौटा पहने जाते थे।
महोबा से प्राप्त नीलतारा की प्रतिमा के आभूषण बहुत स्पष्ट हैं। उसके कानों में कर्णवलय या कुण्डल जैसा आभूषण काफी बड़े आकार का है, जिसका प्रचलन मध्ययुग में नहीं मिलता। खजुराहो की मूर्तियों में पुष्पों के आभूषणों के प्रचलन की पुष्टि होती है। वत्सराज के रूपकों में भी उनका वर्णन है।
इस समय पुरुष और बालक तोड़े, कड़े, कुण्डल, हार आदि पहनते थे। नाक का कोई आभूषण नहीं था, माथे पर टिकुली कंदरीय मंदिर की सुन्दरी प्रतिमा में अवश्य सुशोभित है। खजुराहो की मूर्तियाँ गवाह हैं कि इस काल में आँखों में अंजन, अधरों में अधरराग और पैरों में आलता या महावर का प्रयोग होता था। स्त्री और पुरुष, दोनों केश-प्रसाधन करते थे। प्रसाधन की इतनी विधियाँ थीं कि उनसे एक शास्त्र ही बन सकता है।
विवाहित स्त्रियों की माँग सिन्दूर-तिलकित होती थी, जबकि विधवाओं को सिन्दूर लगाना वर्जित था। ’रूपकषटकम्‘ के अनुसार अंगों पर चन्दन, कपूर आदि अंगराग लगाये जाते थे, पर वे उच्च वर्ग तक सीमित थे। पान-बीड़ा का सेवन सभी करते थे (रूपकषटकम्, कर्पूर., श्लोक 15, पृ. 28, हास्य. पू. 134), क्योंकि वह श्रृंगार-प्रसाधन में शामिल था। वेश्याएँ और कुल्टाएँ नकली अलंकरण धारण करती थीं (वही, पृ. 138)।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल