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Bundelkhand Ki Lok Kalaye बुन्देलखण्ड की लोक कलाएं

Bundelkhand Ki Lok Kalaye बुंदेलखंड के  जनमानस की आत्मा  हैं । यह कलायें  बुंदेली लोक जीवन रची बसी हुई हैं । बुंदेली लोक कलाओं  में बुंदेली  लोकगीतों की अनेकों विधाएं हैं जिनमे  आल्हा गायन,  बंबुलिया गीत,  फाग गायन,  राई  गायन,  दिवारी गायन के साथ अनेक तरह की  शौर्य गाथायें  राछरे,  पंवारे । अनेक  लोकनृत्य  राई, कानड़ा, सैरा नृत्य, बधाई नृत्य, ढिमरयाई नृत्य, नौरता आदि नृत्यों से परिपूर्ण  बुंदेली लोक कलाओं में बुंदेलखंड के जनमानस की आत्मा बसती है ।  

बुन्देलखण्ड 

Folk Art of Bundelkhand

बुन्देली लोकगीत Bundeli Folk Song
शौर्य और शृंगार की धरती बुन्देलखण्ड की कला-संस्कृति सबसे अलग है। यहाँ के लोक-गीतों में शौर्य और श्रृंगार के भाव गुम्फित होते हैं । लोकगीतों के विषय पारिवारिक पृष्ठभूमि लिए हुए होते हैं, जिनमें लोकजीवन की सामाजिकता का सम्पुट होता है। लोकगीतों में लोकधुनों की माधुरी का वैविध्य बुन्देली लोकगीतों की खास पहचान है। जितने भी तरह के लोक-राग देश में प्रचलित हैं, वे सब बुन्देली लोकगीतों में प्रयुक्त हुए हैं।

आल्हा गायन Aalha
आल्हा-गान वीररस-प्रधान काव्य है। आल्हा की रचना लोककवि जगनिक ने लगभग एक हजार वर्ष पहले की थी। आल्हाखण्ड की मूल-भाषा बुन्देली थी, इस कारण जगनिक द्वारा लिखी आल्हाउदल की बावन लड़ाइयाँ लोककण्ठों में सहज रूप से स्थान पा सकी हैं। आल्हाखण्ड संसार की सबसे लंबी गाथाओं में से एक है।

भोलागीत अथवा बम्बुलिया Bambuliya
बम्बुलिया बुन्देलखण्ड की धार्मिक परंपरा के मधुर गीत हैं, जिन्हें लमटेरा गीत भी कहा जाता है । बम्बुलिया गीत प्रायः स्त्री-पुरुष समूह द्वारा बिना वाद्य के श्रावण मास में शिवरात्रि, वसन्तपंचमी, मकर संक्रान्ति के अवसर पर गाया जाता है। बम्बुलिया गीतों की राग लंबी होती है।

गीत प्रश्नोत्तर-शैली में होते हैं, उनका दोहराव होता है। भीलागीत शिव और शक्ति से संबंधित होते हैं। नर्मदा स्नान जाते समय महिलाएँ समूह में भोला गीत गाती हुई निकलती हैं।

फाग गायन Faag
फाग-गायन होली के अवसर पर होता है। फागुन माह के लगते ही समूचे बुन्देलखण्ड में फाग-गायन शुरू हो जाता है, जो रंगपंचमी तक चलता है। स्त्री-पुरुष एक दूसरे पर रंग गुलाल लगाकर गीत गाकर नृत्य करते हुए फाग खेलते हैं। फाग में मृदंग, टिमकी, ढप और मँजीरा बजाया जाता है।

बेरायटा गायन Berayta
बेरायटा मूलतः कथा-गायन-शैली है, जिसमें मुख्यरूप से महाभारत कथाओं के साथ अनेक ऐतिहासिक चरित, लोकनायकों की कथाएँ गाई जाती हैं। बेरायटा गायन केन्द्रीय रूप से एक व्यक्ति गाता है और सहयोगी गायक मुखिया का साथ देते हैं और कथा को आगे बढ़ाने के लिए हुंकारा देते हैं, बीच-बीच में कुछ संवाद भी बोलते हैं।

दिवारी गायन Diwari
दिवारी -गायन दोहों पर केन्द्रित होता है। अहीर, बरेदी, धोसी आदि जातियों में देवारी गायन और नृत्य करने की परंपरा है। दीपावली के अवसर पर ग्वाल-बाल सिर पर मोरपंख धारण कर घर-घर दिवारी माँगते हैं, नेग पाते हैं और ऊँचे स्वर में दोहा गाकर ढोलक, नगड़िया, बाँसुरी की समवेत धुन पर नृत्य करते हैं । दिवारी के दोहों के विषय कृष्ण-राधा प्रेम-प्रसंग, भक्ति तथा वीर-रस से पूर्ण होते हैं।

जगदेव का पुवारा Jagdev’s Panvara
पुवारा मूलतः भजन-शैली में है। देवी की स्तुति से संबंधित एक लंबा आख्यान, जिसे भक्तें कहते हैं, चैत्र और क्वाँर मास में गाते हैं। इस अवसर पर जवारा गीत भी गाए जाते हैं । देवीगीतों को लेद के नाम से भी जाना जाता है।

बुन्देलखण्ड के लोकनृत्य
राई Rai
राई बुन्देलखण्ड का एक लोकप्रिय नृत्य है। जन्म, सगाई-शादियों, उत्सवों के अवसर पर राई नृत्य का आयोजन प्रतिष्ठा प्रदान करता है। राई के केन्द्र में नर्तकी होती है, जिसे गति देने का कार्य मृदंग वादक करता है।

राई नृत्य के विश्राम का स्थान स्वाँग ले लेते हैं, स्वाँग के माध्यम से हँसी-मजाक की सटीक प्रस्तुति गुदगुदाने का कार्य करती है। बेजोड़ लोक संगीत, तीव्र गति नृत्य और तात्कालिक कविता के तालमेल ने राई नृत्य को एक ऐसी सम्पूर्णता प्रदान कर दी है, जिसका सामान्यतः अन्य लोक नृत्यों में मिलना दुर्लभ ही है।

कानड़ा Kanhda
बुन्देलखण्ड में कानड़ा या कनड़याई मूल रूप से धीवर समाज के लोग करते हैं। इसमें पहले गजानन भगवान् की कथा गाई जाती है। साथ ही गायन से पूर्व गुरु वंदना भी की जाती है। मुख्यत: यह नृत्य जन्म, विवाह आदि पर किया जाता है। कानड़ा नृत्य में मुख्य वाद्य सारंगी, लोटा, ढोलक और तारें होते हैं। कभी-कभी ढोलक की जगह मृदंग का भी प्रयोग किया जाता है। कानड़ा की एक खास वेशभूषा होती है।

सैरा नृत्य Saira
बुन्देलखण्ड में श्रावण-भादों में सैरा नृत्य किया जाता है। यह पुरुष-प्रधान है। इस नृत्य में 14 से 20 व्यक्ति भाग लेते हैं। उनके हाथों में लगभग सवा हाथ का एक-एक डंडा रहता है। नर्तक वृत्ताकार में खड़े होकर कृष्ण लीलाओं से संबंधित गीत गाते हुए नृत्य करते हैं। नर्तक की वेशभूषा साधारण होती है। साफा, कुर्ता, बंडी, धोती, हाथ में रूमाल तथा कमर में कमर-पट्टा और पैरों में घुघरू होते हैं। इस नृत्य में ढोलक, टिमकी, मँजीरा, मृदंग और बाँसुरी वाद्य प्रमुख होते हैं।

बधाई Badhai
बुन्देलखण्ड के ग्रामीण अंचलों में सगाई-विवाह के अवसर पर बधाई नृत्य करने की परंपरा है। इस नृत्य में स्त्री-पुरुषों की संयुक्त भूमिका होती है। पहले नर्तक-समूह वृत्ताकार में खड़े होकर नृत्य करते हैं। फिर एक-एक करके वृत के भीतर जाकर विभिन्न मुद्राओं में नृत्य किया जाता है।

इस नृत्य में दो नर्तक और नर्तकी एक-साथ नाचते हैं। बधाई नृत्य में बधाई ताल बजाई जाती है। बधाई ताल मूलत: ढपले और मिरधिंग पर बजाई जाती है।

ढिमरियाई Dhimaryai
बुन्देलखण्ड में सामान्यत: ढीमर जाति के लोग इस नृत्य को करते हैं, इसलिए इसे ढिमरियाई नृत्य कहते हैं। सगाई-ब्याह एवं नव दुर्गा आदि अवसरों पर यह नृत्य किया जाता है। नृत्य करते समय प्रमुख नर्तक शृंगार और भक्ति के गीत गाता है।

मुख्य नर्तक कत्थक’ की तरह पदचालन करते हुए गीतों को हाव-भाव द्वारा समझाने की चेष्टा करता है। इस नृत्य की विशेषता पदचालन की है। दौड़ना, पंजों के बल चलना, मृदंग की थाप पर कलात्मक ढंग से ठुमकना, पदाघात करना आदि। समय पर द्रुत गति से घूमते हुए सात-आठ चक्कर लगाना, इसके प्रमुख भाव हैं। इस नृत्य में रेकड़ी, खंजड़ी, मृदंग, ढोलक, टिमकी आदि वाद्य बजाए जाते हैं।

रावला
रावला लोक विधा का आधार विदूषक और पुरुष नायिका है। बुंदेलखंड की  लोकविधा रावला जातीय लोक नृत्य है।  यह नृत्य धोबी, चमार, काछी, ढीमर, अहीर, गड़रिया, कोरी, बसोर , मेहतर आदि जातियों में लोक प्रचलित है। Bundelkhand ka Rawla निम्नवर्गीय जातियों के शादी-विवाहों में विशेष रूप में प्रचलित होने से रावला व्यावसायिक बन गया है।

पुरुष नायिका विशेष बुन्देलखंड की लोकविधा रावला

इस नृत्य में पुरुष पात्र ही भाग लेते हैं। एक पुरुष स्त्री का वेश धारण करता है और दूसरा विदूषक बनता है। विदूषक हास्य-व्यंग्य के माध्यम से समाज की विकृतियों की पोल खोलता है और नव चेतना का संदेश भी देता है। पुरुष नायिका के हाव भाव एवं भंगिमायें, साज सज्जा एवं वेशभूषा इतनी ज़्यादा स्त्रियोंचित (feminine) लगती है।

रावला नृत्य में किसी प्रकार का मंच की आवश्यक्ता नहीं होती है यह लोक नृत्य दर्शकों के बीच ही प्रदर्शित किया जाता है। चारों तरफ दर्शक होते हैं बीचो- बीच विदूषक और पुरुष नायिका होती है उसी के एक छोटे से हिस्से में (Accompanist) संगतकार वादक बैठते हैं। रावला की खास बात यह भी होती है यह कार्यक्रम रात्रि के भोजन के बाद शुरू होते हैं और जब तक सुबह नहीं होती तब तक चलते रहते हैं।

नौरता Naurata
नौरता नवरात्रि में किया जाने वाला कन्याओं का नृत्य है। यह नृत्य शक्ति-पूजा का नृत्य है।


बुन्देली लोकनाट्य 

स्वाँग Swang
स्वाँग बुन्देलखंड का पारंपरिक लोकनाट्य है। इसे राई नृत्य के बीच में हास्य और व्यंग्य के लिए किया जाता है। स्वाँग की अवधि अधिक-से-अधिक दस-पन्द्रह मिनिट होती है। इसमें नकल उतारी जाती है। स्वाँग में अधिक-से-अधिक तीन या चार पात्र होते हैं। पुरुष ही स्त्री का अभिनय करते हैं। इसमें एक विदूषक-पात्र भी होता है। धतूरा खान, ब्याव को स्वाँग, भूरी भैंस, पंडित ठाकुर आदि प्रसिद्ध स्वाँग है।

बुन्देली लोक-चित्रकला
पर्व-त्योहारों पर बुन्देली महिलाएँ उनसे संबंधित चित्र-रेखांकन बनाकर उनकी पूजा-कथा कहती हैं। वर्ष भर कोई-न-कोई चौक-चित्र बनाने की परिपाटी समूचे बुन्देलखण्ड में मिलती है।

सुरौती Surauti
बुन्देलखण्ड का पारम्परिक भित्ति चित्रण है। दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी पूजा के समय सुरैती का रेखांकन महिलाओं द्वारा किया जाता है। इस चित्र में देवी लक्ष्मी की आकृति उकेरी जाती है, वहीं भगवान विष्णु का आलेखन किया जाता है। सुरैती का रेखांकन गेरू से किया जाता है।

नौरता Naurata
नवरात्रि में कुंवारी कन्याओं द्वारा बनाया जाने वाला भित्ति- सुरौती लोकांकन ( बुन्देली शैली) चित्र है,जो मिट्टी, गेरू, हल्दी, छुई आदि से बनाया जाता है। लड़कियाँ सुआटा संबंधी गीत गाती हैं। मोरते- मोरते विवाह के अवसर पर बनाए जाने वाले भित्ति-रेखांकन है। यह दरवाजे के दोनों तरफ की दीवार पर बनाए जाते हैं। पुतरी की आकृति ‘मुख’ होती है। इसी जगह दूल्हा-दुल्हन हल्दी के थापे लगाते हैं।

गोधन /गोवर्धन Govardhan
गोवर्धन गोबर से बनाए जाते हैं । दिवाली पड़वा पर इनकी पूजा की जाती है। भाई दूज के दिन गोबर से दोज-पुतलियाँ बनाई जाती हैं।

चौक Chauk
बुन्देलखण्ड में चौक बनाने की प्रथा सबसे अधिक है। जीवन में ऐसा कोई भी अवसर नहीं होता होगा, जब चौक न पूरे जाते हों। चौक चावल, गेहूँ-ज्वार के आटे, हल्दी, कुमकुम से बनाए जाते हैं । छुई, खड़िया और गेरू से भी कहीं-कहीं चौक बनाए जाते हैं । जन्म, जनेऊ, मुंडन, विवाह आदि सोलह संस्कारों में चौक बनाने की परंपरा है, यहाँ तक कि मृत्यु के अवसर पर भी चौक बनाने की प्रथा है।

According to the National Education Policy 2020, it is very useful for the Masters of Hindi (M.A. Hindi) course and research students of Bundelkhand University Jhansi’s university campus and affiliated colleges.

मालवा की लोक कलाएं 

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adminhttps://bundeliijhalak.com
Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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