लोक वाद्य-संगीत लोगों के जीवन के उल्लास और भावनाओं का प्रतीक है। Bundelkhand Ke Lok Vadhya बुन्देलखण्ड की संस्कृति की अगुवाई करते हैं । लोकगीत मानव हृदय की सरल भावनाएं हैं, जिन्हें वह शब्दों और स्वरों के माध्यम से व्यक्त करता है। गीतों में लय की प्रधानता होती है, जिसके लिए वाद्यों की आवश्यकता थी, फलस्वरूप लोकगीतों में वाद्यों का प्रयोग होने लगा।
लोक संगीत की सहजता और उसका सौन्दर्य किसी से छिपा नहीं है। सभी वर्गों की भाषा कला और संस्कृति एक दूसरे से भिन्न होती है । भिन्न-भिन्न अवसरों पर भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियों के लिए लोक में अनगिनत वाद्य यन्त्र पाये जाते हैं।
स्वरों की तन्मयता व भिन्न-भिन्न लय की गति पर गुनगुनाते एवं थिरकते उसके पाँव उत्तरोतर विकास का क्रम बन गये। लोक के अत्यधिक समृद्ध होने पर वेद शास्त्र आदि की रचना हुई है। अतः सर्वविदित है कि “शास्त्रीय संगीत की उत्पत्ति लोक संगीत से हुई, तो निश्चय ही लोक संगीत अपने आप में पूर्ण होना चाहिए लोक संगीत का निर्माण स्वभाविक है । इसको समझकर जब हम विश्लेषण करके नियम बद्ध करते हैं तब वह लोक से हटकर शास्त्रीय रूप धारण करता है।
बुन्देलखण्ड कला एवं संस्कृति का गढ़ रहा है। यहाँ लोकगीत, लोकवाद्य तथा लोकनृत्य लोक जीवन के अंग रहे हैं। लोक वाद्यों का प्रयोग, लोकगीत, तथा लोक नृत्यों, संगत करने एवं स्वतंत्र रूप से भी किया जाता है। लोकजन आडम्बरहीन सहज होता है और सहज उपलब्ध वस्तुओं एवं उपेक्षित वस्तुओं से वाद्यों का निर्माण भी कर लेता है। जैसे-गोल तुम्बे से एक तारा, बांसों से बांसुरी व नरकुल, अलगोजा आम की गुठली से पपीरी, ताड़ व बरगद के पत्तों से पिपहरी । यहाँ तक की घरेलू वस्तुएं जैसे- लोटा, थाली, सूप, चलनी, चिमटा, कटोरा,घडा, ताली एवं चुटकी आदि वाद्यों का रूप ले लेती हैं ।
चतुर्भुज दास कथित ‘खटऋतु की वार्ता’ में 36 वाद्य यंत्रों का उल्लेख हुआ है- वीना, बीन, मुरली, अमृत कुण्डली, जलतरंग गगनभेरी, धौंसा, दुन्दुभी, निसान, नगाड़ा, शंख, घंटा, मुहचंग सिंगी खंजरी, ताल, षटताल, मंजीरा, मुहर, घाटी झालर, ढोल, ढप, डिमडिम, झांझ, मृदंग, गिड़गिड़, पिनाक, रबाब जंत्र, शहनाई, श्रीमण्डल, सांरगी, दुधारी, करताल, तुरही, तथा किन्नरी ।
पौराणिक कथाओं में भी हमें किसी न किसी रूप में वाद्य मिलते हैं; जैसे शिव का डमरू, कृष्ण की बांसुरी, विष्णु का शंख आदि। लोक जीवन में उल्लास और उत्साह को बढ़ाने के लिए वाद्यों का प्रयोग हमेशा से होता रहा है। नृत्य और गीत दोनों ही वाद्यों पर आधारित हैं।भारत में, भरत मुनि के नाट्य शास्त्र (200 ईसा पूर्व और 200 ईसवी में रचित) के मुताबिक, वाद्य यंत्रों को चार समूहों में बांटा गया है:
1- अवनद्ध वाद्य या ताल वाद्य
2 -घन वाद्य या ठोस वाद्य
3 -सुषिर वाद्य या वायु वाद्य
4 -तत वाद्य या तार वाले वाद्य
अवनद्ध वाद्य या ताल वाद्य
ये तालवाद्य यंत्र हैं। ध्वनि का उत्पादन एक फैली हुई खाल, जैसे कि ड्रम, से होता है। मेम्ब्रेनोफ़ोनिक यंत्र चर्म कम्पित्र के रूप में कार्य करते हैं क्योंकि खिंची हुई खाल या झिल्ली पर जब आघात किया जाता है, खींचा जाता है, या हाथ फेरा जाता है तब वे कंपन द्वारा ध्वनि-तरंगों का उत्पादन करती हैं। एक खोखला पात्र झिल्ली से ढका होता है जिसपर आघात करते ही ध्वनि उत्पन्न होती है।
बुन्देलखण्ड में इसका वादन भजन, ढिमरियाई, तथा रावला आदि नृत्यों में किया जाता है। यह लकड़ी के 6 से 8 इंच व्यास का खोल होता है। जिसकी चौड़ाई 2 से 3 इंच तथा मोटाई आधा से पौन इंच तक होती है। इसके एक ओर ‘गोह‘ का चमड़ा मढ़ा होता है। चौड़ाई वाले हिस्से में तीन-चार जगह घुंघरू या धातु के छल्ले होते हैं। इसे बांए हाथ से पकड़कर दाहिने हाथ से बजाते हैं ।
ढपली
ढपली लकडी या लोहे की चादर से निर्मित गोल घेरे में मढ़ी होती है। ढपले से कुछ छोटी आकार की होती है । इसे ढपलिया भी कहते हैं। लोक कलाकारों द्वारा नृत्य एवं गायन के समय इस वाद्य यंत्र का प्रयोग किया जाता है ।
नगाड़ा/ नक्कारा
भगवान की आरती, पूजा में नगाड़ा का प्रायः प्रयोग किया जाता है। यह ‘नॉद‘ के आकार का मिट्टी या लकड़ी का बना होता है। इसके ऊपरी भाग पर तांत की सहायता से चमड़ा मढ़ा होता है। जिसे डंडियों की सहायता से बजाते हैं। बोल निकालने के लिए टिमकी के आकार तथा उससे कुछ गहरी चमड़ा मढ़ी डिग्गी होती है। जिसे नगाड़े के पार्श्व में रखकर (नगाड़े तथा डिग्गी को) इंड़री पर थोडा तिरछा रखकर बजाते हैं। डिग्गी, नगाडे की सहायिका होती है। इसको चढ़ाने के लिए आग पर सेंकते हैं। नौंटकी में नगाड़े के साथ रखकर बजाते हैं ।
ढोल
ढोलक की अपेक्षा इस वाद्य का मुख चौड़ा होता है अर्थात् ढोलक का बड़ा रूप ही ढोल कहलाता है। रामदल, अखाड़े, धार्मिक या सांस्कारिक वैवाहिक अवसरों पर पंचट (बांस की आधी इंच चौड़ी डेढ़ फुट खपच्ची) एवं डंडी से ढोल वादन करते हैं। डेढ़-दो फुट लंबे तथा 10-12 इंच व्यास लकड़ी का घेरा जिसमें एक ओर पतला तथा दूसरी ओर मोटा चमड़ा मढ़ा होता है।
नगड़िया
यह मिट्टी की कटोरेनुमा आकार जैसी होती है। इसके मुँह पर चमड़े को तांत की सहायता से कसा जाता है। यह आकार-प्रकार में नगाड़े जैसी होती है लेकिन उससे आकार छोटी होती है। इसे लकड़ी की सहायता से बजाते हैं।
स्वर चढ़ाने के लिए धूप या आग दिखाते हैं तथा उतारने के लिए इसके मुंह को गीले कपड़े से पोंछते हैं । बुन्देलखण्ड में इसका प्रयोग संस्कारिक अवसरों, देवी पूजन, भगतें फागें, राई, दिवारी, जवारे तथा कजरियों आदि के अवसरों पर किया जाता है।
मृदंग (पखावज )
यह मृदंग कहा जाने वाला वाद्य ढोलक जैसा ही होता है । यह एक अति प्राचीन अवनद्ध वाद्य है । प्राचीन ग्रन्थों में मृदंग आदि अवनद्ध वाद्यों की उत्पत्ति के ‘भूदंग’ (पखाटज) संबंध में आख्यान प्राप्त होते हैं – एक मत के अनुसार – ” शिव ने त्रिपुरासुर विजय पर जो नृत्य किया, उसमें संगीत देने के लिए ब्रह्मा ने एक अवनद्ध वाद्य का निर्माण किया, जिसका ढाँचा मिट्टी का था, अतः उसे मृदंग कहा गया। “शिव-पुत्र गणेश ने सर्वप्रथम इस वाद्य को बजाया।
यह वाद्य शीशम, आम, सागौन, बीजे की लकड़ी का लगभग 20 इंच या दो फुट का खोल होता है। बांए मुँह की अपेक्षा दाहिने मुंह का व्यास छोटा होता है। तथा बीच का व्यास अधिक होता है। दोनों मुंह बकरे के चमड़े से आच्छादित होते हैं। छोटे मुख की ओर स्याही लगी रहती है। स्वर – ऊँचा – नीचा करने के लिए बड़े मुख की ओर गुंधा हुआ आटा बजाते समय आवश्यकतानुसार चिपका दिया जाता है। इसके ऊपर रस्सी (बद्धी) में लकड़ी के गुटके लगाए जाते हैं । बुन्देली ज़न राई, कांड़रा, जवारें, आदि नृत्य गीतों के साथ इसको बजाते हैं ।
ढपला
यह चमार जाति का मुख्य लोकवाद्य है। जिसे मांगलिक अवसर पर गीत-नृत्य के साथ बजाया जाता है । यह लकड़ी की आठ बराबर लंबाई, चौड़ाई और मोटाई वाली पाटियों को मिलाते हुए अष्ट भुज बनाते हैं। एक ओर चमड़ा मढ़कर दूसरी ओर तांत से जालीनुमा बुन देते हैं। 6 से 8 इंच लम्बे 3 से 5 इंच चौड़े एवं आधा पौन इंच मोटी लकड़ी की पटियाँ प्रयोग में लाते हैं। कुछ ढपले षटकोणीय भी होते हैं। इसको चढ़ाने के लिए धूप या आग दिखाई जाती है। बुन्देली जन इसे धार्मिक अवसरों तथा संस्कारों पर बजाते हैं। ढपले पर बजती कहरवा ताल कर्णप्रिय लगती है ।
ढाक
यह ‘डमरू‘ या ‘हुड़क‘ जैसे आकार – प्रकार का तथा उससे बड़ा होता है। यह पीतल की खोल जिसके दोनों मुंह पर बकरे का चमडा रस्सियों की सहायता से कसा होता है । बजाने वाले बैठकर दोनों पंजों के उपर कपडा रख इसे रखते हैं तथा दोनों पैरो के अंगूठे में इसके ताने-बाने की रस्सी को फंसा लेते हैं। बीच की बड़ी रस्सियों को दोनों घुटनों में डाल पतली घुमावदार लकड़ी से चमड़े पर आघात करते हुए पंजों में फंसी रस्सी को नीचे-ऊपर करते जिससे घुटनों में फंसी रस्सियों खिचाव के कारण गूंज पैदा होती है। इसे ‘डफ‘ का बड़ा रूप भी कहा जाता है।
बुन्देलखण्ड में इस वाद्य का प्रयोग कारसदेव की गोटें, कन्हैया गाते समय या भगत लोग अपने ‘इष्ट‘ को प्रसन्न करने के लिए करते हैं।
डमरू
शिवजी का डमरू जग प्रसिद्ध है । शिवालयों की आरती हो चाहे मदारी का खेल डमरू की डम-डम के अभाव में अधूरे ही लगते है। लोक जीवन में यह वाद्य महत्वपूर्ण है। इसका आकार प्रकार ढाक जैसा होता है लेकिन ढाक से यह छोटा होता है । यह वाद्य दोनों ओर से चमड़े से मढ़ा होता है बीच का भाग सॅकरा तथा दोनों मुखों पर क्रमशः इसकी गोलाई बढ़ जाती है। बीच में दो रस्सी की लडी जिसके ऊपरी भाग पर गांठ बंधी होती है। हाथ हिलाने पर ये गांठें चमड़े से टकराती हैं, जिससे डम डम डम की आवाज होती है।
ढोलक
बुन्देलखण्ड के लोकवाद्यों ढोलक में सर्वप्रचलित तथा सर्वप्रिय लोकवाद्य है। लोकगीतों, नृत्यों तथा नाट्यों में इसका सर्वाधिक प्रयोग होता है। आल्हा, सोहर, होली, चैता आदि में स्त्री पुरूष इस वाद्य का प्रयोग समान रूप से करते हैं। ढोलक, शीशम, सागवान, आम या बीजा की लकड़ी का खोल होता है जिसका दाहिना मुख, बायें मुख की अपेक्षा व्यास में कुछ मोटा तथा बीच में अपेक्षाकृत उठा होता है। इसके दोनों पावों में बकरी का चमड़ा मढ़ा होता है। बायीं ओर का चमड़ा दायीं ओर की अपेक्षा कुछ मोटा होता है । सूत की डोरी से बायां तथा दायां मुख आपस में कसा होता है। रस्सी पर लगे लोहे या पीतल के छल्लों की सहायता से इसे चढ़ाया जाता है । ढोलक के मुख पर स्याही लगी होती है इसको दोनों हाथों से बजाते हैं। इसकी ध्वनि बहुत दूर तक जाती है।
हुड़क
हुड़क डमरू की आकृति का पर ढाक व डमरू बड़ा वाद्य यन्त्र होता है । एक ओर से हाथ से बजाने के कारण यह यह इन वाद्यों से भिन्न होता है । ढाक की रस्सी को पैर के पंजों तथा घुटने में लगाकर लकड़ी से बजाते हैं । इसकी रस्सी को बांये कंधे में फंसाकर तथा बायें हाथ से इसे बीच में पकड़कर दाहिने हाथ से बजाते हैं। इसे ‘देहकी’ भी कहते है । बुन्देलखण्ड की कहार जाति का यह प्रिय वाद्य है ।
डेहरू
बुन्देलखण्ड के झांसी तथा सागर क्षेत्र के बाल्मीकि जाति के लोग इस अवनद्ध वाद्य का उपयोग करते हैं । यह देखने में ढाक जैसा ही होता है । पर इसका खोल लकड़ी का होता है। जिसके दोनों और कनेर की पतली लकड़ी में चमड़ा मढ़ा होता है। एक हाथ से इसकी रस्सियों को पकड़कर खिंचाव पैदा करते हैं तथा दूसरे हाथ से मेंहदी की अर्द्धचन्द्राकर लकड़ी से इस बजाते हैं। इसे डेरू भी कहते हैं ।
तांसा
तांसा मिट्टी, पीतल, तांबे या लोहे की चादर का तसलेनुमा होता है। इसके ऊपरी भाग पर चमड़ा मढ़ा होता है जिसे रस्सी या तांत की सहायता से कसा जाता है। इसे बांस की खपच्चियों से बजाया जाता है। इसकी आवाज तेज व कर्कश होती है। ऊँची आवाज के कारण इसकी आवाज दूर तक सुनाई देती है। बुन्देलखण्ड में यह वैवाहिक तथा धार्मिक अवसरों और मुनादी के लिए बजाते हैं।
धौंसा
धौंसा नौबत के आकार प्रकार जैसा किंतु कुछ छोटा होता है। तांबे, पीतल या मिट्टी के नादनुमा बड़े खोल के मुँह पर मोटा चमड़ा मढ़ा होता है। इसे हाथ या दो डंडों की सहायता से मंदिरों एवं शिवालयों में आरती के समय बजाया जाता है ।
नौबद
मिट्टी, पीतल या तांबे के नॉद नुमा काफी बड़े खोल के मुंह पर मोटा चमड़ा मढ़ा होता है। दो डंडों के द्वारा इसे बजाया जाते हैं। इसकी आवाज गम्भीर होती है। राजा महाराजाओं के महलों तथा युद्ध के अवसरों पर इसका वादन किया जाता था। मंदिरों में भी आरती के समय नौबद की तेज आवाज सुनी जा सकती है।
चंग
‘चंग’ बुन्देलखण्ड का अत्यत्न प्रिय वाद्य है । यह पीतल ताँबा अथवा निकिल का गोल घेरा होता है। इसके एक ओर चमड़ा मढ़ा होता है, जिसे धातु के हुकों द्वारा फंसाया जाता है। इस पर दाहिने हाथ से थाप देते है तथा बाएं हाथ की अंगुलियों में पीतल या लोहे के छल्ले से मोखले पर आघात करते हैं । ‘ख्याल’ व ‘लावनी’ गायकों का यह प्रिय वाद्य है ।
नाहर धौंकनी
शेर को बुंदेली में नाहर कहते हैं । इस दुर्लभ वाद्य से नाहर जैसी आवाज होती है इसलिए इसे नाहर धौंकनी कहते हैं। मिट्टी के मटके के मुँह पर चमड़ा बांध
बीचोबीच एक छेद करते हैं, जिसमें मोर के पंख को जड़ की ओर से अंदर डालकर फंसाते हैं। हाथ को पानी से गीला कर मटके के मुँह के नजदीक से मोर पंख पर जड़ से पंख की ओर सरकाने पर इस वाद्य की दहाड़ सुनाई देती है। बुन्देलखण्ड में तन्त्र-मन्त्र तथा आधिभौतिक शक्तियों की पूजा-उपासना करने वाले लोग इसे बजाते
घन वाद्य या ठोस वाद्य
ये ठोस वाद्य होते हैं। ध्वनि उत्पन्न करने के लिए कंपन करते हैं जैसे कि घंटी, गोंग या खड़खड़ जिन पर आघात किया जाता है, हिलाया जाता है या इन पर खुर्चा जाता है। इडियोफ़ोनिक वाद्य या स्वयं-कम्पित्र, अर्थात ठोस पदार्थ के वाद्य, जिनकी अपनी लोचदार प्रकृति के कारण उनकी स्वयं की एक गूँज होती है, जो इन पर आघात किए जाने, खींचे जाने, या घर्षण या वायु से उत्तेजित किए जाने पर तरंगों में उत्सर्जित होती है।
लोटा
यह कांसे का होता है इसे सिक्के से बजाया जाता है। इसका प्रयोग प्रायः मांगलिक संस्कारादि गीतों को गाते समय स्त्रियाँ करती हैं।
घट-घडा
काली मिट्टी से निर्मित इसका मुंह अन्य घड़ों की अपेक्षा छोटा होता है। बुन्देलखण्ड में इस वाद्य का प्रयोग विशेषतः कुम्हार, कहार तथा चमार जाति के लोग अपने जातीय गीतों को गाते समय करते हैं। इससे मधुर ध्वनि निकलती है ।
वादक अपनी बांई हथेली को मटके के मुख पर रखकर थाप देता है। तथा दाहिने हाथ से सिक्के या अन्य धातु के टुकड़े से घड़े के मध्य भाग पर आघात करता है ।
चिमटा
लोहे की दो से तीन हाथ लम्बी दो पट्टियों को मिलाकर ‘चिमटा‘ बनता है। इस घन वाद्य का आकार चिमटे की तरह होता है। पट्टियों के बीच में झंकार के लिए लोहे की गोल-गोल पत्तियाँ लगी रहती हैं। बाएं हाथ में एक ओर से चिमटा पकड़कर दाहिने हाथ से अंगूठा और अंगुलियों के झटके इसे बजाया जाता। इसे लोक कलाकार भजन- कीर्तन गाते समय बजाते हैं।
करताल
‘करताल‘ वाद्य यन्त्र को ‘खड़ताल‘ शब्द से भी जाना जाता है। यह वाद्य यन्त्र 9 – 10 इंच लम्बे तथा 2, 2 इंच चौड़े लकड़ी के दो टुकड़े होते हैं। इसमें दो स्थानों पर पीतल की छोटी-छोटी दो झांझियां लगाई जाती हैं। इसे दोनों हाथों से पहनकर बजाया जाता है। बांए वाले टुकड़े के मध्य अंगूठा तथा दाहिने वाले टुकड़े के मध्य हाथ की शेष चारों अंगुलियों को डालने की जगह बन जाती है। अंगूठे तथा अंगुलियों में पहने इन टुकड़ों को आपस में टकराते हैं जिससे छन-छन की ध्वनि होती है। लोक कलाकार रामायण गाते समय तथा हरि कीर्तन करते समय इसे बजाते हैं ।
घुंघरू
घुंघरू कांसे की धातु से बना भीतर से खोखला तथा नीचे की ओर कटा छोटी गोलियों की आकृति का होता है । इसके अन्दर मोटी मटर के दाने जैसे लोहे के गोल टुकड़े होते हैं जो हिलाने से बजते हैं। इन घुंघरूओं को डोरी में पिरोकर चमड़े या कपड़े के पट्टे पर टांक कर पैर में बांधने योग्य बना लेते हैं। कई वादक इसे हाथ में बांध कर अपने वाद्य यंत्र जैसे ढोलक, खंजडी आदि को भी बजाते हैं।
सुषिर वाद्य या वायु वाद्य
ये वायु से बजने वाले वाद्य होते हैं। इनमें ध्वनि उत्पन्न करने के लिए, बिना तारों या झिल्ली के इस्तेमाल के और यंत्र के बिना कम्पित हुए, वायु के टुकड़े को कम्पित किया जाता है,जिससे ध्वनि में बढोत्तरी होती है। इन उपकरणों की तान संबंधी गुणवत्ता उपयोग किए गए ट्यूब के आकार और आकृति पर निर्भर करती है। वे गहरे बास से लेकर कर्णभेदी तेज़ सुरों तक, जोर की और भारी ध्वनि उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं। ये खोखले वाद्य हैं जिनमें हवा से ध्वनि उत्पन्न की जाती है। वाद्य में छिद्र खोलने और बंद करने के लिए उंगलियों का उपयोग करके ध्वनि के स्वरमान को नियंत्रित किया जाता है।
रमतूला
यह तांबे या पीतल से निर्मित होता है । इसका आकार अंग्रेजी वर्ण के ‘एस‘ के समान होता है इसकी नली तीन हिस्सों में बंटी होती हैं जो मुंह की ओर पतली तथा मध्य और अन्त की ओर क्रमशः चौड़ी होती जाती है। संस्कारादि अवसरों पर जाति विशेष के लोग इसे बजाते हैं तथा एवज में नेग या पारितोषिक पाते हैं ।
बीन
बीन सपेरों का यह प्रिय वाद्य यन्त्र है । इसकी ध्वनि में सांप को मोहित करने की अदभुत क्षमता होती है । ‘बीन‘ तुम्बे या लौकी के खोल की बनी होती है । तुम्बी के पृष्ठ भाग में बांस या लकड़ी की नली होती है, जिस पर बांसुरी की तरह समान अन्तर पर छिद्र बने रहते हैं। इसकी लम्बाई लगभग सवा हाथ की होती है ।
तुरही
तुरही धातु की खोखली नली से बनाई जाती है जिसका एक किनारा चौड़े मुँह का होता है। और दूसरा किनारा धीरे-धीरे पतला होता जाता है। इस वाद्य यंत्र की लम्बाई लगभग चार हाथ की होती है। इसकी आकृति अर्धचन्द्राकार होती है। बुन्देली जन प्रायः इन्हें मांगलिक अवसरों पर बजाते हैं ।
बांसुरी
यह वाद्य सबसे प्राचीनतम वाद्य है। महाभारत में इसके लिए ‘वेणु’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। बांसुरी, वेणू, मुरली इनके कई नाम हैं। यह मूलतः लोक वाद्य था, जिसे विकसित कर शास्त्रीय बना लिया गया। ‘शारंग देव ने लिखा है “यह दो हाथ लम्बी थी जिसमें एक मुख- रन्ध्र तथा चार स्वर – रन्ध्र होने के कारण ये वाद्य शास्त्रीय के अनुपयुक्त था ।
इस वाद्य का उपयोग लोक संगीत में होता था।कालान्तर में इसमें सात स्वर विकसित कर इसे शास्त्रीय बना लिया गया फलतः इसका वादन शास्त्रीय तथा लोक जन समान रूप से करते हैं। बुन्देलखण्ड में इसका वादन दिवारी, राई, रसिया तथा फाग आदि पर किया जाता है। इसकी आवाज गम्भीर तथा मधुर होती है। यह बांस, लकड़ी, चन्दन, हाथी दॉत, लोहा, कांसा, पीतल, चाँदी, अथवा सोने की बनाई जाती है। यह मुंह से फूंककर बजाई जाती है। इसके तीन भाग (1) मुख नलिका (2) नली तथा (3) नली के ऊपर समान अन्तर पर छिद्र होते हैं। साधू मदारी लोग भी इसका उपयोग करते देखे जाते हैं ।
अलगोजा
अलगोजा का आकार बांसुरी जैसा ही होता है। अलगोजा में प्रायः दो बांसुरी एक साथ होती हैं जिन्हें एक साथ मुँह में दबाकर फूँक से बजाया जाता है। इसकी दोनों नलियों में चार-चार छिद्र होते हैं। ये दोनों नली के ऊपर की ओर डोरी से बंधी रहती है। दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं। लोकवासी जानवरों को चराते समय या किसी मेले आदि के अवसर पर इसका वादन करते हैं। इसके वादन में बड़ी निपुणता की आवश्यकता है ।
शहनाई
शहनाई मांगलिक कार्यों में दरवाजे पर बजाना शुभ माना जाता है । इसलिए इसे मांगलिक वाद्य भी कहते हैं । यह अत्यत्न प्राचीन वाद्य है। यह लकड़ी या धातु की बनी बड़ी चिलम की आकृति की होती है। इसके मुंह पर तीन, चार अंगुल लम्बी तांबे या पीतल की नली लगी होती है, जिसके मुख पर ताड़ पत्र या कांसे की दो पत्तियाँ दूध में भिगोकर लगाई जाती हैं। इसके उपर समान अन्तर पर छिद्र बने होते हैं । बुन्देलखण्ड में इस वाद्य का प्रयोग शादी विवाह, उत्सव तथा लोक नाट्यों में किया जाता है इसका स्वर अत्यत्न मधुर व कर्णप्रिय होता है ।
मदनभेरी
यह पीतल तथा धातु से निर्मित एक लम्बी नली होती है जो ऊपर की ओर पतली तथा नीचे क्रमशः चौड़ी और गोलाकार होती जाती है। युद्ध की सूचना, सेवा के प्रस्थान तथा राजाओं की सवारियों के निकलने पर इसका प्रयोग होता था । बुन्देलखण्ड में इसका वादन राजा-महाराजाओं के यहाँ मांगलिक अवसरों पर होता था । पर अब इसका प्रयोग यदा-कदा ही दिखाई देता है।
शंख
शंख यह एक आदि वाद्य है । यह देव वाद्य माना जाता है। शंख का समस्त धार्मिक अनुष्ठानों पूजन आदि में प्रयोग किया जाता है। प्राचीन भारत में युद्ध एवं शान्ति की घोषणा इसके द्वारा ही की जाती थी। ‘शंख’ समुद्र में रहने वाले जीव विशेष का
खोल है। बनावट के अनुसार दक्षिणावर्त तथा वामावर्त इसकी दो जातियाँ हैं। यह अन्दर से बाहर तक घुमावदार होता है। इसके मुख पर फूँक मार कर इसे बजाते हैं। बुन्देलखण्ड में कथा – भागवत आदि के आरम्भ एवं अन्त में इसका बजाना आवश्यक माना जाता है। भगवान की आरती तथा भोगादि में इसका प्रयोग किया जाता है ।
टोंटा
फूंककर बजाया जाने वाला यह वाद्य मंगल वाद्य की श्रेणी में आता है । छः छिद्र वाले इस वाद्य का आकार ऊपर की ओर पतला तथा नीचे की ओर क्रमशः मोटा तथा गोल होता जाता है। इसके मुह में लोहे का एक ढक्कन सा लगाकर इसे बजाते हैं जिसका मुख भाग वाद्य से जुड़ा होता है। बुन्देलखण्ड के कहार जाति के लोग इसे बजाते हैं। इस दृष्टि से यह जातीय वाद्य भी है । विभिन्न संस्कारोत्सव पर जाति विशेष के लोग घर-घर जाकर इसे बजाते हैं ।
पपैया और पुंगी
यह बच्चों का प्रिय वाद्य है। इसके फूंकने पर पी-पी की आवाज आती है । पपैया आम की गुठली का बनता है। गुठली के छिलके के नीचे का मुलायम हिस्सा निकाल कर पत्थर पर घिसा जाता है, जिससे गुठली का अगला भाग घिसकर पतला हो जाता है तथा दोनों दलों के बीच पतली सी खोखली जगह हो जाती है। बच्चे इससे अपना मनोरंजन करते और इससे पी-पी की आवाज बजाते हैं।
‘पुंगी’ बरगद, पीपल या ताड़ के पत्तों से बनाई जाती है। पत्तों को गोलाई में मोड़कर इसके पतले हिस्से को दबा देते हैं। फूँकने पर इसमें पी-पी की आवाज निकलती है। बुन्देलखण्ड में आज भी बच्चों को इसे बजाते हुआ देखा जाता है।
तत वाद्य या तार वाले वाद्य
ये तार वाद्य यंत्र हैं। ध्वनि दो बिंदुओं के बीच फैले हुए तार या तारों के कंपन द्वारा उत्पन्न की जाती है। इन यंत्रों को ऐंठन, धनुर, नक्काशीदार गैर-नक्काशीदार वाले उपकरणों में वर्गीकृत किया गया है। इसी तरह के कुछ उपकरण वीणा, लायर, ज़िथर और ल्यूट हैं। ध्वनि की उत्पत्ति तनावयुक्त तार या तांत को खींचकर या झुकाकर कंपन उत्पन्न करने से होती है। तार की लंबाई और उसमें तनाव, ध्वनि की गतिविधि और अवधि को निर्धारित करती है।
केंकड़ी / केकड़िया
केकड़िया यह तंतु वाद्य अति प्राचीन है बुंदेलखंड में इसका उपयोग गाथाओं को गाते समय किया जाता है । नारियल के आधे हिस्से को काटकर उस पर चमड़ा चढ़ा दिया जाता है नारियल के खोल में लगभग एक – डेढ़ फुट लंबे बांस के टुकड़े को लगा दिया जाता है । बांस की ऊपरी खूंटी से नारियल तक घोड़े के बाल बंधे होते हैं तथा एक पतला तार भी बंधा होता है । चमड़े के हिस्से के बीच लकड़ी का टुकड़ा लगा होता है जो इस वाद्य को चढ़ने उतरने के काम आता है। घोड़े के बालों से बंधे गज से यह सारंगी जैसा बजाया जाता है इसे बुंदेलखंड के ढिमरयाई लोक नृत्य के साथ भी बजाते हैं।
एकतारा/ तंबूरा
एक तार वाले तत्य वाद्य को एकतारा तथा चार तारा वाले को चौतरा या तंबूरा कहा जाता है। बुंदेलखंड में साधु – संत तथा योगी भजन गाते समय इस बजाते हैं गोल कद्दू या टुमबे के घोल में लगभग दो ढाई फीट लंबा एक बस का डंडा लगा दिया जाता है तुंबे के ऊपरी भाग को काटकर बकरी के चमड़े से मढ़ दिया जाता है उसके के ऊपरी हिस्से में लकड़ी की खूंटी होती है इस खूंटी से लेकर बांस के निचले हिस्से में एक तार बांध दिया जाता है तार को ऊपर वाली खूंटी से चढ़ाया उतारा जाता है तथा उंगलियों से तानपुरा जैसा बजाया जाता है एक तारा एक स्वर में बोलता है।
सारंगी
बुन्देलखण्ड के लोक नाट्य, नृत्य, एवं गायन में सारंगी का प्रयोग प्रमुख वाद्य के रूप में होता है । यह जोगी जाति जो भजन, स्तुति गाते, भिक्षाटन हेतु आते रहते हैं, का विशेष वाद्ययंत्र है। सागवान की लकड़ी से बनी इस सारंगी में 26 तार होते हैं, जो इसके माथे में स्थित खूंटियो से बंधे होते हैं । ऊपर की मोटी ताँतें बकरी की आंतों की बनी होती हैं । ताँबें या स्टील की बनी तेरह तुरमों को चार बड़ी खूंटियों में बांध दिया जाता है।घोड़े के बालों से बंधे गज (धनुष) द्वारा इसे बजाया जाता है। लोक तथा शास्त्रीय संगीत में ये समान रूप से प्रचलित है।
डुगडुगी
यह वाद्य इकतारा जैसा ही होता है । इकतारें में तुम्बी का प्रयोग करते है लेकिन इसमें टीन के डिब्बे का। टीन के डिब्बे के बीच एक डेढ़ फुट लम बांस का टुकड़ा लगा दिया जाता है बांस के ऊपरी हिस्से में एक खूंटी लगी होती है। तथा उस खूंटी से डिब्बे के बीच एक लोहे का चार कसा होता है जिसे उंगलियों से बजाते हैं। इसकी ध्वनि मधुर होती है। इस वाद्य को बुन्देलखण्ड के लोग बड़ी तन्मयता से बजाते हैं।