Homeबुन्देलखण्ड का इतिहास -गोरेलाल तिवारीBundelkhand Men Alibhadur Ki Nawabi बुन्देलखण्ड में अलीबहादुर की नवाबी

Bundelkhand Men Alibhadur Ki Nawabi बुन्देलखण्ड में अलीबहादुर की नवाबी

अलीबहादुर बॉदा में रहने लगे थे। उसने अपनी राजधानी वहीं बनाई। अलीबहादुर को पेशवा से सदा सहायता मिलती रही और Bundelkhand Men Alibhadur Ki Nawabi  के पैर जाम गए । इस तरह पेशवा का अधिकार फिर से बुंदेलखंड के राज्यों पर अलीबहादुर के द्वारा हो गया।

बुन्देलखण्ड मे राजाओं का प्रबंध ठीक न होने से जहाँ तहाँ जागीरदार स्वतंत्र राजा बनते जाते थे। सोनेशाह पवार पन्ना के राजा सरमेदसिंह  के जागीरदार थे। ये केरुआ नामह ग्राम में रहते थे परंतु पन्ना-नरेश ने प्रसन्न होकर इन्हें छत्ररपुर की जागीर दी थी। सोनेशाह धीरे धीरे अपनी जागीर के स्वतंत्र राजा बन गए। वीरसिंह  भी, जिन्हें गुमानसिंह ने बिजावर की जागीर दी थी, अब स्वतंत्र राजा बन  गए।

पृथ्वीराज को शाहगढ़ और गढ़ाकोटा का राज्य मराठों की सहायता से मिला था। मराठे पृथ्वीराज से चौथ लेते थे और  सदा इन्हें दबाए रखते थे। पृथवी राज के तीन पुत्र थे। इनके नाम किशनजू, नारायणजू और हरीसिंह थे। पृथ्वीसिंह के मरने पर किशनजू  राजा हुए, परंतु शीघ्र ही इनका देहांत हो  गया। किशनजू के पश्चात्‌ उनके भाई हरीसिंह संवत्‌ 1828  में राजा हुए।

हरीसिंह बड़े धार्मिक और ईश्वर थे । इनसे प्रजा संतुष्ट थी और इनका प्रबंध भी उत्तम था। इनका देहांत काशी में संवत्‌ 1842  में हुआ। इनके पश्चात्‌ इनके पुत्र मर्दन सिंह राजगद्दी पर बैठे। मर्दनसिंह ने राज्य-प्रबंध में बहुत उन्नति की। ये महलों के बनवाने के बड़े शौकीन थे। गढ़ाकोटा के निकट इनके बनवाए कई मकान पाए जाते हैं। गढ़ाकोटा में जो रहस अर्थात चौपायों का बड़ा भारी मेला  लगता है वह इनके समय से ही प्रचालन मे है।

मर्दनसिंह को मराठों का हस्तक्षेप पसंद नही था । मराठे चौथ के सिवा जब चाहे तव अधिक पैसा माँगा करते थे। जब मराठों की शक्ति अँगरेजों के युद्ध के कारण क्षीण हो गई तब मर्दन सिंह ने मराठों को चौथ देना बंद कर दिया। सागर के आबा साहब ने मर्दन सिंह को फिर से अपने अधिकार में करने के लिये सेना भेजी। मर्दन सिंह फे पास भी काफी सेना थी । इनके दीवान का नाम जालमसिंह था। जालमसिंह ने आबा साहब की सेना को गढ़ाकोटा के निकट हरा दिया और मराठों को सेना को वापिस जाना पड़ा।

आाबा साहब ने फिर से अपनी सेना मर्दनसिंह से युद्ध करने के लिये भेजी । इस समय आबा साहब स्वयं  युद्धक्षेत्र में पहुँच गए। मर्दन सिंह को सेना  ने आबा साहब को इस बार भी हरा दिया। इस युद्ध के समय मर्दन सिंह को नागा लोगों ने सहायता दी थी ।

मराठों का इस प्रकार शाहगढ और गढाकोटा के राजा मर्दन सिंह ने हरा दिया और मर्दनसिंह का राज्य मराठों से स्वतंत्र हो गया। अन्य बुंदेले राजाओं ने भी मर्दनसिंह का अनुकरण किया और  मराठों को चौथ देना बंद कर दिया । सारे बुंदेलखंड से मराठों की सत्ता उठने लगी। ऐसे संकट के समय बुंदेलखंड के मराठों ने पूना से सहायता मॉगी। पूना  से सहायता के लिये बढ़ी भारी सेना भेजी गई।  इस सेना का नायक अलीबहादुर था।

आलीबहादुर बाजीराव पेशवा के बंश का था। जिस समय बाजीराव पेशवा को महाराज छत्रसाल  ने अपने राज्य का तृतीयांश दिया उस समय बाजीराव के साथ पन्ना दरबार की राज नृत्यांगना की पुत्री मस्तानी,  पेशवा के साथ चली गई। बाजीराव पेशवा  इसे बहुत चाहते थे और इसके गर्भ से बाजीराव पेशवा का एक पुत्र शमशेरबहादुर नाम का हुआ।

शमशेरबहादुर ने पानीपत के युद्ध में सेनानायक का काम किया था और उसकी मृत्यु उसी युद्ध में हुई। शमशेरबहाहुर के लड़के का नाम अलीवहादुर था। यही आलीबहादुर पूना से मराठों की सहायता के लिये बुन्देलखण्ड में भेजा गया।

पूना में नाना फड़नवीस के कहने के अनुसार राज्य-कार्य चलता था। ये सिंधिया  को अपने अधिकार में कर लेना चाहते थे। सिंधिया की शक्ति इस समय बहुत बढ़ गई थी और उनकी बढती शक्ति के कारण पेशवा को भी डर लगने लगा था। सिंधिया का राज्य उत्तर  हिंदुस्तान में फैला  हुआ था और बादशाह शाह आलम से भी सिंधिया की मित्रता थी ।

सिंधिया ने बादशाह शाह आलम  को सहायता देकर बादशाह के दुश्मन गुलाम कादिर को हरा दिया था। इससे बादशाह  ने सिंधिया को कई उपाधियां  भी  दी थीं। नाना फड़नवीस आलीबहाहुर पर बहुत विश्वास करते थे और  सिंधिया  की  शक्ति को हीन करने का उद्देश्य अलीवहाहुर को बतला दिया गया था।

नाना फड़नवीस का यह उद्देश्य सबको न बतलाया गया था। प्रकट रूप से नाना फड़नवीस ने होल्कर और सिंधिया को मित्रता बताते हुए पत्र भी लिख दिए और  उनमें सिंधिया और होल्कर को अलीबहादुर की सहायता करने का आदेश दिया ।

अलीवहादुर संवत्‌ 1846  में बुन्देलखण्ड  पहुँचा । अलीबहादुर ने पहले हिम्मतबहादुर (उर्फ अनूप गिर ) को मिलाया। हिम्मतबहादुर को जब सिंधिया ने हरा दिया तब वह  सिंधिया को सेना में नौकर हो गया। हिम्मतबहादुर को बुंदेलखंड के बारे मे सब मालुम था और अलीबहादुर किसी प्रकार हिम्मतबद्दादुर से मित्रता कर लेना चाहता था।

हिम्मतबहादुर बड़ा लालची था । उसने अपना लाभ अलीबहादुर की मित्रता मे समझा । उसने सिंधिया की नौकरी छोड़ दी और अलीबहादुर का सहायता देने का वचन दे दिया। अलीबहादुर ने हिम्मतबहादुर को  देश का कुछ भाग देने का वचन दिया और  हिम्मतबहादुर ने अलीवहादुर को बाँदा का नवाब बना देने की प्रतिज्ञा की ।

आलीबहादुर के साथ पूना से बहुत सी सेना भेजी गई थी । कई मराठों के प्रसिद्ध सरदार अलीबहादुर के साथ आए थे। इस बड़ी सेना की सहायता के लिये हिम्मतबहादुर की बीस हज़ार सैनिकों की सेना भी मिल गई। जब सिंधिया ने देखा कि हिस्मतबहादुर अलीबहादुर के पास चला  गया तब उन्होंने अलीबहादुर को एक पत्र लिखा और हिम्मतबहादुर को वापिस माँगा, परंतु अलीबहादुर ने  हिम्मतबहादुर का नही  दिया ।

बाँदा में इस समय बखतसिंह का राज्य था। बखतसिंह  संबत्‌ 1835 मे गुमानसिंह के मरने पर राज-गद्दी पर बैठे थे। गुमानसिंह के कोई पुत्र नही था इसलिये उन्होंने अपने संबंधी दुर्गा सिंह के पुत्र बखतसिंह को  गोद लिया था। जिस समय बखत सिंह राजगद्दी पर बैठे उस समय उनकी उम्र बहुत कम थी। इनकी ओर से राज्य-कार्य  इनके दीवान  पर सेनापति नोने अर्जुन सिंह देखते थे ।

नोने अर्जुन सिंह गुमानसिंह के बड़े विश्वासी नौकर थे और  इनकी योग्यता बुंदेलखंड भर मे विख्यात थी।   इनके पिता जैतपुर राज्य के जागीरदार थे और कुंवरपुर नामक ग्राम में रहते थे । यह गाँव अब सुंगरा कहलाता है। अर्जुनसिंह साधुओें की सेवा किया करते थे और एक साधु ने इन्हें वरदान भी दिया था।

अर्जुन सिंह पहले चरखारी के राजा के यहाँ नौकर थे। परंतु चरखारी के राजा से इनकी अनबन हो गई इसलिये ये फिर बाँदा के राजा के यहाँ नौकर हो गये। इन्होंने हिम्मतबहादुर को हरा के यमुना के पार भगा दिया था। जब गुमानसिंह और  चरखारी के राजा खुमानसिंह के बीच मे युद्ध हुआ तब अर्जुन सिंह  ने खुमानसिह को हराया और  युद्ध मे खुमानसिंह की मृत्यु भी हुई। अर्जुन सिंह ने गठेवरा के बड़े युद्ध मे भी विजय पाई थी।

बखतसिंह  छोटे थे इससे अर्जुन सिंह  उन्हें लेकर अजय गढ़ में रहने लगे । चरखारी के राज्य से भी इस समय अनबन थी। अलीवहादुर और हिम्मतबहादुर ने अजयगढ़  पर आक्रमण किया। नोने अर्जुन सिंह  ने हिम्म्तबहादुर से युद्ध किया। यह युद्ध अजयगढ़ और  बनगाँव के बीच के मैदान में हुआ।  इस युद्ध में अर्जुन सिंह  मारे गये और हिम्मतबहादुर की जीत हुई। युद्ध के पश्चात्‌ बॉदा पर अलीबहादुर  का अधिकार हो गया। यह युद्ध वि० सं० 1848  वैशाख बदी 12  बुधवार ( 18-4 -1772  ) को हुआ था।

अर्जुनसिंह बुंदेलखंड के बड़े वीर पुरुष गिने जाते थे । परन्तु इनके पास अधिक सेना न होने से इनकी हार हुई। अलीबहादुर और  हिम्मतबहादुर के पास असंख्य सेना और धन था । इस सेना से सामना करना एक वीर के लिये कठिन काम था। अर्जुन सिंह  की वीरता अभी तक बुंदेलखंड में प्रसिद्ध है। अर्जुन सिंह सदा ही सच्चे स्वामिभक्त बने रहे। उन्होंने हिम्मत बहादुर के समान नमकहरामी नहीं की। हिम्मतबहादुर ने अपने स्वार्थ के लिए जिसका सहारा लेना बेहतर जान पड़ा ले लिया।

अर्जुन सिंह की हार के पश्चात्‌ अलीवहादुर और  हिम्मतबहादुर का डर सारे बुंदेलखंड में हो गया। चरखारी का राज़ा हिम्मतबहादुर का सहायक था परंतु फिर जान पड़ता है कि चरखारी के राजा से भी  अनवन हो  गई। क्योंकि हिम्मतबहादुर ने फिर चरखारी पर भी चढ़ाई की थी। चरखारी के राजा की सहायता को विजावर के वीरसिंह भी पहुँचे थे। इस युद्ध में वीरसिंह की मृत्यु चरखारी के पास हुई। इससे चरखारी और विजावर के राजा अलीबहादुर के अधीन हो गए। वे इन राज्यों के राजा बने रहे , पर अलीबहादुर  को चौथ  देने लगे ।

इसी प्रकार अलीबहादुर ने छतरपुर आदि राज्यों को हराया और वहाँ के राजाओं ने भी अली बहादुर के अधीन रहना स्वीवीकार किया। पन्ना में बेनी हजूरी के पुत्र राजधर ने अलीबहादुर से युद्ध किया परंतु अलीबहादुर ने उसे भी हरा दिया और पन्ना के राजा को अधिकार में कर लिया।

अर्जुनसिंह के मरने पर बखतसिंह भागे और  बॉदा और  अजयगढ़ पर अलीबहादुर  का अधिकार हो  गया। अलीबहादुर  ने बाँदा के नवाब का विरुद धारण किया। बखतसिंह ने अपनी जीविका का कोई उपाय न देख अलीबहादुर के यहाँ नौकरी कर ली । अजयगढ़ का राज्य फिर अँगरेजों ने बलतसिंह को दिया ।

अलीबहादुर बॉदा में रहने लगा । उसने अपनी राजधानी वहीं बनाई। अलीबहादुर को पेशवा से सदा सहायता मिलती रही और अलीबहादुर  पेशवा के अधीन रहा । इस तरह पेशवा का अधिकार फिर से बुंदेलखंड के राज्यों पर अलीबहादुर के द्वारा हो गया।

अलीबहादुर के पास यशवंतराव नाम का एक बड़ा सैनिक था। इसके साथ दस हजार लोगों की सेना देकर अलीबहादुर ने इसे वि० सं० 1853 में रीवॉ पर आक्रमण करने भेजा । उस समय रीवाँ में बघेल राजा अजीतसिंह राज्य करता था। इसने अपनी सेना कलींदरसिंह कल्लचुरी के सेनापतित्व में भेजी । रीवॉ की सेना यशवंतराव की सेना से हार गई।

अंत में राजा ने एक लाख रुपया नकद देकर अलीबहादुर से संधि कर ली । वि० सं० 1860  में मराठों की चढ़ाई को रोकने के लिए अँगरेजी सेना मुकुंदपुर मे कुछ दिनों तक पड़ी रही। पर कुछ, लोगों का  ऐसा मत है कि वि० सं० 1853  के युद्ध मे आली बहादुर को नीचा देखना पड़ा था इससे उसका दबदबा बुंदेलखंड से उठ गया। इससे यहाँ के राजा लोग आली बहादुर से स्वतंत्र होने का प्रयत्न करने लगे।

यह सब  देखकर अली बहादुर बहुत घबराया और पूना के पेशवा से सहायता माँगने के लिये उसने दूत भेजा। हिम्मतबहादुर ने अलीबहादुर को हिम्मत दी और उसने भी सेना तैयार करने का काम आरंभ कर दिया। कुछ दिनों के पश्चात्‌ पूना से भी सहायता आ पहुँची । इस सेना की सहायता से अलीबहादुर ने पहले जैतपुर पर आक्रमण किया । जैतपुर में इस समय गजसिंह का राज्य था। गजसिंह ने भी अलीबहादुर से लड़ने की तैयारी कर ली थी । परंतु अलीबहाहुर ने जैतपुर की सेना को हरा दिया और जैतपुर के राजा को निकाल कर उस राज्य पर अधिकार कर लिया। अजयगढ़ में कुछ सेना ने अलीबहादुर से लड़ने का प्रयत्न किया परंतु इस सेना को भी अलीबहादुर ने अच्छी तरह से हरा दिया ।

बुन्देलखण्ड  में अपना अधिकार जमाने के बाद अलीबहाहुर ने रीवाँ पर यशवंतराव की मृत्यु का बदला  लेने के लिये चढ़ाई की।   रीवा के राजा को हिस्मतबहादुर ने हरा दिया। रीवॉ-नरेश ने अलीबहादुर  को प्रति वर्ष बारह लाख  रुपए चौथ के रुप में देने का वचन दिया।

 

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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