बुंदेलखंड की धरती त्याग और उत्सर्ग की धरती है। यह भी संस्कृति, कला और साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान रखता है। शस्त्र और शास्त्र का समन्वय है यहाँ। भाई चारे और प्रेम की संस्कृति है । स्थापत्य और शिल्प के प्रतिमान रचे गये है यहाँ। यहाँ की ऋतुयें आनंद और उल्लास बाँटती हैं। सराबोर हो जाते है तन और मन। विशेष रूप से होली के अवसर पर। Bundelkhand ki Holi के अपने होली गीत हैं। जिनमें श्रृंगार, भक्ति और प्रेम त्रिवेणी प्रवाहित होती है।
रंगों की फागुनी दस्तक। फागुनी मादक हवायें। अनराग का प्रतीक लाल रंग प्रकृति में आशा और विश्वास की पुष्टि करता हुआ विभोर कर देता है। होली महोत्सव है। ये उत्सव हमारे जीवन और समाज को नई दिशा देने में समर्थ हैं। ऋतु गीत हमारी पहचान हैं।
नोंनों जौ फागुन कौ महिना,
रंग रंगीलौ आ गऔ,
ऋतु वसंत कौ रूप अनोंखौ,
कन-कन भीतर छा गऔ।
फूल-फूल के फूल खुसी सें,
फूले नई समा रये
कली-कली पै झूम-झूम के,
भौंरा रसिया से गा रये।
वन-वन में बागन में पंछी,
बोलें मीठी बोली,
मायें कोयलियाँ कूक-कूक,
कै रई होली है होली।।
ब्रज और बुंदेली का बहुत करीबी रिश्ता है। ब्रज और बुंदेली सहेली हैं। होली गीतों में ब्रज का प्रभाव बंदेली पर स्पष्ट दिखलाई देता है
रंग डार मोय रंगडारी, अब हेरत टेरत गिरधारी,
तार-तार सारी कर डारी, कर दई निपट उघारी,
मुरझा गई टुइयाँ-सी मुइयाँ, तानें देवै ललिता प्यारी,
ठगी-सी राधा हेरत रै गई, नाचें सखियाँ दै दै तारी,
अबकी होरी बचकें रइयो, जब आहै मोरी बारी,
रस बारे नीके दोऊ नैना, ऐ री देखत सुध-बुध हारी।।
एक छोटे से उत्सव से लेकर राष्ट्रीय लोकेत्सव तक की होली की यात्रा अपने आप में एक महाकाव्य की कथा है। पौराणिक काल में होली के लोकोत्सव की नई व्यवस्था थी। नारद पुराण में फागुन की पूर्णिमा को होलिका-पूजन निश्चित किया गया। नृत्य गीत और हास्य-उल्लास उसकी विशेष पहचान बने। अनेक प्रकार के रंग, अबीर, गुलाल प्रयुक्त करने की छूट मिली। एक समन्वयकारी दृष्टि ने सबको होलिकोत्सव में ढाल दिया।
सखयाऊ फाग और राई दोनों बुंदेली लोक काव्य के आदिकाल की हैं।
नई गोरी नये बालमा, नयी होरी की झाँक,
ऐसी होरी दागियो, कुलै न आबै दाग।
सम्हर के यारी करो मोरे बालमा।
रंग डारौ बचाय, रंग डारौ बचाय,
चोली के फुदना ना बिगरें।
गाँव की गोरी को और राई की नायिका को कुल की मर्यादा और ‘कुंदना की चिंता है। होली है न। होली तो सभी खेलती हैं। स्वकीया और परकीया दोनों। दोनों के अपने अपने रंग हैं। अपने-अपने ढंग हैं।
तोमर काल में ग्वालियर साँस्कृतिक केन्द्र बना। देसी संगीत ने एक नई क्राँति की। लोक गायिकी में एक नई रवानी आई। बुंदेलखंड की रियासतों के राजदरबारों में शास्त्रीय शैली की रागबद्ध फागों की तानें गूंजी किंतु उनका प्रचलन लोक में नहीं हो सका। इतना अवश्य हुआ कि लोक संगीत में ढली हुई पद शैली की फागें वसंत और होली के उत्सवों में गाई जाने लगी। कृष्ण, राधा और गोपियों का लोकीकरण हो गया।
मोपै रंग न डारौ साँवरिया, मैं तो ऊसई रंग में डूबी लला।
काये को जौ रंग बनायो, काये की पिचकारी लला ।
केसर डार रस रंगा बनायो, हरे बाँस पिचकारी लला।
भर पिचकारी सन्मुख मारी, भींज गई तन सारी लला।
जो सुन पाहें ससुरा हमारे, आउनन दैहें बखरियन लला।
जो सुन पाहें जेठा हमारे छुअन न दैहें रसुइया लला।
जो सुन पाहें सैयाँ हमारे आउन न दैहें सिजरियन लला।
भक्ति आंदोलन का केन्द्र ब्रज बना और ब्रज का रसिया बुंदेलखंड आया । बुंदेली ने ब्रज के रसिया को आत्मसात किया किंतु परिवर्तन के साथ। रसिया की लय और गायनशैली बुंदेली लोकगीत बिलवारी की तरह है लेद के ताल-स्वरों में बँधी हुई।
बुंदेलखंड में फाग की एक अनोखी रीति है। भौजी, देवर को एक पटे पर बैठाकर चुनरिया ओढ़ा देती है। पैरों में महावर, आँखों में काजल, माथे पर आदि से सजाकर गालों पर गुलाल मलती है और रंग से सराबोर करती हुई ‘फगुआ माँगती है और देवर मिठाई, आभूषण, वस्त्र आदि भेंट करता है भौजी को।
होरी –
सखी री, लगौ है हमाऔ दाव,
(राग देस) आज जाय रंग में बोरौं री ।
चार सखी मिल काजर गारौ,
ऐसौ बन रऔ भोरौ री,
हात पकर जाकें गुलचा मारौ,
हा, हा खाय जब छोड़ो,
आज जाय रंग में बोरौं री।
चोबा चंदन इतर अरगजा,
केसर गागर घोरौ री,
अबीर गुलाल जाके मुख से मलौरी,
कारे सें करौ जाय गोरौ,
आज जाय रंग में बोरौं री।।
होरी ‘देस’ राग और ‘वागेश्वरी’ में गाई जाती है। फाग में पुरुषों का हिस्सा कम नहीं है। वे गधों पर सवार होकर तरह-तरह के स्वाँग रचते हैं। कुमकुमे और पिचकारियाँ चलती हैं। गीतों के बोल वातावरण में आनन्द की वर्षा करते हैं।
खेलत आनंद होरी,
(राग वागेश्वरी) शंभु गिरराज किशोरी
दामिनी गात मात त्रिभुवन की,
हर मुख चन्द्र चकोरी,
केशर तिलक इतर अरगजा
कुमकुमा झोरी भरी
दोऊ आनन रोरी।
खेलत आनंद होरी।।
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होरी हो ब्रज राज दुलारे,
होरी हो ब्रजराज ।
बहुत दिनन में तुम मनमोहन,
फागई फाग पुकारे
आज देखियो सैल फाग के,
चले कुमकुमा न्यारे,
होरी हो ब्रजराज….
आज जात कहाँ हो,
निकस जननी ढिंग ओ दो बापन बारे,
कै तो निकस होरी खेलौ कै मुख से कहौं हारे
गिरौ चरनन में हमारे – होरी हो ब्रजराज……
लोक काव्य में मर्यादा का उल्लंघन नहीं है। होली की रागिनी में कृष्ण ही नहीं राम-लक्ष्मण भी डूबे हैं…. ।
राजा बलि के द्वारे मची होरी, राजा बलि के।
कौना के हाँतै दुलकिया सो है, कौना के हाँतै मंजीरा री।
राम के हाँतै दुलकिया सो है, लक्ष्मन के हाँतै मंजीरा री।
कौना के हातै रंग की गगरिया, कौना के हाँतै अबीर झोरी री।
राम के हाँतै रंग की गगरिया, लक्ष्मन के हाँतै अबीर झोरी री।
राजा बलि के द्वारें मची होरी।।
अठारहवीं शती के पूर्वार्द्ध के प्रसिद्ध कवि वख्शी हंसराज ने अपने ग्रंथ ‘सनेह सागर’ में फाग की लीला का वर्णन किया है। जिसमें राधा और कृष्ण अपने-अपने दल के साथ फाग खेलते हैं। इस कड़ी का लोक गीत ‘लाल फाग’ है। ‘लाल’ शब्द फाग की हर पंक्ति के अंत में लगाकर एक नये लावण्य की सृष्टि करता है। ‘लाल फाग’ का आविर्भाव पद शैली की फाग से हुआ था।
दोई नैना के मारे हमारे, जोगी भये घरवाले लाल।
जोगी भये घरवारे हमारे, जोगी भये पिय प्यारे लाल।
अंग भभूत बगल मृगछाला, सीस जटा लिपटानें, हमारे…
हाँत लये कुंडी बगल लयें सोंटा, घर-घर अलख जगावें, हमारे…
यह गायकी अपनी मधुरता के कारण आज भी जीवंत है। इस अंचल के प्रसिद्ध कवि पद्माकर होली खेलने का खुला आमंत्रण दे रहे हैं… ।
नैन नचाई, कही मुसकाई,
लला फिर आइयो खेलन होरी।
हुरियारों का घोष, धमार की धुन में गायन, पिचकारी की घालन, गारियों की कहन, फगुआ लेना आदि बुंदेली फाग के चित्र हैं। छंदों का कमाल रहा। छंदयाऊ फाग अपने उत्कर्ष पर रही। 16वीं शती में लावनी का विकास हुआ। जिसने फागकारों को अपनी तरफ खींचा। फलस्वरूप लावनी की फागों की विकास हआ।
छंदयाऊ फाग दीर्घ प्रगीत का आनद देती है। फडवाजी आधार छंदयाऊ फाग है। काव्य और संगीत का समन्वय है इनमें। शास्त्रीयता स्वच्छंदता का सम्मिलन भी है।
टेक- ब्रज में हो रई फाग सुहाई, चलो देखियो भाई।
छ्न्द – जमना के तीर, गोपिन की भीर, मारत अबीर, भर-भर झोरन।
लई पिचक खींच, मच गई कीच, ब्रज बीच-बीच गलियन खोरन
उड़ान- रंग की मार मचाई।
टेक- भये सराबोर गोप उर गोपी, रये सकल मिल गाई।।
भक्त महारानी वृषभानु कुंवरि की लोक कविता की यह पंक्ति नई होरी का एलान करती है- ‘लाल नई नौखी-होरी खिलाई।’ रसिक भक्तों की कविता लोक से जुड़ती चली गई और होली पर लोकछंदों में बहुत-सी रचनायें लिखी गई। होली गीतों में संघर्ष और राष्ट्रीयता की भावना भी प्रतिबिम्बित होने लगी। होरियारे गाने लगे… ।
होरी मच रची जमुना के घाट,
दौनऊँ तरफ फौजन के ठाट।
उतै से लड़े गोरा फिरंगी,
इतै सें अकेली नबाब ।।
अंग्रेजों और जमींदारों के शोषण से उत्पन्न निराशा के विरुद्ध लोकोत्सवों के माध्यम से खुशी पैदा करने की कोशिश की गई और होली सामाजिक चेतना का माध्यम बनी। पुनरुत्थान का प्रयास लोकगीतों ने किया।
लोककवि ईसुरी ने नेतृत्व किया। ईसुरी ने चौकड़िया फाग का आविष्कार करके फाग गायिकी को एक नई दिशा दी। चौकड़िया के आधार पर गंगाधर व्यास ने खड़ी फाग की स्थापना की।
ऐसी पिचकारी की घालन, कहाँ सीक लई लालन।
कपड़ा भींज गये बड़-बड़ के, जड़े हते जरतारन।
अपुन फिरत रंग रस में भींजे, भिंजै रये ब्रजबालन।
‘ईसुर’ आज मदन मोहन नें, कर डारी बेहालन।।
चौकड़िया की लय ही उसकी गायकी का आधार है। बुंदेली लोकगायकी में ‘लेद’ का आविष्कार एक ऐतिहासिक घटना है। दतिया के बुंदेला नरेश भवानी सिंह के शासनकाल में उनके दरबार में कलाकारों का जमघट लगा रहता था। संगीत और नृत्य को विशेष आदर प्राप्त था। ऐसे वातावरण में लेद गायकी का प्रस्फुटन हुआ। दतिया की गायिकी के रंग की कोई बराबरी नहीं थी।
‘दतिया को रंग चिनार, सजन बरके रइयो हुरियारिन सें’ आज के इस यांत्रिक समय में अशांति के रंग इतने गहरे हो गये हैं कि लोक के उत्सव फीके हो गये। बदरंग हो गये। पिचकारी घाली जाती है पर मन से नहीं। किंतु ऐसी मानसिकता के खिलाफ लोकसंस्कृति के कुमकुमा घलना शुरू हो गये नई आशा और विश्वास के नये रंग लेकर –
फिर अइयो खेलन होरी लला।
केशरिया रंग घोर धरेंगे,
बस पिचकारी लइयो लला।
संग रहेंगी सखियाँ हमारी,
तुम रसियों संग अइयो लला।।
इस होरी में कुछ शब्द खड़ी बोली के आ गये हैं, जो नया भाषा रूप दर्शाते हैं। काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से बहुत सुंदर। होली बुंदेलखंड के उत्साह, उल्लास, सौहार्द्र, संगीत और संगति का विशेष त्यौहार है। वसंत पंचमी से यह त्यौहार आरम्भ होता है और चालीस दिन तक चलता है। गुलाबों से सजा शास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत, लेद, टप्पा, दादरा, धमार, राग वसंत, होली-फाग-रसिाया, रावला गायन, ठुमरी की ठमक, ख्याल की गायिकी, ढोलक और नगड़िया की गमक सब एकाकार हो जाती हैं।
फागुन से बैसाख तक उल्लास के गीतों से धरती थिरकने सी लगती है। हवायें कानों में कुछ कहती हैं। टेसू के फूलों की झाँकी बाँकी है। रावला के शब्दों में – रस चुई चुई जाय ‘महुआ मदन रस भरे – के भाव फूट-फूट पड़ते हैं। झूमते-नाचते गाँव सारे दुख भूल जाते हैं, फसलें आने की खुशी में। बुंदेलखंड के अधिकांश क्षेत्रों में फाग राग की मस्ती-आगे पूरे वर्ष के लिये यथार्थ से लड़ने की तैयारी है।
होलिका दहन के बाद फागों का सामूहिक क्रम वैसाख तक चलता है। फाग गायकों की स्पर्धा टोलियाँ एकत्रित होती हैं और चौकडयाऊ तथा छन्दयाऊ फाग की गायिकी की प्रतियोगितायें रात-रात भर चलती हैं। साखी फिर नगडिया की टंकार और मृदंग की झंकार और सारंगी के स्वर साकार हो उठते हैं। संगति का सुख मिलता है। फड़वाजी के आनन्द के क्या कहने?
गाँव में घर-घर हुरयारे छैला राधाकृष्ण और गोपियों के भाव भरे होरी खेलते दिखते हैं। देवर-भाभी की होली, जीजा-साली की होली, रंग-गुलाल से सराबोर करने की हुलक देखते बनती है। स्नेह का प्रदर्शन, श्रृंगार रस की सरसता और रसज्ञता के दर्शन होते हैं।
आओ आओ तुम नेक अब डारौ तौ गुलाल.
मार-मार गुलचा, हम करें लाल-लाल,
बड़े बनें बाप के, तौ हम नइयाँ छोट,
दुकियो नई आज नेक मैया की ओट।
जहाँ छैला अपनी पिचकारियों के रंग से भौजी की साड़ी को सरसोर करते हुए भागते हैं, वहीं गोपी के भाव भरी भौजाई उन्हें चुनौती देती है ।
मार य कुमकुम तौ मीड़ है अबीर।
तार-तार करहै तोय जात के अहीर।
देवर जहाँ भाभी को छेड़ते रहते हैं उनकी ये भाभियाँ उनकी करतूतों का बदला होली के मौके पर लेती हैं
असली हौ बाप के तौ मींडौ अब गुलाल।
साँवरौ-सौ रूप तेरौ करें लाल-लाल।
होरी खेलबौ –
होरी खेलबौ हो बाँके सरताज…..
फागुन मास की पूर्णिमा को हर मोहल्ले की होलिकायें पूरे अनुष्ठानों से जलाई जाती हैं। बरबुलियाँ बनाई जाती हैं। होली के पूरे जल जाने पर उसकी आग सभी लोग अपने घरों की होली उस आग से जलाकर नई अग्नि का आहवान करते हैं। नई बालों को (नवान्ह) को भूनते-प्रसाद ग्रहण करते हैं। नई ऊर्जा प्राप्त करते हैं। ये हमारी बुदेली संस्कृति की सामुदायिकता का बेजोड़ उदाहरण हैं।
होली जलने के दूसरे दिन फाग के हुरदंग जनमानस को आनंदित करते हैं। परवा को कीच–गिलाय की होरी खेली जाती है। आत्मिक हुलास का पर्व। सब कुछ भूल जाने का पर्व। फाग की अपनी उमंग और मस्ती होती है।
“मत मारो पिचकारी,
मोरी भीजै रस चूनरी।।“
मंदिरों में भक्ति और संगीतज्ञों की फागें होती हैं। ये होली पड़वा से पंचमी तक चलती है। ‘उड़त गुलाल लाल भये बादर’ – साकार हो उठते हैं। होली के समैया के विविध प्रसंग हमारी लोक चेतना की देन हैं। बुंदेली के तीन प्रमुख कवि-गायक हमारे गौरव हैं। ईसुरी के साहित्य का अमरत्व, ख्यालीराम का गायन और ठसक, गंगाधर व्यास की गरिमामयी लोक-लालित्य की रचनायें आज भी आत्मिक आनन्द देती हैं।
मन मानी छैल खेलौ होरी।
लाज सरम सब देओ टोरी।
मइना मस्त लगौ फागुन कौ।
अब ना कोऊ दै है खोरी।
धरै न नांव पुरा – पाले के।
लडै न सास – ननद मोरी।
गंगाधर ऐसे औसर पर।
मन की लगन बुझै तोरी।।
होली के ये हुलास जीवन में नई प्रेरणा और शक्ति का संचार करते हैं। समाज को परस्पर जोड़ते हैं और राष्ट्रीय विकास के लिए सामुदायिक उल्लास देने में समर्थ हैं। ऋतु गीत हमें हमारी मूल विरासत से जोड़कर खुशी प्रदान करने में सहायक हैं।
फागुन के दिन चार।
सखी री अपनों बालम माँगै दै दो।
सुन्ना री दूंगी, रूपा री दूंगी,
मोती देऊँगी अनमोल।
जोवना न देऊँगी; मैं रार करूँगी।
सखी री अपनों बालम माँगै दै दो।।