Homeबुन्देलखण्ड का शौर्यBundelkhand ki Krantikari Nariyan बुन्देलखंड की क्रांतिकारी नारियाँ

Bundelkhand ki Krantikari Nariyan बुन्देलखंड की क्रांतिकारी नारियाँ

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम कोई छोटी-मोटी लड़ाई नहीं थी। एक लम्बी लड़ाई थी, जिसकी प्रक्रिया सदियों चली। आजादी की लड़ाई में केवल पुरुष वर्ग की ही भूमिका नहीं थी Bundelkhand ki Krantikari Nariyan भी इस लड़ाई में बढ़-चढ़कर आगे आयी और हिस्सा लिया।

इतिहास साक्षी है कि भारत की नारी शक्ति ने विदेशी शासन का विरोध करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। बुंदेलखंड में सन् 1840-42 से ही सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। इस सुगबुगाहट को हाहाकार का रूप लॉर्ड डलहौजी की हड़प नीति ने दे दिया था। झाँसी, जैतपुर, जालौन, छतरपुर सहित अनेक ऐसी देशी रियासतें थीं जहाँ अंग्रेजों ने विधवा रानी को रीजेंट तो माना किंतु उनके द्वारा गोद लिए पुत्र को वैध नहीं माना और उनकी रियासतों को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया।

बुंदेलखंड में स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाली महिलाओं पर विचार करते हैं तो गौड़ रानी दुर्गावती ने मुगलकाल में सर्वप्रथम अपनी तलवार चमकाई थी। गौंड़वाने की रानी दुर्गावती की अप्रतिम वीरता को इतिहास के पन्नों से कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। बुंदेलखंड में छतरपुर जिले की लौंड़ी तहसील में एक ताल्लुका टटम है। वहाँ के जागीरदार बहादुर सिंह की पुत्री राजो थी। 1820 में राजो का विवाह पारीछत से हो गया था।

उस समय दोनों ही अवयस्क थे। जैसे-जैसे पारीछत और रानी राजो वयस्क होते गये, अंग्रेजों के प्रति उनकी घृणा और प्रबल होती गई। इनके कोई संतान नहीं थी। रानी राजो ने अपनी बहिन के लड़के जालिम सिंह को अपने पास रखा हुआ था। एक युद्ध में जालिम सिंह की मृत्यु हो गई थी, इससे महारानी राजो एकदम टूट गईं थीं। इस निसंंतान दम्पति ने प्रजातंत्र की भावना से अंग्रेजों से संघर्ष किया था और प्रजातंत्र शासन के सपने को साकार करने के प्रयास में अपने प्राण होम कर दिये थे।

महारानी लक्ष्मीबाई का क्रांतिकारी व्यक्तित्व 1857 के स्वाधीनता समर के सेनानियों के लिए प्रेरणा का विषय रहा है। लक्ष्मीबाई बहुत दयालु और स्नेहिल स्वभाव की थीं परन्तु मातृभूमि की रक्षा के लिए वे विदेशी शासकों के लिये मौत का फरमान बन गईं थीं। बुंदेलखंड में लक्ष्मीबाई ही ऐसी शक्ति थीं, जिन्होंने ब्रिटिश सत्ता से संघर्ष करते हुये आजादी की लड़ाई को झाँसी से बाहर कालती, जालौन कोंच तथा ग्वालियर तक व्यापक बनाया। वे अपनी वीरता , बलिदान के कारण एक किंवदंती बन गई हैं। प्रसिद्ध क्रांतिका सुभद्रा कमारी चौहान की “खूब लड़ी मदानी वह तो झाँसी वाली रानी थी कविता जन-जन की प्रेरणा स्रोत बन गई।

महारानी लक्ष्मीबाई की सहयोगी झलकारी बाई का जन्म झाँसी जिले के ग्राम भोजला में अनुसूचित जाति कोली के परिवार में हुआ था ये महारानी लक्ष्मीबाई की स्त्री सेना की अत्यंत विश्वस्त और योग्य सेनानी थीं। जितनी खूबसूरत उतनी ही  घुड़सवारी तथा अस्त्र-शस्त्र संचालन में निपुण।

मोतीबाई नृत्य एवं गान विद्या में पारंगत थी तथा लक्ष्मीबाई सेनानी के रूप में विख्यात थी। झाँसी के राजा गंगाधर राव की नाट्यशाला की  कुशल अभिनेत्री भी थी। वह खुदावख्श नाम के प्रसिद्ध तोपची से प्रेम करती थी  उसकी कर्तव्यनिष्ठा, वीरता एवं साहस ने लक्ष्मीबाई को बहुत प्रभावित किया था।

मुंदर लक्ष्मीबाई की प्रिय दासी और सहेली थी। बाद में स्त्री सेना में भर्ती होकर युद्ध के मैदान में रानी के साथ युद्ध में सहयोग किया। मुंदर दीवान रघुवंशराव से प्रेम करती थी। ग्वालियर के युद्ध में एक अंग्रेज सैनिक की गोली लगने से मुंदर वीरगति को प्राप्त हुई थी। मुंदर का दाह संस्कार लक्ष्मीबाई के शव के साथ बाबा गंगादास की कुटिया में किया गया था।

जुही सौंदर्य और शौर्य की देवी थी। वह अमर सेनानी तात्याटोपे से प्रेम करती थी। जूही तोप चलाना भी जानती थी। अपनी तोपों से उसने अंग्रेजी सेना पर गोले बरसाये थे।

महारानी अहिल्याबाई होल्कर का नाम इतिहास प्रसिद्ध है। अहिल्याबाई के दत्तकपुत्र तुकोजीरा के चार पुत्र थे। उनमें से यशवंतराव बहुत वीर और पराक्रमी थे। इन्हीं यशवंतराव की पुत्री भीमाबाई थीं यशवंतराव ने अंग्रेजों से कई युद्ध किये थे। सन् 180 में चंबलघाटी में हुए भीषण युद्ध में इन्होंने कर्नल मोन्सुन को पराजित किया था।

भीमाबाई को साहस और समय की पाबंदी अपने पिता से विरासत में मिले थे। भीमाबाई बुंदेलखंड की बहादुर महिला थी। इसी तरह बुंदेलखड अचल में जिन वीरांगनाओं ने राष्ट्रभक्ति की चेतना जाग्रत की थी उनमें एक अत्यंत प्रसिद्ध नाम रामगढ़ की रानी अवंतीबाई लोधी का भी है। रामगढ़ के युवराज विक्रमाजीत के साथ सन् 1848 ई. में 17 वर्ष की आयु में इनका विवाह हुआ था।

अवंतीबाई ने मुंगिया सेना तैयार की थी। इस सेना के सभी सैनिक मूगिया की वर्दी पहिनते थे। रानी अवंतीबाई पुरुष वेश में साफा बाँधे घोड़ पर होकर तलवार चलाती थीं। यह बात बिल्कल सच है कि वीरता किसी का घर किसी की धरोहर नहीं होती। वीरता त्याग, शौर्य हृदय के कोने से उपजने वाले स्वाभाविक गुण हैं।

मालती बाई लोधी एक ऐसा ही नाम है। बुंदेलखंड की वीरांगनाओं के इतिहास में जिसने सिद्ध कर दिया है कि वीरता राजघरानों के अलावा गाँव गमई, देहातों में भी जन्म ले सकती है और अपनी चमक से बड़ों-बड़ों को अपनी ओर आकर्षित कर सकती है। मालतीबाई बेतवा के किनारे के एक लोधी किसान की कन्या थी। मालती बाई के साधारण तीर-कमान से लगाये अचूक निशाने देखकर रानी लक्ष्मीबाई दंग रह जाती थीं। मालती बाई की ग्रामीण सेना में 500 युवक-युवतियाँ प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे। ग्वालियर में जब लक्ष्मीबाई दामोदर राव को बाँधे जा रही थीं। नया घोडा नाले पर अड़ गया था। रानी घायल हो गई थी। उस समय मालती बाई रानी की ढाल बनी उनके पीछे-पीछे जा रही थी तभी एक अंग्रेज की गोली लगने से उनकी मृत्यु हो गई थी।

सरस्वती बाई लोधी भी मालतीबाई की समकालीन थीं। इनका जन्म बुंदेलखंड के अंतर्गत पाटन के जागीरदार अर्जुनसिंह लोधी के यहाँ सन् 1840 में हुआ था। राजा साहब ललितपुर छावनी में सूबेदार थे और वहीं रहते थे। छावनी के वातावरण में सरस्वती ने अंग्रेजी बोलना सीख लिया था।

एक जनवरी 1855 छावनी में शकुन्तला नाटक खेला गया। इस नाटक में सरस्वती ने शकुन्तला का अभिनय तथा छावनी के कप्तान थोरंटन ने दुष्यंत का अभिनय किया। थोरंटन सरस्वती के अभिनय से इतना प्रभावित हुआ कि विवाह का प्रस्ताव सरस्वती के समक्ष रख दिया। सरस्वती ने थोरंटन को मुँह तोड़ जवाब दिया था ‘सुअर और सिंहनी’ का सम्बन्ध सम्भव नहीं है। ऐसी थी बुंदेलखंड की नारियाँ।

जालौन की रानी ताईबाई ने अंग्रेजी सरकार की दूरनीतियों के कारण लम्बे समय तक संघर्ष किया था। रानी की क्रांतिकारी भावनाओं के कारण अंग्रेजी सरकार ने उन्हें बारह बरस तक कैद रखा था। छतरपुर की रानी झड़कुंअरि अप्रत्यक्ष रूप से स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की मदद करती थीं। उन्होंने तात्याटोपे की भी सहायता की थी।

महारानी वैजाबाई सिंधिया पूना के सरजाराव घाटगे की पुत्री थीं। ग्वालियर के महाराजा महादत्री सिंधिया के दत्तकपुत्र दौलतराव के साथ बैजाबाई का विवाह मार्च 1798 ई. में हुआ था। वे अस्त्र शस्त्र चलाने में कुशल थीं। वे एक महत्वाकांक्षी महिला थीं। नईम कुरैशी ने अपने एक लेख में लिखा है कि “महारानी बैजाबाई ने 1858 में मुरैना से ग्वालियर के बीच छोंदा ग्राम में अंग्रेजों से युद्ध किया था। उनकी याद के स्मारक छोंदा ग्राम में आसन नदी के किनारे आज भी बने हैं।

मैनावाई प्रसिद्ध क्रांतिकारी नाना साहब की पुत्री थीं। प्रोफेसर हनुमंतसिंह चौहान ने लिखा है कि “स्वाधीनता आंदोलन के अमर सेनानियों में झाँसी की रानी, कानपुर के नाना साहब तात्याटोपे ओरछा के जंगलों को कर्मस्थली बनाकर रहने वाले चन्द्रशेखर आजाद आदि के नाम बुंदेलखंड के राष्ट्रीय क्षितिज पर जगमगाते रहेंगे।” कानपुर में नाना साहब ने क्रांति के समय अंग्रेज महिलाओं को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने का दायित्व मैना को सौंपा था किन्तु क्रूर अंग्रेजों ने इसके अहसान का बदला निर्मम मौत से दिया था।

चेतना की चिंगारी जलाने वाली महिलाओं में अजीजन बाई, नारायणी देवी सुभद्राकुमारी चौहान, रानी राजेन्द्रकुमारी, सहोदरा बाई राय और श्रीमती सावित्री सक्सेना के नाम भी उल्लेखनीय हैं। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बुंदेलखंड की क्रांतिकारी नारियों ने सन् 1857 से लेकर 1947 तक सतत् रूप से योगदान दिया। बुंदेलखंड को गौरवान्वित किया।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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