Homeबुन्देलखण्ड का इतिहास -गोरेलाल तिवारीBundelkhand Me Gaund Rajya Ka Patan बुन्देलखण्ड में गौंड़ राज्य का पतन

Bundelkhand Me Gaund Rajya Ka Patan बुन्देलखण्ड में गौंड़ राज्य का पतन

आबा साहब अपनी सेना लेकर चौरागढ़ पहुँचे। तेजगढ़ से भी कुछ सेना यहाँ सहायता के लिये आ  पहुँची। चौरागढ़ पर गौंड़ लोगों की सेना हरा दी गई और  राजा नरहरशाह और दीवान गंगा गिर कैद कर लिए गए। इन दोनों को आबा साहब ने खुरई के किले  में रखा।  परंतु कुछ दिनों के बाद गंगा गिर हाथी के पैर से बंधवाकर मरवा डाला  गया । इसके बाद Bundelkhand Me Gaund Rajya Ka Patan शुरू हो गया ।

जिस समय अंग्रेजों  और मराठों से युद्ध हो  रहा था और अंग्रेजों की फौज बुंदेलखंड होती हुई दक्षिण पहुँची उस समय बुंदेलखंड के मराठों  ने अंग्रेजों से कालपी वापिस ले लेने का प्रयत्न  किया। ज्योंही कर्नल गॉडर्ड नर्मदा पार करके दक्षिण में गया त्योंही मराठों ने झांसी और सागर की फौज इकट्ठी करके कालपी पर चढ़ाई की और अंग्रेजों के हाथ से कालपी ले ली। जिस समय सागर की सेना कालपी गई उस समय गोंड लोगों ने मराठों से बदला लेने का अच्छा अवसर सोचा। नरहरशाह और उनका मंत्री गंगा गिरि थे दोनों मराठों से पहले से ही नाराज थे।

मराठों की ओर से सागर का प्रबंध विसाजी गाविंद कर रहे थे। इन्होंने एक बड़ी भारी सेना के साथ चढ़ाई कर गढ़ा मंडला का इलाका नरहरशाह से छीन लिया  था। संवत्‌ 1838  मे विसाजी  गोविंद जबलपुर मे ही थे। इस समय नरहरशाह गौंड़  ने सात हजार सैनिकों की सेना लेकर मरांठों पर हमला किया । गंगा गिर ने विसाजी  गोविंद को गढ़ा के निकट हरा दिया । हारकर विसाजी गेविंद जबलपुर की ओर भागे। अंत  मे गोंड लोगों ने इन्हें घेरकर मार डाला।

इस विजय से गोंड लोगों  का मन खूब बढ़ गया । उन्होंने मराठों के किलों  को लूटना आरंभ कर दिया। दमोह जिले का तेजगढ़ का किला गोंड लोगों ने अपने अधिकार में कर लिया।  फिर वे लोग जबलपुर की ओर  वापिस गए और मराठों की जो  सेना जबलपुर मे रह गई थी इसे उन्होंने वहाँ से मार भगाया।

गोंड़ों  से लड़ने के लिये मराठों ने अपने सरदार बापूजी नारायण को एक बड़ी सेना के साथ चौरागढ़ की ओर भेजा।  गौंड़ लोगों ने भी अपनी सेना मराठों से लड़ने के लिये चौरागढ़ भेजी। मराठों ने गोंड लोगों की बड़ी सेना का सामना करना ठीक न समझा । वे चौरागढ़ को छोड़कर बलेह की ओर आ  गए।

जबलपुर से मराठों की जिस सेना को गोंड लोगों ने भगा दिया था उसे साथ लेकर विसाजी गोविंद के दीवान अंताजीराम खांडेकर दमोह पहुँचे और मराठों की एक दूसरी सेना केशव महादेव चांदारकर नामक सरदार के साथ मराठों की सहायता के लिये पहुँच गई।

फिर मराठों से और गोंड लोगों से तेजगढ़ के समीप युद्ध हुआ। यह युद्ध बहुत दिनों तक होता रहा और  इसमें मराठों की जीत हुई । तेजगढ का किला मराठों के अधिकार में आ  गया और गोंड राजा नरहरशाह अपनी सेना लेकर चौरागढ़ की ओर भाग गया।

जिस समय यह युद्ध हो  रहा था उस समय बालाजी गोविंद कालपी  में थे।  उन्होंने सागर मे अपने पुत्र रघुनाथ राव उर्फ  आबा साहब को नियुक्त  कर दिया। आबा साहब ने हटा, तेजगढ़ इत्यादि किलों  पर उचित सेना रखकर सब राज्य-व्यवस्था देखी। फिर अपनी सब सेना लेकर ये गौंड़ लोगों से लड़ने जबलपुर की ओर चले । जबलपुर में इन्हें कोई युद्ध नही  करना पड़ा और ये अपनी सेना लेते हुए मंडला पहुँचे।

मोरो विश्वनाथ नामक मराठे सरदार भी यहाँ सहायता के लिये आ पहुँचे। आबा साहब ने मंडला की गोंड सेना को भगाकर मांडला  पर अधिकार कर लिया।  फिर वे जबलपुर में आए और पाटन के निकट मोरो विश्वनाथ को जबलपुर का सूबेदार नियुक्त  किया। गोंड राजा नरहरशाह इस समय अपनी सेना लेकर चौरागढ़ के किले में था।

आबा साहब अपनी सेना लेकर चौरागढ़ पहुँचे। तेजगढ़ से भी कुछ सेना यहाँ सहायता के लिये आ  पहुँची। चौरागढ़ पर गौंड़ लोगों की सेना हरा दी गई और  राजा नरहरशाह और दीवान गंगा गिर कैद कर लिए गए। इन दोनों को आबा साहब ने खुरई के किले  में रखा।  परंतु कुछ दिनों के बाद गंगा गिर हाथी के पैर से बंधवाकर मरवा डाला  गया ।

आबा साहब को गोंड लोगों के राज्य की लूट मे बहुत सी बहुमूल्य वस्तुएं मिली थीं। इनकी और मोरो पंत की वीरता से मराठों ने गौंड़ लोगों के राज्य पर फिर भी अपना अधिकार कर लिया। मोरोपंत का देहाँत संवत्‌ 1844  में हुआ। उस समय आबा साहब अपने पिता बालाजी के पास कालपी मे थे। मोरो पंत के पश्चात्‌ उनके पुत्र विश्वासराव सागर के सूबे का कार्य देखने लगे ।

इस समय होल्कर  और सिंधिया का पेशवा से झगड़ा हो गया। झगड़े का कारण यही था कि होल्कर और  सिंधिया पेशवा से स्वतंत्र बनना चाहते थे। जब आबा साहब कालपी में थे और मोरो  पंत का देहांत हुआ तब होल्कर ने सागर को  अपने अधिकार मे कर लेने का अच्छा अवसर सोचा। होल्कर ने अपने मीरखाँ नामक सरदार को सागर पर आक्रमण करने के लिए  भेजा।

मीर खाँ ने आकर सागर को घेर लिया । सागर की सेना ने होलकर की सेना से  युद्ध किया। यह समाचार आाबा साहब को कालपी  मे मालूम हुआ। कालपी  से वे एक बड़ी सेना लेकर सागर की ओर आए। सागर के समीप आकर उन्हें मालूम हुआ कि होल्कर की सेना बहुत भारी है और उससे लड़ना बड़ा कठिन कार्य होगा। इसलिये उन्होंने नागपुर के भोंसलों से सहायता मॉगी। भोंसलों  ने सहायता दी और  उस सेना की  सहायता से होल्‍कर की सेना हरा दी गई।  

होल्कर का सरदार मीरखाँ हार मानकर वापिस चला  गया। इस सहायता के बदले सागर वालों ने नागपुर के भोंसलों को मंडला, तेजगढ़, धामौनी और चौरागढ़ के किले और उनके आस-पास का इलाका  दे दिया।

कालपी में आबा साहब के पिता बीमार थे। इसलिये आबा  साहब फिर कालपी गए और सागर का प्रबंध उन्होंने लक्ष्मण परशुराम को सौंप दिया। आबा साहब कलापी  न पहुँच पाए थे कि उनके पिता बालाजी गोविंद की मृत्यु हे गई।  बालाजी गोविंद के मरने के बाद उनके भाई गंगाधर गोविंद की भी मृत्यु हो गई । गंगाधर गोविंद महाराष्ट्र  के योग्य शासकों में गिने जाते हैं।

रघुनाथराव उर्फ  आबा साहब बालाजी गोविंद के  इकलौते पुत्र थे। गंगाधर गोविंद के भी एक ही पुत्र था जिसका नाम गोविंद गंगाधर उर्फ़ नाना साहब था। बालाजी और गंगाधर जब बूढ़े  हुए तब उन्होंने अपने अपने पुत्रों की देख-रेख दिनकरराव अन्ना के सुपुर्द  कर दी ।

बालाजी और गंगाघर की मृत्यु  से मराठों की सत्ता को बड़ी चोट पहुँची। रघुनाथराव ने राज्य-प्रबंध उत्तम करने का प्रयत्न किया। इनके दरबार में पद्माकर कवि रहते थे। पद्माकर कवि का जन्म संवत्‌ 1810  में सागर में हुआ था।   ये सिंधिया और हिम्मतबहादुर के दरबार में भी रहे थे। ये  नोने अर्जुन सिंह के गुरु थे और इन्होंने एक तलवार सिद्ध करके नोने अर्जुन सिंह को दी थी।

परंतु जब हिम्मतबहादुर ने नोने अर्जुन सिंह  को हरा दिया तब पद्माकर ने नोने अर्जुनसिंह  की कीर्ति नही  गाई परंतु हिम्मतबहादुर-विरदावली  बनाई। इनका देहाँत संबत्‌ 1860 में हुआ । रघुनाथराव का देहांत संवत्‌ 1859 में हुआ।  इनके पिता बालाजी गंगाधर से बड़े थे इसलिये पेशवा ने चाहा कि रघुनाथ राव की ही संतान  बुन्देलखंड की सूबेदारी करे। इसलिये यह निश्चय हुआ कि जब नाना साहब के पुत्र हो तब वह रघुनाथराव की विधवा की गोद से दिया जाय।  

संवत्‌ 1852  मे माधव  नारायण पेशवा का देहांत होने पर पूना मे राघोबा का पुत्र बाजीराव पेशवा हुआ। सिंधिया और होल्कर इसे  बाजीराव का पेशवा होना पसंद नही  करते थे। इस पेशवा ने नाना फड़नवीस को भी अपमानित कर दिया। नाना फड़नवीस की मृत्यु संबत्‌ 1857 मे हुई । इनके पश्चात्‌ पूना मे कोई चतुर राजनीतिज्ञ न रहा। सिंधिया और होल्कर ने पेशवा को हराकर कैद कर लिया।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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