वसंत का आगमन माघ शुक्ल पंचमी से माना जाता है। Bundelkhand Me Basant के आने से आनंद, उल्लास लय एवं रस और भावों से लबालवी बाढ़-सी आने लगती है। प्रकृति श्रृंगार करती है। ‘गेंदा फूल गये, बागन मे छा गऔ वसंत। पद्माकर कहते हैं… ।
और भाँति कुंजन में गुजरत भौर भीर,
और डऔर झौरन में बौरन के हवै गये।
और भाँति विहग समाज में अवाज होत,
ऐसे ऋतुराज के न आज दिन वै गये।
और रस और रीति और राग और रंग,
और तन और मन और वन ह्वै गये।।
उत्सव है वसंत पंचमी। वसंत प्रतीक है आशावाद का। नये जीवन का प्रतीक। वासंती उमंग जब भीतर से आती है तो नया कुछ करने का मन होता है। वसंत को जीवन में अवतरित करने का मन। एक गूंज वातावरण में झंकृत होती है।
फागुन बाजी हरमुनियाँ,
पवन ने पहरी पैजनियाँ,
बेला आधी रात सिंगर के,
खनकावै अपनी कंकनियाँ ।
टेसू ठाड़ौ कस ढोलकिया,
आम ने बजाई झंझनियाँ,
महुआ अपनी दुटिया पुंजिया,
लुटा रहौ भर-भरके दुकनियाँ ।
कोइल में दै दै के कूका,
टोर दई संयम की तनियाँ।
पलास तो वन-भूमि का श्रृंगार है। राग की आग लेकर वसंत आता है। प्रकृति में परिवर्तन होने लगे।
खिलखिलात सरसों सरस, अलसी मुस्क्या जात।
छूम छनन छन चनन सौं, जब बिछिया बतरात।।
पलाश फूलने से जंगल में आग-सी लग गई। बंदेली-रसियन के हृदय में वसंत की लूक कौंध-कौंध गई। ऊँच-नीच के भेद विलुप्त हो गये। लोक और शास्त्र दोनों के स्वर मिलकर एकाकार हो गये। केसरिया आँच जो पलाश की लाली है वहीं होरी की राख को गुलाल में बदल देती है। कवि के हृदय में फाँस सी आँसने लगी।
सुरतन फाँस आँस गई मन में,
हिरा गऔ मन वन में,
वन में देख वसंत सुहानौ,
झरत छेवलौ छिन में।।
ननद-भौजाई गाने लगती हैं, पलाश के लिए मंगलाचार –
फूले – फले हो पलइयँन पलास,
फूले – फूले हो पलइयँन पलास।
ईसुरी की फागें सुनकर पलाश को भरोसा हो गया कि वसंत आ गया है। पलाश फूले नहीं समा रहे। धरती पर ईगुर-सी बगर गई। फागें वसंतोत्सव के अवसर पर गाये जाने वाले विशिष्ट गीत हैं। वीरों का वसंत अलग होता है और साधकों का अनूठा और निराला। वासंती वयार की छुअन भावनाओं में भक्ति का संचार करती है। प्राणों में तप की ज्वालायें धधकती हैं और मानस में ज्ञान की प्रखरता छा जाती है। वसंत का महापर्व साधक के लिए आध्यात्मिक जागरण का संदेश लेकर आता है
‘हे साधक उठो, जागो, जब तक कि
जीवन – लक्ष्य तुम्हें वरण न कर ले।‘
आम के बौर से लदी हुई डालियों पर कोयलें कूककर प्रेमियों के तन-मन में हूकें भरती हैं। ऋतुराज वसंत की अनोखी छटा… ।
मधुर धरती, मधुर अम्बर, मधुर रजनी, मधुर बासर,
मधुर प्रातः, मधुर संध्या, प्रकृति की मधुर माया है,
मधुर मधुमास आया है।
भारतीय संस्कृति और साहित्य में वसंत ऋतु को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है। वर्ष की छह रितुओं का चक्र वसंत से ही प्रारंभ होता है। इस समय प्रकृति अपना परिधान बदलती है। वन, वृक्ष, वल्लरियों का अंग प्रत्यंग अपनी अनुपम छटा बिखेरते हैं। धरती का हर कोना वसंत की मादकता से झूम-झूम उठता है।
वसंतोत्सव ही बाद में मदनोत्सव बन गया। प्रेमी-प्रेमिकाओं के प्रेम को प्रकट करने का उत्सव। लास्य, उमंग और आनंद की अनुभूति का चरमोत्कर्ष । होलिकोत्सव तक वसंत का उत्सव चलता है। इसी के अंतर्गत् शिवरात्रि का उत्सव भी आयोजित होता है। लोकोत्सव में ही भरे हुए हैं जीवन के रंग। प्रेम-परक और श्रृंगारपरक गीतों की संवेदना आँचलिक अनुभवों से फूटती है।
बरसात समाप्त होने के बाद से ही शरद, शिशिर, हेमंत और बसंत की अगवानी और तैयारियाँ होने लगती है। ये ऋतुये जीवन में उल्लास भरती जीवन को नीरस नहीं होने देती।
भारतीय संस्कृति की आत्मा बसती है – गंगा, गीता और गौ में। दशहरे के दूसरे दिन से महिलायें कातिक व्रत की शुरुआत कर देती हैं। ये कत्कारिने बड़े भोर से गाती हुई नदी या तालाब पर जाती हैं। मिसरी-सी घोलते हैं उनके बोल। यह व्रत कार्तिक पूर्णिमा को सम्पन्न होता है। श्रीहरि और तुलसी का ब्याह होता है।
सखी री, भई ना बिरज की मोर।
ऋतु परिवर्तन की घटनायें महत्त्वपूर्ण उत्सवों का आधार बनती हैं।
दौज दिवारी दो दिना भइया,
गोकुल बारउ मास रे।
नित गोरी गोधन धरै,
सौ करै दरस की आस।
धीरे-धीरे ठंड पैर पसारने लगती है। 13-14 जनवरी को हर साल बुंदेलखंड के नर-नारी, बाल-वृद्ध सभी ‘बुड़की के त्यौहार’ (संक्रांति) के आने की प्रतीक्षा महिना भर पहले से करने लगते हैं।
बुड़की तौ आ गई नयो गुर लयें,
गुर लयें दो-दो लडुआ,
मसक ल्येव यार रे।।
जोशी घर-घर जाकर संक्राँत गीत सुनाते हैं। जिसकी ‘टूट’ होती है ‘श्री गंगा’ अपने लोक-गीत के द्वारा वे सरमन (श्रवण कुमार) की कथा अथवा राजा कर्ण की धार्मिक कथा सुनाते हैं। संक्राँत की पूर्व संध्या को ‘तिलैयाँ’ कहते हैं। घर-घर में ‘मगौड़ा’ बनते हैं। बुड़की या परवी नदी में ली जाती है। तरह-तरह के लड्डू बनते हैं। बच्चे गड़िया-घुल्ला चलाते हैं।
भज मन गंगा,
भज मन राम श्री गंगा,
भजौ गुविंद शालिगराम श्री गंगा.
राजा करन से दानी भये श्री गंगा।।
बुड़की लेने जाते हुये ‘लमटेरा’ लोकगीत शुरू हो जाता है।
दरस की बेरा तौ भई रे,
बेरा भई रे पट खोलौ,
छबीले भोला नाथ रे,
दरस की आय हो…..
मलिनियाँ की गजरा तो न देय रे…..
गजरा न देवे ऊकों भोरई,
उजारों बेला बाग रे,
मलिनियाँ की अय हो…….
बंदेलखंड के गाँव-गाँव में संक्रात मेला भरते हैं। बाबा के गीत – बाबा के गीत वातावरण में छा जाते हैं ।
गनेस बाबा गजरा खों बिरजे,
गजरा खों की भोरई ठाड़े के मलिनियाँ के दौ रही…
सड़किया पै धूरा तो उई रे,
धूरा उदरे जैसें फागुन में उड़त अबीर हो।
दरस की बेरा तौ भई रे, बेरा तौ मई रे
घट खौलौ छबीले महाराज हौ।
बुन्देलखंड की चेतना उसक से भरी हुई है। पथरीला दरपीला बंदेली लोक हमारी आत्मा है। जिसमें लोक संस्कृति की खुशबू समाहित है। वसंत का चरम उत्कर्ष होली है। बंदेली लोक-काव्य की फाग-विधा अपनी समृद्धि और लोकप्रियता सबसे आगे रही है। फागों का मूल उत्सव फागोत्सव हैं। बारहों महिने फागें गाईं जाती हैं।
डम डम डमरू की सुनी झेलन की झनकार,
देवधनी के धाम पै सबकी होत पुकार।
कारस देव कन्हैया जग में सबके पीर हरइया,
जन-जन की पीर, कलजुग में दूर करइया,
गैंयन की लाज, भैंसिन के पीर हरइया,
उन देवधनी बाबा की कहूँ कहानी,
उन झाँझ के कन्हैया की बात पुरानी।।
बुंदेली लोक गीतों में ‘लेद गायिकी प्रसिद्ध है। लेद में ध्रुपद के स्वर की स्पष्टता, धमार की लयात्मकता, ख्याल की कल्पनाशीलता, ठुमरी की चंचलता और दादरे की वक्रता का सामन्जस्य है लेकिन लोक संगीत ने उसे दादरा- कहरवा तालों में ढाल कर अपनाया। ‘लेद’ अकेले नहीं गाई जाती। ‘लेद’ वसंत पंचमी से होली तक गाई है। फाग का लेद से घनिष्ठ संबंध है। लेद गायिकी पर आधारित फाग शती की देन हैं। चौकड़िया और खड़ी फागों का जन्म 19वीं शती के अंतिम चरण से हुआ।
चौकड़िया और खड़ी फागों का उदभव प्राचीन ‘लाल फागो से हुआ है। बुंदेली फाग-गीतों पर सबसे अधिक प्रभाव कबीर, सूर और मीरा के पदों का है । ‘राई’ बुंदेलखंड का नृत्य है। यह नृत्य होली के अवसर पर होता है। प्रकृति के आँगन में फागुन ने अपनी दस्तक दे दी है। लोक जीवन का अपना अलग-अलग अंदाज और आनंद है। वसंत का मौसम। फगुनाई का मौसम।
भौंरे गुनगुनाने लगे। कोयले कूकने लगीं। आम बौर गये। ईसुरी गाने लगे
गोला मौं पै पटियाँ पारें, सुंदर माँग संवारें,
मानों स्वच्छ चन्द्र के ऊपर, कागा पंख पसारें।
दोऊ तरफ बहै सुंदर सी गंगा-जमुना धारें,
तिरबैनी बैनी खौं देखत, राती सिमट किनारें,
ईसुर कात दरस के होतन, कलमल सिसर निकारें।।
सभी ऋतुओं का राजा है वसंत । खेतों में पीली-पीली सरसों फूलने लगी। पोर-पोर उमंग से भरी नई नवेली दुलहिन सी सरसों। इस ऋतु में प्रकृति ने वृक्षों को नई शक्ति प्रदान की। ऐसी प्राकृतिक छटा निहार के कवि गाने लगा है।
फूली फूल बाग फुलवारी, लखें लखन रघुराई।
टेसू पान तड़ाग तीर के, सोभा वरन न जाई।
क्यारिन में कुंजन की करनी, ज्यों विधि शत बनाई।
बेली बेल वितानन ऊपर, ऋतु वसंत की छाई।
ख्याली जनकसुता जग-जननी, गिरजा पूजन आई। ईसुरी ने वसंत का वर्णन इस प्रकार किया है
अब रितु आई वसंत बहारन, लगे फूल फल डारन,
बागन बनन बंगलन बेलन, बीथी नगर बजारन,
हारन हद्द पहारन पारन, धवल धाम जल धारन,
तपसी कुंटी कन्दरन माही, गई बैराग बगारन,
ईसुर कंत अंत घर जिनके, तिने दैत दुख दारुन।।
वसंती पर्व से लेकर शिवरात्रि तक यह क्रम चलता है। ढेर-ढेर साँस्कृतिक-बिम्ब, साँस्कृतिक चेतना को जाग्रत करते हैं। ऐसा है ये वासंती मौसम।