Homeबुन्देलखण्ड का इतिहास -गोरेलाल तिवारीBundelkhand Me Marathon Ka Rajya बुन्देलखण्ड में मराठों का राज्य

Bundelkhand Me Marathon Ka Rajya बुन्देलखण्ड में मराठों का राज्य

मराठों को छत्रसाल  महाराज के राज्य का वह अंश मिला था जे दक्षिण में सिरोंज से लेकर उत्तर की ओर यमुना नदी तक चला  गया है। Bundelkhand Me Marathon Ka Rajya यमुना नदी के पार तक पहुँच गया। इनके पास इस समय बहुत बढ़ी सेना थी। उसके डर से मुसलमान लोग भी कॉपने लगते थे।

मल्हारराव होल्कर,  बाजीराव पेशवा के एक सरदार थे। विक्रम संबत्‌ 1772  में मल्हारराव ने बुंदेलखंड से आगरा  तक धावा मारा और मुजफ्फरखाँ और खान दौरान को हराकर उनके अधिकार का बहुत सा प्रदेश अपने अधिकार में कर लिया। छत्रसाल महाराज के पुत्र जगतराज और हृदयशाहजी, जैतपुर और पन्ना राज्य के अधिकारी हुए थे, वे मराठों को सदा सहायता देते रहे  । इनकी सहायता से मराठों ने संवत्‌ 1763  में मथुरा, इलाहाबाद, इटावा इत्यादि स्थानों पर धावे किए।

इस कार्य में छत्रसाल महाराज के द्वितीय पुत्र जगतराज, जो जैतपुर राज्य के अधिकारी थे, विशेष सहायक हुए । जब दिल्ली दरबार मे यह खबर पहुँची तब बादशाह ने जगतराज से युद्ध करने का हुक्म दिया। अभी तक जितने मुसलमान सरदारों ने बुंदेलों से युद्ध किया था उनमे सबसे योग्य मुहम्मद खाँ  बंगश ही निकला  था। इसलिये दिल्ली दरबार की ओर से इसी मुहम्मद्खाँ को बुंदेलों  से लड़ने का हुक्म दिया गया।

मुहम्मदखाँ  बंगश दिल्ली दरबार की आज्ञा पाते ही  बड़ी भारी सेना तैयार करके बुंदेलखंड पर आक्रमण करने को तैयार  हुआ।  इसको खबर जगतराज महाराज को लग गई और उन्होंने भी अपनी सेना तैयार की।  |बाजीराज पेशवा का भी संधि के नियमों के अनुसार कर्तव्य  था कि वे जगतराज महाराज की सहायता करें। इस कारण बाजीराव पेशवा भी अपनी बड़ी सेना लेकर बुंदेलों  की सहायता के लिये आए।

बुंदेलों से और मुहम्मद्खाँ बंगश से विक्रम संवत्‌ 1773  मे जैतपुर के समीप फिर से युद्ध हुआ।  |इस युद्ध मे बुंदेलों  और मराठों ने मिलकर मुहसम्मदखाँ  वंगश को अच्छी तरह से हरा दिया। जगत राज महाराज पेशवा की सहायता से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने पेशवा को  कई लाख रुपए दिए और उन्हें अपने राज्य की चौथ देना स्वीकार किया।

पेशवा के साथ मुसलमानों से युद्ध करने के लिये कई सरदर  आए थे । इनको उचित पुरस्कार देना पेशवा का कर्तव्य था। पेशवा को इस बार बुंदेलों को सहायता करने के बदले मे बहुत सा धन और  बहुत से इलाके की चौथ मिलने लगी थी। इसलिये पेशवा ने अपने सरदारों को बुन्देलखण्ड  के मिले हुए सूबे शासन करने के लिये बाँट  दिए।

गोविंद बल्लाल खेर बड़ा ही पराक्रमी सरदार था। इसको पेशवा ने सागर और जालौन का प्रवंध, वि० सं० 1782  मे, अपने भतीजे की ओर से सौंपा । हृदयशाह ने हीरे की खदान में काम करने की अनुमति पेशवा को दे दी थी। खेर के सुपुर्द  इस काम की  देख-रेख भी की गई। हरी विठ्ठल डिंगणाकर को कालपी और हमीरपुर के कुछ परगने और कृष्णाजी अनंत ताँवे को बाँदा और हमीरपुर का शेष भाग तथा जगतराज के राज्य की चौथ वसूल करने का अधिकार दिया गया।

इस प्रकार मराठों का प्रभाव बुन्देलखण्ड  में और भी बढ़ गया। इन दिनों में बुंदेलों की शक्ति आपसी झगड़ों के कारण कम हो गई थी, इससे मराठों ने इसका लाभ उठाकर अपना अधिकार बढ़ाया । परंतु मुसलमानों के विरुद्ध बुंदेले और मराठे दोनों मित्र रहे जिससे उत्तर की ओर से सुसलमानों का आक्रमण होना असंभव हो गया।

हरी विट्ठल डिंगणाकर और  कृष्णाजी अनंत तांबे ने कुछ दिन बुन्देलखण्ड  के प्रांतों पर शासन किया, परंतु फिर इनमें कुछ आपसी झगड़ा होने से प्रांत गोविंद बलाल खेर के अधिकार में आ गया। ये रत्नागिरी जिले के नेवारे नामक ग्राम के रहने वाले कराड़े ब्राह्मण थे ।

बाजी राव पेशवा के मरने के पश्चात्‌ उनके पुत्र  नाना साहेब उर्फ  बालाजी  बाजीराव  पेशवा हुए। इनके पेशवा होने के समय महाराज छत्रसाल  के पुत्र हृदयशाह की मरत्यु हो गई थी और उनके दो पुत्र सभासिंह और पृथ्वीराज राज्य के लिये लड़ रहे थे। सभासिंह  को पाना वालों ने राज्य दे दिया। इस पर पृथ्वीराज को बहुत बुरा लगा।

पृथ्वीराज ने मराठों से सहायता माँगी। मराठों की ओर से गो विंद पंत अपनी फौज  लेकर पृथ्वीराज की सहायवा करने आए। प्रथ्वीराज और सभासिंह  दोनों भाइयों में युद्ध हुआ और पन्ना के समीप सभासिंह  को पृथ्वीराज और मराठों ने हरा दिया। हारने पर विवश हो सभासिंह ने शाहगढ़ और गढ़ाकोटा  पृथ्वीराज को दे दिय। तथा अपने राज्य की  चौथ देने का भी वादा किया।

पृथ्वीराज के अधिकार में जो  प्रांत था उसकी चौथ भी पृथ्वीराज मराठों को देने लगे। सभासिंह ने पन्‍ने के हीरों का तीसरा भाग भी मराठों को देने का वचन दिया । इस युद्ध के पश्चात्‌ सारे बुंदेलखंड से मराठों को चौथ  मिलने लगी और बुंदेले अपने आपसी झगड़ों के कारण बलहीन हो गए।

जैतपुर के राजा जगतराज ने सभासिंह की सहायता की थी। इस कारण मराठों ने जगतसिंह से भी उसके प्रदेश का कुछ भाग माँगा। बुंदेलों में एकता न होने से प्रबल मराठे जो कुछ उनसे कहते थे उन्हें मांनना पड़ता था। इसलिये जगतराज ने अपने राज्य में से महोबा, हमीरपुर और कालपी  के परगने मराठों को दे दिए।

गोविंदराव पंत की सहायता से मराठों का अधिकार बुन्देलखण्ड  में बढ़ता ही गया। यह सब गोविंदराव पंत के प्रयत्नों का ही फल था। इसलिये मराठा दरबार में गोविंदराव पंत का बड़ा मान होने लगा।

बुंदेलखंड के सब बुंदेले  राजा मराठों को चौथ देते थे। ओड़छे (ओरछा )  के राजा ने भी मराठों की अधीनता स्वीकार कर ली थी।  अब मराठों ने बड़ी भारी सेना तैयार कर ली थी। इस समय गोपाल राव बार्बे , अन्नाजी माणक्रेश्वर,  विट्ठल शिवदेव विंचूरकर, मल्हारराव होल्कर, गंगाधर यशवंत और  नारोशंकर मराठों के प्रसिद्ध सरदार थे।

गोविंदराव पंत ने सागर और  उसके आसपास का प्रांत अपने लड़के बालाजी गोविंद के अधिकार में कर दिया। सागर में बालाजी की  सहायता के लिए  रामराव गोविंद, केशव शंकर कान्हेरे, भीकाजीराम करकरे, रामचंद्र गोविंद चांदिरकर इत्यादि कर्मचारी थे। सागर की देख – रेख इनके सुपुर्द  करके गोविंदराव पंत अपने छोटे लड़के गंगाधर गोविंद को साथ लेकर काल्‍पी के समीप यमुना पार कर अंतर्वेद में एक बड़ी सेना के साथ पहुँचे।

उस समय अंतर्वेद में रोहिला लोगों का राज्य था । गोविंदराव  पंत ने रोहलों को हराया और  मानिकपुर तथा खुरजा अपने अधिकार मे कर लिए। कोड़ा, जहानाबाद और इलाहाबाद पर भी मराठे अपना अधिकार जमाना चाहते थे, परंतु यहाँ पर मुसलमानों ने मराठों को रोका।  दिल्ली की एक बड़ी मुसलमान सेना ने यहाँ पर मराठों का सामना किया, परंतु मराठों ने उस सेना को हराकर भगा दिया।

इस समय जो प्रांत मराठों के अधिकार में थे वे सब गोविंदराव पंत के प्रयत्न से ही आए थे । मराठों के अन्य प्रसिद्ध सरदार सिंधिया और होल्‍कर की इसमें कुछ भी सहायता न थी। दूसरे वर्ष गोविंदराव पंत ने सिंधिया और होल्कर से सहायता ली । सिंधिया और होल्कर  से सहायता लेकर गोविंदराव पंत ने इटावा, फफूँद और शकूराबाद जीत लिए । इसमें सिंधिया और होल्कर की सहायता होने के कारण जीते हुए प्रदेश में से फफूँद सिंधिया को और शकूराबाद होल्कर को मिला ।

शेष भाग गोविंदराव पंत के अधिकार में रहा। इटावा पर गोविंद्राव पंत की ओर से मोरोपंत (मोरो विश्वनाथ डिंगणकर ) शासक नियुक्त  हुए। मोरोपंत के सहायक कृष्णाजी रामलघाटे नियुक्त  हुए।  मोरोपं॑त बाजीराव साहब के पुराने स्वामिभक्त और कर्मचारी थे। सागर की सेना के यही  अधिपति थे। गोंड़ राजाओं को इन्होंने अपने अधिकार में रखा था और गोंड़ राजा के हाथी पर की बहुमूल्य रेशमी झूल ले ली  थी। अब यह झूल इंदौर में रहने वाले गवर्नर-जनरल  के एजेंट की कोठी मे है।

नाना साहब पेशवा, गोविंदराव पंत को बहुत चाहते थे । एक समय जब नाना साहब ने कर्नाटक पर आक्रमण करने का निश्चय किया तब उन्होंने आर्थिक रूप में कुछ संहायता गोविंदराव पंत से मॉगी। गोविंदराव पंत ने तुरंत ही छियानबे लाख रुपए नाना साहब को दिए। नाना साहब इस पर बहुत प्रसन्न हुए।

गोविंदराब पंत और प्रथ्वीसिंह से बड़ी मित्रता थी । इन्होंने अपने स्वार्थ  के लिये गोविंदराब पंत का मित्र बनाया था।  पीछे से सभासिंह को हरा कर उससे राज्य का भाग ले लेने में सफल हुए थे। मराठों ने छत्रसाल महाराज का उपकार भूलकर अपनी सेना की सहायता से सभासिंह को हराकर सभासिंह के राज्य का आधा भाग प्रथ्वीराज को दिलाया ।

पृथ्वीराज भी कभी कभी पेशवा के दरबार मे जाया करते थे। वे एक समय तीन वर्ष तक लगातार पेशवा के दरबार में रहे थे। थे बड़े वीर थे। ऐसे कई प्रसंग आए जब पृथ्वीराज ने पेशवा को अपने बल और वीरता का परिचय दिया। जब नाना साहब ने कर्नाटक पर चढ़ाई की थी तब प्रथ्वीराज भी युद्ध मे गए थे और वहाँ पर बहुत वीरता से लड़े थे । वे ही महाराष्ट्र सेना के एक बड़े भाग के नायक थे और उन्होंने विजय प्राप्त करने में बहुत सहायता दी थी ।

गोविदराव पंत मराठों के एक बड़े वीर, पराक्रमी और राजनीतिज्ञ सरदार गिने जाते थे । जब पूना के शासकों को कोई सहायता की आवश्यकता होती थी तब ये सहायता देते थे । झांसी , कालपी इत्यादि स्थानों में बड़े बड़े धनी साहूकार थे, जिनके पास से गाविंदराव पंत रुपए लेकर पूना भेजा करते थे । इन साहूकारों मे रायराव, रतनसिंह और विशंभरदास का नाम प्रसिद्ध है। सारे  बुंदेलखंड मे गोविंदराव पंत का मान था। इस समय सारे भार मे अराजकता सी फ़ैल  गई थी ।

दिल्ली के मुसलमान शासकों के बुरे प्रबंध के कारण उत्तर में रोहिले, राजपूताने में राजपूत और भरतपुर में जाट स्वतंत्र  होने का प्रयत्न  कर रहे थे। इस समय सब प्रापस में एक दूसरे से लड़ रहे थे और सारे भारत में मराठों के बराबर शक्तिशाली कोई दूसरा न था। बुंदेले आपस की कलह के कारण हीन हो  गए थे ।

राजपूतों में भी एकता नहीं थी । इसी कारण मराठों का डर सारे भारत में बैठ गया था । मराठों की इस वृद्धि का मूल कारण बुन्देलखण्ड का राज्य था। बुन्देलखण्ड  मध्य भारत में होने के कारण मराठे यहाँ से जिस ओर  जाना चाहते थे जा सकते थे । बुंदेले लोग आपस में लड़ते थे परंतु मराठों को जब सहायता की आवश्यकता पड़ती थी तब वे उन्हें बराबर सहायता देते थे।

बुंदेलों  की वीरता अतुल्नीय थी । ये लोग जिस युद्ध में गए वहाँ बड़ी बीरता से लड़े । बुंदेलखंड मराठों को छत्रसाल महाराज ने दिया था परंतु अब ये महाराज छत्रसाल के वंशजों के ऊपर ही अधिकार किए बैठे थे। मराठों को इसका दोष  देना ठीक नहीं। बुंदेलों  की आपसी कलह ही इसका मूल कारण है।

मराठो का राज्य बहुत बढ़ गया  था। इसलिये भिन्न भिन्न स्थानों के लिये अलग  सरदार नियुक्त थे। बरार के लिये (पैसा इकट्ठा करने के लिए) मराठों की ओर  से रघोजी भोंसले  और मालावे  में रानाजी सिंघिया तथा मल्हारराव होल्कर थे ।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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