बुंदेलखंड में रामलीला मंचन की परंपरा बहुत पुरानी है। Bundelkhand Me Ramlila Parampara का आरम्भ ईसा की तीसरी-चैथी शती में हो चुका था और उसका प्रमुख केन्द्र था चित्रकूट। पहाड़ों से घिरा होने से चित्रकूट अधिक सुरक्षित था और अयोध्या के विनष्ट होने पर रामभक्तों की साधना भूमि चित्रकूट बन गया था। बुंदेलखंड का क्षेत्र पहाड़ों और जंगलों से घिरा होने के कारण जंगलों के बीच में बसे हुए ग्रामीण इलाकों में रामलीला का प्रचलन धीरे-धीरे बढ़ने लगा था।
चित्रकूट के आस-पास बसे राउत कलाप्रिय थे और लोकनाट्यों के अभिनय में रुचि लेते थे। कालपी में उत्तरभारत का बहुख्यात रंगमंच था और कालपी के सूर्य मंदिर में भवभूति के प्रसिद्ध नाटक ’उत्तर रामचरित‘ का मंचन हुआ था।
Bundelkhand Me Ramlila Parampara के अनेक उल्लेखों से स्पष्ट है कि इस प्रदेश में लोकनाट्यों के प्रति काफी लगाव था। स्वयं तुलसी चित्रकूट-प्रसंग में स्वाँग का उल्लेख करते हैं, जिससे जाहिर है कि वे लोकनाट्यों के प्रति सचेत अवश्य थे और उन्होंने उन्हीं से रामचरित लिखने की प्रेरणा ली थी।
रामलीला का स्वरूप
रामचरित को स्वयं तुलसी दास ने लीला कहा है और रामचरित का लीला-रूप भले ही रासलीला से भिन्न रहा हो, उसके समानान्तर चलता रहा है। वह अभिनय-प्रधान था, इसलिए यहाँ के लोकनाट्य स्वाँग से मेल खाने के कारण उसी से निःसृत हुआ था, जबकि रासलीला नृत्यप्रधान है और वह रास का ही विकास-रूप था। इस आधार पर यह कहना सही नहीं है कि रासलीला से प्रेरणा लेकर रामलीला का उद्भव हुआ था।
इस जनपद में रामलीला की परम्परा स्वाँगों में विद्यमान थी। आज भी रामलीला में एक-दो स्वाँगों की योजना रहती है। यह बात अलग है कि ’रामचरितमानस‘ की लोकप्रियता के कारण रामलीला का पूर्व नाट्यरूप उससे जुड़कर एक नवीन स्वरूप पा गया। इस प्रदेश में जहाँ कथा की बुनावट अधिकतर ’मानस‘ के आधार पर है, वहाँ संवादों में ’मानस‘, ’रामचंद्रिका‘, ’राधेश्याम रामायण‘ आदि ग्रंथों के अंशों के अलावा क्षेत्रीय कवियों के चुने हुए छंद हैं।
रासलीला की तरह रामलीला का मंच खुला चबूतरा, मंदिर का प्रांगण और गाँव की चैपाल होता है, लेकिन पर्सियन मंच के प्रभाव से अब उसमें विविध परदेदार सज्जा एवं चमत्कार सम्मिलित हो गये हैं। कथा का गायन समाजी किया करते थे और अधिकतर उसी परम्परा का निर्वाह हो रहा है, फिर भी कहीं-कहीं उन्हें छोड़ दिया गया है। पात्रों की वेशभूषा और सज्जा उनके चरित के अनुरूप होती है। रावण, मेघनाथ, हनुमान, जामवंत, सुग्रीव आदि पात्रों में मुखौटों का प्रयोग होता है और राम की तरफ से वानर लाल तथा राक्षस काली पोशाक धारण करते हैं।
मतलब यह है कि कुछ सज्जा प्रतीकात्मक है और कुछ व्यक्तित्व के अनुकूल। संवाद ज्यादातर पद्यबद्ध और लयात्मक रहते हैं, पर गद्य का प्रयोग कम नहीं है। स्रोत से जुड़ाव होने पर भी अभिनय का तत्व प्रमुख स्थान पाता है। पर्सियन नाट्य-शैली से प्रभावित होने पर गीतों और नृत्यों का समावेश भी होता गया, लेकिन वर्तमान में नाटकीयता पर अधिक जोर देने से कहीं-कहीं रामलीला परिनिष्ठित नाटक के रूप में बदल गई है। अब रामलीला का रंगरूप तीन तरह का हो गया है।
1 – ग्रामीण रामलीला
जो आज भी लोकनाट्य की जमीन को अच्छी तरह पकड़े हुए है और जिसमें आंचलिक रंग निखरा हुआ है। उसके पात्र जितने लोकसहज हैं, उतने ही उनके संवाद। उनके राम और उनका परिवेश जितना मानस के राम से बँधा है, उतना ही लोक के राम की तरह स्वच्छन्द है। गाँव का कवि भी उसमें भागीदार है और मसखरा भी।
गीतों में बुन्देली गारियाँ तक गायी जाती हैं, राम-विवाह में पेटू राजा की कल्पना स्थानीयता का सुफल है और उसकी यथार्थपरक उक्तियों में लोकजीवन की वास्तविकता झलकती है। ऐसे प्रसंगों की उद्भावना (Origin) भी हुई है, जो लोकजीवन के दृश्यखण्डों को खड़ाकर यथार्थ का दर्शन कराते हैं।
वस्तुतः इस लोकनाट्य में लोक-कलाकारों ने आदर्श की स्थिरता के बीच यथार्थ की रसमयी धारा बहाकर जन मानस की कथा को लोक के ढाँचे में ढालकर उसे नयी गति दी है। उनके इस प्रयत्न में रामलीला फिर कुछ स्वाँगों से जुड़ गई है।
पेटू राजा और कुन्जरा-कुन्जरियन जैसे स्वाँग बीच-बीच में जोड दिये गए हैं। इससे स्पष्ट है कि रामचरित पर आधारित स्वाँगों से रामलीला की अभिनेयता और ’रास‘ से प्रेरित उसकी संगीत-नृत्यपरकता विकसित हुई है तथा दोनों के समन्वय से उसका एक विशिष्ट लीला-नाट्य-रूप बना है।
2 – नागर रामलीला/ शहरी रामलीला
शहरी रामलीला जो नगर की नाट्य चेतना से सम्बद्ध रही है और जिसमें नागर लोकरुचि के अनुसार परिवर्तन हुए हैं। कहीं-कहीं पर्सियन नाट्य-शैली का प्रभाव है, तो कहीं फिल्म की संगीत-शैली का। बड़े नगरों में सचेतन कलाकारों के द्वारा काफी काट छांट की गयी है और उसके कलात्मक या नाटकीय स्वरूप को ही प्रदर्शन के लिए स्थिर किया गया है अथवा लोकचेतना के नवीन प्रत्यावर्तन से संप्रेरित होकर रामलीला को लोकनाट्य के रूप में पुनप्रतिष्ठित करने की कोशिश में नये प्रयोग हो रहे हैं।
3 – कस्बाई रामलीला/कस्बाई क्षेत्र
कस्बाई रामलीला में उपर्युक्त दोनों नाट्यरूपों का समन्वय मिलता है। उसमें चमत्कारी दृश्य-योजना से लोक को बाँधने का प्रयत्न रहता है, जैसे तार द्वारा हनुमान जी का आकाश में उड़ना या मृत मेघनाथ के हाथ का सती सुलोचना के पास गिरकर पत्र लिखना।
कुछ ऐसे खोजपूर्ण प्रसंग परम्परित कथा के साथ जोड़ना, जो दर्शकों में उत्सुकता पैदा करें, कुछ आंचलिक स्वाँगों को बीच में गूँथना, जो मनोविनोद से प्रफुल्लित करें, और फिल्मी धुनों पर भक्तिपरक या प्रसंगोचित गीतों का गायन करवाना, जो युवकों को आकर्षित करें। इस तरह ये लीला-नाट्य के नये पहलू हैं। साज-सज्जा, पात्रों का श्रृंगार, परदों की विविधता, रंगीन प्रकाश आदि अभिनय की लापरवाही ढँकने के लिए प्रभावी माध्यम बन गये हैं।
ग्रामीण और कस्बाई रामलीलाओं में गंगा पार उतरना, केवट-लीला, भरत-मिलाप आदि कुछ प्रसंग मंच से बाहर नदी या सरोवर तट, किसी विशिष्ट मैदान या स्थल जैसे प्राकृतिक परिवेश में खेले जाते हैं, जिससे लोकहृदय स्वाभाविकता के रंग से रंजित हो जाता है। दूसरी विशेषता यह है कि नारी पात्रों का अभिनय सुन्दर किशोर इतनी सफलतापूर्वक करते हैं ।
उनके पाठ से उन्हें पुरुष कहना कठिन है। तीसरे, रामलीला में रामचरित के अनुरूप मर्यादोचित गम्भीरता आज भी पोषित है। चैथे, ग्रामीण रामलीला में पात्रों की वेशभूषा सहज उपलब्ध वस्त्रों से और श्रृंगार स्थानीय पदार्थों, जैसे रोली, मुर्दाशंख, खड़िया, गेरू, चंदन आदि से सुशोभित स्वाभाविक प्रतीत होता है।
कस्बों और नगरों में प्रसाधन के उपकरण काफी बढ़ गये हैं और स्वाभाविकता की खोज में कृत्रिमता आगे आ गई है। इसी तरह भभके और मशालों की जगह गैस बत्तियाँ और फिर बिजली के विविध उपकरणों का विकास-क्रम है।
इस तरह कहीं विकास की स्थिति है, तो कहीं गिरावट की। चिन्ता का विषय यह है कि सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक सहज स्वाभाविक लोकनाट्य अब बनावटी बुनावट के फंदों में फँसता जा रहा है और लोकनाट्य में नवीन प्रयोगों की पक्षधरता के हाथ में न वह लोकनाट्य रह गया है और न नाटक ही।
व्यावसायिक मंडलियों ने तो प्रतियोगी भाव के कारण कुछ ऐसे अस्वाभाविक चमत्कारपूर्ण दृश्य, प्रसंग और नाटकीय मोड़ अपनाये हैं, जिससे लोकनाट्य का असली स्वरूप आहत हुआ है। इसके बावजूद आज रामलीला के सही रूप को परखने और उसे प्रस्थापित करने की जागरूकता से आशा की किरण फूटती दिखाई पड़ रही है।
रामयण काल में ही चित्रकूट रामसंस्कृति का केन्द्र बन गया था। अयोध्या पर बाहरी आक्रमण होने से सभी रामभक्त संत सुरक्षा के लिए चित्रकूट में आ बसे थे। चित्रकूट पर्वतों और वनों से घिरा होने के कारण चारों ओर से सुरक्षित था। कविवर रहीम ने तो यहाँ तक कह दिया था –‘जापर विपदा परत है, सो आवत इहि देस’। धीरे-धीरे चित्रकूट रामसंस्कृति की आत्मा बन गया, तभी तो तुलसी दास ने कहा था -‘अब चित चेत चित्रकूटहिं चल’।
रामसंस्कृति की प्राचीनता बुन्देलखण्ड के सांस्कृतिक इतिहास में ऐसे प्रामाणिक साक्ष्य लिते हैं, जो यह सिद्ध कर देते हैं कि इस जनपद में रामसंस्कृति अधिक प्राचीन है और राम की लीलाओं के अंकन यहाँ की मूर्तिकला के विशिष्ट अंग रहे हैं।
वाल्मीकि के महाकाव्य -‘रामायण’ से स्पष्ट है कि इस जनपद की वन्य जातियों ने राम जैसे वीर का स्वागत करना अपने हित में जरूरी समझा था। शबरी की प्रतीक्षा शबरों और सौंरों की ही नहीं, सभी आटविक जातियों की थी। जब राम आये तब रामसंस्कृति भी आई और जब राम का स्वागत हुआ, तब रामसंस्कृति की प्रतिष्ठा हुई।
बुंदेलखण्ड की प्राचीन रामलीलाएँ
बुंदेलखण्ड की प्राचीन रामलीलाओं मे चित्रकूट और कालिंजर की रामलीलाएँ सबसे पुरानी हैं। राउतों के लोकनाट्यों में इस जनपद की मूल प्रवृत्ति के अनुरूप वीर रस की प्रधानता थी। बुंदेलखण्ड चंदेली राज्य के बाद सदैव युद्धग्रस्त रहा है। घरेलू संघर्ष और बाहरी आक्रमणों ने भक्ति तक को वीररसात्मक बना दिया था।
1023 ई. सेलेकर 16वीं शती तक बाहरी आक्रमणों के घाव सहे हैं और चित्रकूट की कोल, भील और किरात तथा वन्य जातियों ने रामकाल से ही राक्षसी हमलों को झेला है। यही कारण है कि यहाँ के पर्वतों, झरनों, वृक्षों और प्रकृति ने भी पौरुषेय वीरत्व को अपना लिया है। महाकवि तुलसी ने इसे महसूस किया था और सजग होकर अपनी ‘मानस’ में कामद गिरि के चित्रण से लेकर रावण के वध तक अंकित करने की योजना बनायी थी।
यह निश्चित है कि तत्कालीन परिस्थितियों में ‘मानस’ के राम का वीरत्व यहीं से शुरू हुआ था और यह भी निश्चित है कि तुलसी-काल की परिस्थितियों के उपचार के लिए तुलसी की भक्ति यहीं वीररसात्मक हुई थी। ‘मानस’ की आत्मा में राम की वीरत्वव्यंजक मूर्ति ही रही है, जिसकी प्रेरणा कवि को इसी जनपद और खास तौर से चित्रकूट के परिवेश, उसकी संस्कृति और साहित्य से मिली थी।
यहाँ लोक द्वारा प्रचलित और लोक में प्रदर्शित रामकथा में कवि को अपनी योजना का सूत्र दिखा था और इसके प्रामाणिक साक्ष्य हैं- (1) राउतों द्वारा मंचित रामकथापरक लोकनाट्य एवं (2) कालिंजर की रामलीला। लोकनाट्यों में राम और रावण की सेना में गाँव के पुरुष विभाजित होकर युद्धरत होते थे।
कालिंजर की रामलीला
कालिंजर में दशहरा के दिन मेला की रामलीला में एक महायुद्ध का दृश्य उसके समय खड़ा हो जाता था, जब गाँवों के लोग बानर वेश में रामसेना में तथा शिवाओं और योगिनियों के वेश में रावण-सेना में सम्मिलित हो जाते हैं। मेला में पूरे मैदान में राम, लक्ष्मण, हनुमान आदि अपनी सेना के साथ तथा रावण, कुंभकर्ण, मेघनाथ आदि अपनी सेना लिए घूमते हैं और दोनों के मध्य शिवाओं एवं योगिनियों के दल। सभी की ललकारों और युद्ध की मुद्राओं से ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत बड़ा युद्ध हो रहा हो।
बुंदेलखण्ड की रियासतों की रामलीला
बुंदेलखण्ड की रियासतों-चरखारी, पन्ना, छतरपुर, ओरछा, बिजावर, मैहर आदि ने रामलीलाओं के आयोजन प्रारम्भ किये थे। रियासतों के राजकोश से संचालित होने के कारण लीलाओं के स्वरूप राजसी थे और राजसी उपकरणों से सज्जित होने के कारण राजसी वैभव का प्रदर्शन होताथा।
उस समय रियासतों के बीच होड़ होती रहती थी, जिससे प्रतिद्वन्द्विता का वातावरण रहता था और जनता की प्रशंसा लूटने के लिए राजसी सजधज और अलंकरण का अधिक प्रचार था। फिर भी उन रामलीलाओं की विशेषता थी उनका साहित्यिक जुड़ाव।
भले ही उनका मूल आधार रामचरितमानस के छंद थे, परन्तु केशवकृत रामचंद्रिका के संवादों, राधेश्याम रामायण की प्रासंगिक पंक्तियों और स्थानीय कवियों के सटीक छंदों के बिना कोई भी लीला मंचित न होती थी। यहाँ तक कि कोई स्थानीय और विश्वस्त कवि रामलीला का लेखन करता है और उसमें अपने छंद एवं गीत सम्मिलित कर देता है।
उदाहरण के लिए, अयोध्या के महात्मा ने ’मानस‘ के आधार पर बुंदेली गद्य और पद्य में मैहर की रामलीला के लिये पूरी पोथी (पाण्डुलिपि) स्वयं तैयार की थी। चित्रकूट की नयी रामलीला 1837 ई. में मौनी बाबा द्वारा स्थापित हुई थी। पहले राम, सीता,लक्ष्मण आदि की झाँकी ही बनती थी, बाद में लीलाओं का मंचन शुरू हुआ। दैवी पात्रों को भगवान का स्वरूप समझकर पूरा सम्मान किया जाता था और लीला को धार्मिक अनुष्ठान के रूप में ग्रहण किया जाता था। पूरा क्षेत्र राममय होकर श्रद्धा और मर्यादा में डूबा रहता था।
बुन्देली झलक ( बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य )
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल