Homeबुन्देलखण्ड का इतिहास -गोरेलाल तिवारीBundelkhand Ka Prarambhik Itihas बुन्देलखंड का प्रारंभिक इतिहास

Bundelkhand Ka Prarambhik Itihas बुन्देलखंड का प्रारंभिक इतिहास

भारतवर्ष के मध्य भाग में नर्मदा  के उत्तर और यमुना के दक्षिण मे विंध्याचल पर्वत की शाखाओं से लगा हुआ और यमुना की सहायक नदियों के जल से सिंचित सौंदर्य प्रदेश है उसे बुंदेलखंड कहते है। Bunselkhand Ka Prarambhik Itihas बुन्देलखंड का प्रारंभिक इतिहास अत्यंत प्राचीन परम्पराओं और समाजिक व्यवस्थाओं पर आधारित है।

समय समय पर इसके नाम दशार्ण, वज्न, जेज्ञाक-भुक्ति, जुझौती, जुझारखंड तथा विंध्येलखंड भी रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि विंध्य में स्थित होने के कारण इस प्रदेश का माम विंध्येलखंड पड़ा, बाद में अपभ्रष्ट हो यह बुन्देलखंड कहलाया। इस भूभाग के उत्तर मे यमुना का प्रचंड प्रवाह, पश्चिम में मंद-मंद बहने वाली चंबल और सिंध नदियाँ, दक्षिण में नर्मदा नदी और पूर्व मे बघेलखंड है।

बुन्देलखंड का प्रारंभिक इतिहास
बुन्देलखंड प्रदेश का उत्तरीय भाग जिसमें आज–कल झांसी, जालौन, ललितपुर, बांदा, महोबा, चित्रकूट, और हमीरपुर, के जिले हैं । मध्य भाग में ओरछा, समथर दतिया के राज्य तथा चरखारी, छतरपुर, पन्ना, बिजावर, अजयगढ़ इत्यादि छोटे छोटे राज्य हैं। दक्षिणी भाग में सागर, दमोह और  जबलपुर के जिले हैं। इस प्रांत मे बहने वाली मुख्य नदियाँ बेतवा, धसान, सुनार, केन और  टोंस ( तमसा ) हैं, जिनके जल से यह भाग बहुत उपजाऊ हो गया है। यहाँ के पर्वतों में कई प्रकार के खनिज पदार्थ  पाए जाते हैं। उनमें हीरा, तांबा, लोहा आदि मुख्य हैं।

बैदिक काल में आर्य लोगों की बस्तियोँ पंजाब और  उत्तर भारतवर्ष मे यमुना के उत्तर में ही थीं। पंजाब से आर्यलोग  यमुना के उत्तरीय भाग में होते हुए बिहार की ओर बढ़े । उस समय भी बुंदेलखंड मे आर्यों ने अपना आधिपत्य नहीं जमाया था। यमुना के नीचे सघन वन था और यहाँ उस समय उन लोगों के निवास- स्थान थे जिन्हें वेदों में दस्यु, यातुधान और राक्षस कहा है।

ये लोग आर्यों के समान सभ्य नहीं थे और इनका वर्ण भी आर्यों  के समान गोरा न था। आर्य लोगों को यमुना पार करके दक्षिण का देश अपने अधिकार में करना पूर्व की ओर बढ़ने की अपेक्षा अधिक कठिन जान पड़ा। इस प्रदेश में बसने वाली आदिम जातियों के रहन-सहन के विषय में जानने के लिये कोई ऐतिहासिक साधन नहीं है। वेदों में भी इनकी भरपूर निंदा की गई है।

उस समय आर्य लोगों की बस्तियाँ नर्मदा तक नही पहुँची थीं। परंतु कई ऋषि यमुना के दक्षिण मे आकर रह रहे थे। ये ऋषि केवल तप करने वाले ब्राह्मण ही नहीं परंतु बड़े योधा थे जो अपने अनुयायियों को साथ लेकर राक्षसों से युद्ध करके, उनको भगाकर तथा उनके स्थान मे अपने आश्रम बनाकर, रहने लगे थे।

भगवान श्री रामचंद्रजी को ऐसे कई आश्रम मिले। अत्रि, सुतीक्षण और  शरभंग ऋषियों के आश्रम यमुना के दक्षिण में ही थे। इन आश्नमों का ठीक स्थान कौन सा था यह बताना बढ़ा कठिन है, परंतु अत्रि का आश्नम अवश्य ही वुंदेलखंड में रहा होगा ।

महाराज रामचंद्र श्रृंगवेरपुर के निकट गंगा को पार कर प्रयाग पहुँचे। फिर यमुना को पार करके चित्रकूट मे आकर रहे।  यह चित्रकूट पर्वत प्रसिद्ध  है इसके विषय मे कोई शंका नहीं हो सकती । कुछ लोग  इसे भी दंडकारण्य का भाग मानते हैं। बुंदेलखंड महाराज रामचंद्र के समय में दंडकारण्य का भाग था। महाराज रामचंद्र ने अगस्त्य मुनि का आश्रम भी देखा था। यह आश्रम कहाँ था इसका पता रामायण मे  ठीक से नहीं मिलता ।

परंतु महाभारत मे अगस्त्य ऋषि का आश्रम कालिंजर कहा गया है। यह एक तीर्थ स्थान था। यहाँ पांडव लोग  अपनी तीर्थ यात्रा करते हुए पहुँचे थे। विध्य परवत-श्रेणी को पार करके दक्षिण में जाने का कठिन कार्य सबसे पहले अगस्त्य ऋषि ने ही किया था। इनका एक आश्रम संभवतः कालिंजर में रहा होगा, पर दंडकारण्य में भी इनके आश्रम रहे होंगे जहाँ पर प्रभु श्री रामचंद्र गए थे ।

चित्रकूट से किष्किंधा जाते समय महाराज रामचंद्र बुंदेलखंड के कुछ भाग में से अवश्य ही निकले होंगे। प्रभु रामचंद्र महाराज पंचवटी मे रहे थे। अधिकतर विद्वानों की यही राय है कि यह पंचवटी गोदावरी नदी के उदगम -स्थान के निकट और  नासिक के समीप है। परंतु कई विद्वानों का यह भी मत है कि पंचवटी मद्रास प्रांत का भद्राचलम नाम का स्थान है। इसका पहला मत ही माना जाता है।

अतः महाराज रामचंद्र चित्रकूट से पंचवटी, दमोह और सागर जिलों में से होते हुए गए, यही अनुमान होता है। उन्हें मार्ग मे कुछ थोड़े से ऋषियों के स्थानों के सिवा कोई उल्लेखनीय सभ्य जाति नहीं मिली । इसी से जान पड़ता है कि इस भाग में उस समय आदिम निवासी ही रहते थे जे कि आर्य नहीं थे । भावभूति के उत्तर-रामचरित मे वाल्मीकि ऋषि के आश्रम के निकट मुरला ( नर्मदा ) और तमसा ( टोंस ) नदियों का नाम आया है।  ये नदियों जबलपुर जिले में है।

महाराज रामचंद्र के राज्यकाल के लगभग आठ सौ या एक हजार वर्ष बाद महाभारत का युद्ध हुआ । इस युद्ध के समय आर्यलोगों  ने बहुत से प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था। कही कहीं अनार्यों के भी बड़े बड़े राज्य थे जो  आयों के राज्यों के समान ही व्यवस्थित थे। पांचाल लोग आर्यो की ही शाखाओं में से थे। इनका राज्य बुंदेलखंड के उत्तर में यमुना के उस पार था।

चेदि- राज्य भी आर्य लोगों ने ही बसाया था। इनका पहला राजा वसु नाम का था जिसके एक पुत्र बृहद्रथ ने मगध का राज्य बसाया था।  बसु के दूसरे पुत्र मत्स ने विराट का मत्स्य राज्य स्थापित किया था। कुंतिभोज राज्य भी इसी तरह बसा था। यह राज्य चंबल नदी के उस पार था। दशाण राज्य भी आएयों की एक शाखा ने स्थापित किया था।

चेदि राज्य बुंदेलखंड के पूर्वीय भाग मे था। आज-कल  का दमोह जिला और  उसके उत्तर के रजवाड़ों का प्रांत ( दशार्ण नदी के पश्चिम का भाग ) महाभारत के समय मे चेदि देश मे ही था। इसका विस्तार पश्चिम मे बेतवा और उत्तर से यमुना नदी तक था। दशार्ण देश में सागर जिला और बुंदेलखंड का कुछ भाग था, और इसकी राजधानी विदिशा ( भिलसा ) थी। इस देश का नाम “दशाण/ (घसान) नदी से पड़ा था। यह नदी भोपाल रियासत से निकलकर सागर जिले में होती हुई झांसी जिले में आई है।

इसके पश्चात्‌ यहाँ से बेतवा मे मिल गई है। महाभारत के समय बुंदेलखंड के पश्चिमी भाग मे आभीर लोग रहते थे। ये आर्य नही  थे। ये अनार्य रहे होंगे, पर पीछे से आर्यो ने इन्हें अपने में मिला लिया होगा।

बुंदेलखंड के दक्षिण मे उस समय विदर्भ देश भी था। यह आर्यों का स्थापित किया हुआ था। ऐसे ही पूर्व  में दक्षिण- कौशल राज्य था। यहाँ भी आर्यों का ही राज्य था। चेदि देश में महाभारत के समय शिशुपाल राजा था। इसकी राजधानी चँदेरी थी। यह स्थान आजकल भी प्रसिद्ध है।

ऐसे ही दशार्ण देश में हिरण्यवर्मा राजा राज्य करता था। इसकी कन्या पांचाल-राज द्रुपद के पुत्र शिखंडी को ब्याही थी। पर यह पुरुषत्वहीन था। इसी से हिरण्यवर्मा और राजा द्रुपद में युद्ध भी हुआ था , पर पीछे से सुलह हो गई थी। इसके पश्चात्‌ इस दशाण देश मे राजा सुधर्मा का नाम मिलता है।

राजा सुधर्मा और पांडव-सेनापति भीमसेन से पूर्व-दिग्विजय के समय युद्ध हुआ था। इसमें भीससेन की विजय हुई थी। इतिहास के  विद्वानों ने महाभारत का समय वि० सं० से लगभग ३००० वर्ष पूर्व माना है। यही  मत यहाँ पर बिना विवाद किए मान लेना उचित है ।

कर्मों के अनुसार जातिभेद आर्यों में पहले से ही रहा है । आर्यों की जो  शाखा फारस देश में रहती थी और  जिसे आर्य लोग असुर कहते थे उसमे भी जातिभेद पाया जाता है। वहाँ पर ब्राह्मणों का काम करने वाले अथ्रव, क्षत्रिय अर्थात राजाओं का काम करनेवाले राथैस्थ, वैश्यों का कम करने वाले वास्त्रिम और शूद्रों का काम अर्थात सेवा करने वाले कहलाते थे। इससे जान पड़ता है कि कर्मों के अनुसार समाज के चार विभाग बहुत पुराने हैं। परंतु वैदिक काल मे विवाह आदि संबंध के लिये कोई बंधन नही थे।

महाराज रामचंद्र के समय आर्य  लोग अनार्यों से बहुत द्वेष रखते थे। परंतु महाभारत के समय में यह द्वेष बहुत कम हो गया था और आर्य लोग अनार्य जाति की कन्याओं से ब्याह करने मे भी कोई आपत्ति नही करते थे। इन विवाहों के उदाहरण बुंदेलखंड मे तो कम परंतु बाहर बहुत पाए जाते हैं । शांतनु का विवाह एक मछली मारने वाले धीमर की लड़की के साथ हुआ था। यह धीमर निषाद था। मत्सदेश के राजा विराठ की उत्पत्ति भी इसी प्रकार थी।

जाति-भेद पहले कर्मों के अनुसार ही था और बहुघा पिता का व्यवसाय पुत्र सीखा करता था। इससे जाति का कर्म भी परंपरागत होने लगा। धीरे – धीरे जातियों ने अपने समाज में विभिन्न जातियों के मनुष्यों के आने से रोकने के लिये भिन्न जातियों से विवाह-संबंध बंद कर दिए। बहुत समय के बाद विभिन्न जातियों के बीच खान-पान भी बंद हो गया। ये सब विचार महाभारत के बहुत दिनों बाद हुए।

जाति-बंधन महाभारत के समय में बहुत कम था। यदि ब्राह्मण किसी क्षत्रिय या वैश्य कन्या से विवाह करके पुत्र उत्पन्न करता था तो  वह पुत्र भी ब्राह्मण कहलाता था और उसे ब्राह्मण के अधिकार देने में अन्य ब्राम्हण  कोई आपत्ति नही  करते थे। इसी से जान पड़ता है कि जाति-बंधन महाभारत के  समय में उतना दृढ़ नहीं था जितना कि बाद के समय से हो गया है।

महाराज राम्रचंद्र के समय में एक-पत्नीव्रत अच्छा समझा जाता था परंतु एक से अधिक स्त्रियों से व्याह करने में कोई हानि नही  समझी जाती थी। महाभारत के समय से  जान पड़ता है कि नैतिक दृष्टि से समाज बहुत शिथिल हो  गया था।

संभव है कि इसका कारण अनार्यो का संसर्ग हो। विवाह के समय कन्या की उम्र लगभग १६ वर्ष मानी जाती थी । द्रौपदी, रुक्मिणी और दम्नयंती ब्याह के समय इसी उम्र की रही दोगी। इस समय बाल्य-विवाह की प्रथा नहीं थी। कन्या कहीं कहीं अपना वर स्वयं चुन सकती थी। स्वरयंवर के कई उदाहरण महाभारत मे मिलते हैं ।

दशार्ण और चेदि देशों में हिरण्यवर्मा, सुधर्मा, शिशुपाल आदि  राजाओं का राज्य था।  जो राजा बहुत पराक्रमी होता था या जो अन्य राजाओं को अपने वश में कर लेता था वह सम्नाट कहलाता था। महाभारत के समय में जरासंध एक बड़ा शक्ति- शाली राजा था। सम्नाट्‌ जरासंध की ओर से चेदि देश का राजा शिशुपाल साम्राज्य-सेना का अधिपति था । इससे जान पड़ता है कि चेदि देश का राज्य भी जरासंघ के साम्राज्य के अंतर्गत हो गया था।

श्रीकृषष्ण ने जरासंध को  हराया था और शिशुपाल को भी मारा था। उस समय द्वारका मे प्रजातंत्र राज्य था। श्रीकृष्ण द्वारका के प्रजातंत्र राज्य के राष्ट्रपति थे और जरासंध तथा शिशुपात्ष आदि साम्राज्यवादी राजाओं से उनका द्वेष था। जरासंघ और  शिशुपाल की हार होने से साम्राज्य दृट गया, परंतु चेदि मे एक सत्तात्मक राज्य संस्था चली आई।

जरासंघ के साम्राज्य से भिन्न-भिन्न राज्य तो अपनी आंतरिक शासन-संस्था मे बिल्कुल स्वतंत्र  थे, परंतु परस्पर सहायता के लिये जरासंध के आधिपत्य मे एक हो जाते थे। इससे जरा संघ का साम्राज्य आधुनिक साम्राज्य से भिन्न था। चेदि राज्य के संबंध का इतना ही इतिहास महाभारत में मिलता है। दशार्ण देश का हाल और भी कम मिलता है ।

चेदि और  दशार्ण ये दोनों एक-सत्तात्मक राज्य थे। इनकी राजसंस्था  अन्य तत्कालीन राज्यों के समान ही रही होगी। राजा राजघराने का ही व्यक्ति रहता था और राजा के ज्येष्ठ  पुत्र को चुना जाने का पहला अधिकार था। परंतु प्रजा ही राजा को चुनती थी। राजा आठ मंत्रियों की राज-सभा बनाता था। परंतु कहीं कहीं-कहीं 18 मंत्रियों के मंत्रिमंडल का भी उल्लेख है।

इन अठारह मंत्रियों में 1- प्रधान मंत्री, 2- पुरोहित, 3- युवराज, 4- चमूपति, 5- द्वारपाल, 6- अतखेशक, 7- बंदीगृहों का अध्यक्ष, 8- कोषाध्यक्ष, 9- व्ययनिरीक्षक, 10- प्रदेशटा, 11- धर्माध्यक्ष, 12- नगर का अध्यक्ष, 13- राज्यसंस्था को  आवश्यक सामानता देने बाला, 14- सभाध्यक्ष ( न्याय विभाग का प्रधान कर्मचारी), 15- दंडधारी, 16- दुर्गरक्षक, 17- सीमारक्षक और 18- जंगलों का रक्षक, ये लोग रहते थे।

प्रत्येक गाँव में एक मुखिया रहता था जिसे ग्रामाधिपति कहते थे। ग्रामाधिपति को जंगल की आमदनी वेतन के रूप में मिलती थी। राज्यसंस्था के खर्चे के लिये जमीन का लगान और व्यवसाय के कर, ये दो  आमदनी के मार्ग थे। जमीन का लगान उपज के दशम भाग से छठे भाग तक था।

जमीन का मालिक राजा नहीं समझा जाता था। व्यवसायियों को ढोर और  सेने के व्यवसाथ मे पचासवाँ भाग राजा को देना पड़ता था। यह कर लेते समय माल की कीमत, उस पर लगनेवाला खर्च और जो  कुछ और  खर्च लगता था उसका विचार कर लिया जाता था । कभी कभी युद्ध के समय प्रजा से ऋण भी ले लिया जाता था।

जमीन  के मालिक वे ही मनुष्य समझे जाते थे जिनके पास जमीन रहती थी।  वे लोग अपनी जमीन को बेच सकते थे और दान मे भी दे सकते थे। जमीन का मालिक राजा नही  समझा जाता था । उन दिनों सोने के सिक्के चलते थे जिन्हें निष्क कहते थे ।

इस समय में विद्यार्थियों की शिक्षा की ओर भी पूरा ध्यान दिया जाता था। प्रत्येक राज्य मे परिषद रहा करती थी जिसमे ब्राह्मण लोग विद्या सिखाया करते थे । महाभारत के पश्चात्‌ कई शताब्दियों तक का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता ।

बुन्देलखण्ड में अंग्रेजों से संधियाँ 

संदर्भ-आधार-
बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी (सन-1933)

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