महाराज छत्रसाल किसी भी स्वाभिमानी हिंदू से सहायता लेने को तत्पर थे। जिस प्रकार बुंदेलखंड में हिंदू धर्म के रक्षक वीर छत्रसाल थे उसी प्रकार दक्षिण में मराठे भी यवन सत्ता को दक्षिण से उठा देने का प्रयत्न कर रहे थे। इस संकट के समय महाराज छत्रसाल ने मराठों की ही सहायता लेने का निश्चय किया और Bundelkhand Me Maratho Ka Sahyog प्राप्त हुआ।
औररंगजेब की मृत्यु के पश्चात् दिल्ली दरबार में जो कलह हुई उससे बादशाहत दिन पर दिन कमजोर होती गई । उसने अपनी दशा, सुरक्षित करने के लिये महाराज शाहू जी से मित्रता की और बुन्देलखण्ड की स्वतंत्रता स्वीकार की । इससे बुंदेले और मराठे दोनों ही स्वतंत्र हो गए। जिस प्रकार छत्रसाल की राजधानी पन्ना में थी उसी प्रकार शाहू जी महाराज की राजधानी सातारा मे थी। इन दोनों का राज्य प्रजा के लिये सुखकर था और ये दोनों हिंदूधर्म के रक्षक थे ।
बहादुर शाह विक्रम संवत् 1748 मे मरा। उसके बाद फाररूखसियर दिल्ली की बादशाहत का अधिकारी हुआ। यह नाम मात्र के लिये ही बादशाह था, राज्य का सब कार्य भार अब्दुल्ला और हुसेनअली चलाते थे। ये दोनों भाई भाई थे और जाति के सैयद थे। दिल्ली की बादशाहत का सब कार्य करने वाले ये ही दो थे। इन दोनों ने दक्तिण के सूबेदार दाऊदखाँ को वहाँ से हटाकर उस स्थान पर कमरुद्दीन (उर्फ चिनकुलीच खाँ) को नियुक्त किया। इस सूबेदार ने स्वतंत्र होने का प्रयत्न करना आरम्भ कर दिया ।
दिल्ली दरबार मे फरुखसियर से सैयद भाइयों को बढ़ती हुई शक्ति न देखी गई। इस लिये बादशाह ने इनकी शक्ति को कम करने के लिये इन्हें दिल्ली दरबार से हटा देना ही ठीक समझा । सैयद हुसैनअली को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया और कमरुद्दीन को दक्षिण से अलग करके मुरादाबाद का सूबेदार बनाया। गुजरात में दाऊदखाँ सूबेदार था। यह सैयद भाइयों के हुक्म से दक्षिण के सूबे से हटाया गया था और इसी की जगह कमरुद्दीन की नियुक्ति हुई थी।
इस कारण दाऊदखाँ, सैयद भाइयों का शत्रु हो गया था। बादशाह ने दाऊदखाँ को यह हुक्म भेजा कि अगर तुम मराठों से मेल करके सैयद हुसैनअली का नाश कर दो तो तुम्हें फिर से दक्षिण की सूबेदारी दे दी जायेगी । यह हुसैनअली से बदला लेना ही चाहता था अतः वि. सं. 1773 मे इसने हुसैनअली पर आक्रमण किया। इस युद्ध में दाऊदखाँ हार गया और वह मारा गया।
मुसलमानों के सूबेदारों में इस प्रकार का झगड़ा देख मराठों ने मुसलमानों के अधिकार में से देश जीत लेने का उत्तम अवसर देखा। इस समय मराठों में अनेक वीर सेनापति थे। खंडेराव दाभाड़े, कंठाजी कदम और परसेजी भोंसले आदि मराठे सरदारों ने मुगल राज्य पर धावा मारकर देश जीतना आरंभ कर दिया। मराठों की सहायता के बिना अपना राज्य कायम रखना कठिन देख मुसलमान सूबेदारों ने सराठों से मित्रता करने का प्रयत्न करना आरंभ किया।
इस उद्देश्य से दक्षिण के सूबेदार सैयद हुसैनअली ने मराठों से वि. सं. 1773 ही मे संधि कर ली और उसने दक्षिण के छः जिले और तंजार, त्रिचनापल्ली और मैसूर इन राज्यों की चौथ मराठों को देना स्वीकार किया और मराठों ने बादशाह को 10 लाख रुपए वार्षिक देना स्वीकार किया। फरूखसियर बादशाह सैयद भाइयों के विरुद्ध था, इस कारण उसने सैयद हुसैनअली की शर्तें मंजूर नही की।
बादशाह ने कमरुद्दीन (मुरादाबाद के सूबेदार ) सादत खाँ और जयसिंह के पास इन शर्तों को नामंजूर करने का हुक्म भेज दिया। सैयद हुसैनअली ने इस समय मराठों की सहायता और सेना लेकर दिल्लीपति से शर्ते कुबूल कराने और दिल्ली में अपना प्रभाव जमाने का विचार किया और मराठों ने उसकी सहायता के लिये बालाजी विश्वनाथ को एक विशाल सेना के साथ भेजा।
बालाजी विश्वनाथ, सैयद हुसैनअली के साथ दिल्ली गए। मराठों के साथ फरुखसियर ने वि. सं. 1776 मे युद्ध किया और कैद होकर दो माह के बाद वह मारा गया और सैयद हुसैनअली ने दिल्ली के तख्त पर रफीउद्दाराजात और रफीउद्दौला नामक बालकों को बैठाया परंतु ये दोनों ६ माह के भीतर मर गए इससे मुअज़्जिम का नांती रोशनअख्तर नाम का बादशाह बनाया गया।
रोशनअख्तर ने अपना नाम मुहम्मदशाह रखा । मुहम्मदशाह के समय में फिर सारा कार्य भार सैयद भाइयों के हाथ में आ गया। दिल्ली के इस युद्ध में मराठों की बहुत सी सेना मारी गई परंतु सैयद भाइयों ने मराठों का उपकार मानकर वि। सं। 1777 मे उन्हें चौथ और सरदेशमुखी देने की सनद बादशाह से दिलवाई और देवराव हिंगणे नाम का एक होशियार वकील मराठों की ओर से दिल्ली दरबार मे रखा।
इस प्रकार अपना काम साधकर बालाजी विश्वनाथ दक्षिण में आए परंतु कुछ दिनों के पश्चात् उनकी मृत्यु हो गई। बालाजी विश्वनाथ के पश्चात् उनके पुत्र बाजीराव को शाहू महाराज ने पेशवा नियुक्त किया। बाजीराव पेशवा अपने पिता से अधिक पराक्रमी हुआा। इसने सिंधिया, होलकर, पंवार, गायकवाड़, जाधव इत्यादि मराठे सरदारों की सहायता से गुजरात, खानदेश और मालवा प्रांतों पर चढ़ाई करके वहाँ से मुसलमानी सत्ता उखाडना आरंभ कर दिया।
सैयद भाइयों को मुहम्मदखाँ बंगश नाम के एक मुसलमान सरदार ने बहुत सहायता दी थी। इसलिये सैयद भाइयों ने प्रसन्न होकर उसे नवाब की पदवी देकर बुंदेलखंड के एरच , कोच, काल्पी, सेहुँड़ा, मैदहा, सीपरी और जालौन इन परगनों का सूबेदार बनाया था। इन परगनों पर मुहम्मदखाँ बंगश की ओर से दलेल खाँ , अहमदसखाँ, पीरखाँ और सुजान खाँ नियुक्त किए गए थे।
फारुखसियर के समय में दिल्ली दरबार में जो झागड़े हुए उनमें मुहम्मद खाँ बंगश ने भी स्वतंत्र हो जाने की बात सोची। दिल्ली मे सैयद भाइयों में और बादशाह मुहम्मदशाह में अनबन हो गई थी। सुहम्मदखाँ बंगश ने बादशाह मुहम्मदशाह को सहायता दी थी इस कारण बादशाह ने मुहम्मदखाँ बंगश को 7000 सवारों का मनसबदार बनाया और उसे सात लाख रुपए इनाम मे दिए थे ।
विक्रम संवत् 1778 में मुहम्मदखाँ बंगश इलाहाबाद का सूबेदार नियुक्त किया गया । मुहम्मदखाँ बंगश ने आसपास के कई राजाओं को अपने अधिकार में कर लिया था। वह बड़ा योग्य सेनापति था। पीरखाँ मुहम्मदखाँ बंगश की ओर से कालपी का सरदार था। राजा छत्रसाल ने पीरखाँ को कालपी से निकाल दिया । यह बात मुहम्मदखाँ बंगश से न सही गई ।
वह जिन परगनों का सूबेदार बनाया गया था उनमें से कई छट्रासाल महाराज के अधिकार में थे । इस कारण मुहम्मदखाँ बंगश ने कई बार उन्हें बुंदेलों से ले लेने के प्रयत्न किए, परंतु वे सब निष्फल हुए। जब बंगश को कालपी का हाल मालूम हुआा तब उससे न रहा गया। उसने अपने सब नायब सूबेदारों की फौज इकट्ठी करने और बुंदेलखंड पर आक्रमण करने का हुक्म दिया ।
मुहम्मदखाँ बंगश की सहायता के लिये दलेलखाँ नामक एक सरदार था। दलेलखाँ जाति का हिंदू राठौर वंश का ज्ञत्रिय था। इसे मुहम्मदखाँ बंगश ने मुसलमान बना लिया था। इस बात पर महाराज छत्रसाल को बहुत दुख हुआ था और वे चांहते थे कि दलेलखाँ से न लड़ना पड़े। इसलिये राजा छत्रसाल ने दलेलखाँ को एक पत्र भी लिखा परंतु दलेलखाँ ने मुसलमानों का साथ छोड़कर राजा छत्रसाल का साथ लेना स्वीकार नही किया ।
मुहम्मदखाँ बंगश ने युद्ध की बड़ी तैयारी की। उसने दिल्ली दरबार से सहायता माँगी। दिल्ली के अमीर-उत्त-उमरा खॉ दौरान ने बहुत सी सेना बंगश की सहायता के लिये भेजी। इस सब सेना को एकत्र करके बंगश ने बुंदेलखंड पर आक्रमण करना आरंभ कर दिया। बाँदा और सेहुँड़ा पर उसने कई धावे किए। परंतु इसी समय मराठों ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया जिससे मुहम्मदखाँ बंगश को ग्वालियर की ओर जाना पड़ा।
जब बंगश ग्वालियर की ओर गया तब राजा छत्रसाल ने बंगश के गढ़ों पर आक्रमण कर दिए। इसलिये बंगश फिर इलाहाबाद को लौट आया। उसे सेना के बंदोबस के लिये दिल्ली दरबार से दो लाख रुपए प्रति माह भी मिलता था । इस धन की सहायता से बंगश ने सैनिकों की तनखाहें भी बढ़ा दी । फिर अपने पुत्र आबादखाँ के साथ एक बड़ी सेना देकर उसे यमुना के दक्षिण मे भेजा।
इस समय मुहम्मदखाँ बंगश को कई बुंदेलों ने भी सहायता दी। इस समय ओड़छे (ओरछा) मे हरदौल के प्रपौत्र उदेतसिंह का राज्य था। यह वि. सं. 1746 में गद्दी पर बैठा था। इसने मुगलों के अधीन रहना स्वीकार कर लिया था और इस समय वह छत्रसाल के विरुद्ध मुसलमानों को इस समय सहायता दी । दतिया वास्तव में ओरछा राज्य की एक बड़ी जागीर थी। परंतु जब से ओड़छे के राजा मुगलों के अधीन हुए तब से यह जागीर भी मुगल राज्य की जागीर हो गई।
इस समय दतिया के जागीरदार राय रामचंद्र थे। इन्होंने भी बुंदेलों के विरुद्ध मुसलमानों को सहायता दी । चंदेरी के जागीरदार दुलन सिंह भी मुसलमानों की सहायता कर रहे थे। मैदहा के जागीरदार जयसिंह ने भी छत्रसाल के विरुद्ध लड़ना स्वीकार कर लिया था। खेद की बात है कि ऐसे समय में इन सबने अपने जाति और धर्म -बंधुओं का साथ न देकर मुहम्मदखाँ बंगश को सहायता देना उचित समझा।
यह समय बुंदेलखंड के लिये सचमुच बड़े ही संकट का था। बुंदेलों के विरुद्ध केवल सारा यवन दल ही नहीं कई बुंदेले भी अपनी सेनाएँ लेकर तैयार थे। छत्रसाल महाराज की आयु अधिक हो गई थी परंतु उनकी धीरता और वीरता में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था । इन मुगलों की प्रचंड सेना और बुंदेलों का छत्रसाल के विरुद्ध हो जाना छत्रसाल के संकल्प को और दृढ़ करने में सहायक हुआ । राजा छत्रसाल के पुत्र भी वीर पराक्रमी थे। वे अपने पिता के अनुसार यवनों से बुंदेलखंड को मुक्त करने का प्रण कर चुके थे। अपने पुत्रों की सहायता से छत्रसाल महाराज ने मुगलों से युद्ध करने की तैयारी कर ली |
मुहम्मदखाँ बंगश ने अपनी असंख्य सेना लेकर बुंदेशखंड पर आक्रमण कर दिया। बुंदेलों और मुसलमानों की सेना से कई लड़ाईयां हुई । राजा छत्रसाल के पुत्रों ने युद्ध में वीरता दिखाई । परंतु कई बार बुंदेलों की सेना को पीछे भी हटना पड़ा । पर बुंदेलों ने कभी भी हिम्मत न हारी और लगातार मुसलमानों से एक वर्ष तक लड़ते रहे । मुहस्मदखाँ बंगश के पास बहुत सा धन था। युद्ध के समय मे सेना के लिये वह सैनिकों की भरती करता जाता था और मुगल राज्य के अन्य प्रांतों से खाने-पीने का सामान मँगवाता जाता था । बुदेलों ने इस समय गोंडवाने के जागीरदारों से सहायता माँगी और उन लोंगों ने कुछ सहायता भी दी ।
इनसे कुछ सहायता लेकर और बुंदेलों की सारी सेना एकत्र करके बुंदेलों ने जैतपुर के दक्षिण में मुगलों से एक बड़ी लड़ाई की । इस युद्ध में बुंदेलों ने अपनी वीरता का पूरा परिचय दिया और कई बुंदेले इस युद्ध में लड़ते हुए मारे गए। इस युद्ध के समय राजा छत्रसाल का मुहम्मदखाँ बंगश के हाथियों का सामना हो गया और मुहम्मदखाँ ने अचानक अपनी बरछी फेंककर छत्रसाल को मारी उस बरछी के घाव से राजा छत्रसाल मूर्छित हो गए। राजा छत्रसाल के मूर्छित होते ही बुंदेले हताश हो गए और महावत राजा छत्रसाल को सुरक्षित स्थान में ले गया। इस युद्ध मे बुंदेलों को पीछे हटना पड़ा।
राजा छत्रसाल मूर्छा से जागते ही अपने महावत से समरभूमि से अलग लाने के कारण क्रोधित हुए और उन्होंने उसे तुरंत समरभूमि में चलने का हुक्म दिया। परंतु राजा छत्रसाल के घाव गहरे होने से उनके मंत्रियों ने समझाया और राजा छत्रसाल को मानना पड़ा।
इस प्रकार कई युद्ध बुंदेलों मे यवनों से किए । मुसलमानों का जोर बढ़ता गया और बुंदेलों को भय लगने लगा। महाराज छत्रसाल का उद्देश्य हिंदू धर्म की रक्षा करना और भारत को यवन-सत्ता से मुक्त करना था। इस काम के लिये वे किसी भी स्वाभिमानी हिंदू से सहायता लेने को तत्पर थे। जिस प्रकार बुंदेलखंड में हिंदू धर्म के रक्षक वीर छत्रसाल थे उसी प्रकार दक्षिण
में मराठे भी यवन सत्ता को दक्षिण से उठा देने का प्रयत्न कर रहे थे। इस संकट के समय महाराज छत्रसाल ने मराठों की ही सहायता लेने का निश्चय किया। उस समय मराठों मे बाजीराव पेशवा ही नायक थे। इससे इनको भी छत्रसाल ने एक पत्र लिखा। बाजीराव पेशवा ने बुंदेलखंड को ऐसे धर्म-संकट के समय सहायता देना स्वीकार कर लिया ।
बाजीराव पेशवा शाहू महाराज से अनुमति लेकर अपनी सेना के साथ बुंदेलखंड में छत्रसाल महाराज की सहायता को पहुँचे। मराठों ने विक्रम संबत् 1786 में मालवा मे प्रवेश किया । मालवे के सूवेदार को हराते हुए बाजीराव पेशवा बाईस दिनों में बुंदेलखंड पहुँचे। मुहम्मदखाँ बंगश ने कई लड़ाइयों में बुंदेलों को हरा दिया था, इससे उसे बहुत अभिमान हो गया था ।
उसने अपनी कुछ फौज इलाहाबाद भेज दी थी और कुछ फौज को लेकर वह बुन्देलखण्ड के कुछ भाग पर अधिकार किए बैठा था। उसे मराठों के आक्रमण के बारे मे मालूम हो गया था । मराठों के आने की बात सुनते ही कई हिंदू राजा लोग मुसलमानों का साथ छोड़कर अलग हो गए। परंतु ओड़छे के राजा का छोटा भाई लक्ष्मणसिंह और मौदहा का जागीरदार जयसिंह मुसलमानों की सहायता करते ही रहे। मुहम्मदखाँ वंगश के पास बहुत सेना न थी, इसलिये उसने सेना मँगवाई परंतु वह समय पर न पहुँच सकी ।