Homeबुन्देलखण्ड का सहित्यबुन्देलखंड की लोक-गाथायेंBundeli Rachhre बुंदेली राछरे- बुन्देलखण्ड की शौर्य गाथायेँ

Bundeli Rachhre बुंदेली राछरे- बुन्देलखण्ड की शौर्य गाथायेँ

बुंदेलखण्ड में अनेक राछरे प्रचलित हैं। Bundeli Rachhre भी लोक गाथाओं का एक प्रकार है। युद्धपरक राछरे, भाई-बहन के संदेशपरक राछरे, अपहरणपरक राछरे। अधिकांश राछरे वीरगाथाओं के रूप में गाये जाते हैं। विवाहोत्सव युद्ध का ही अभिनय जैसा है। वर्षों पहले शादी-विवाह मे युद्ध का पूरा नाटक ही खेला जाता है।

परिक्रमा के बाद राछबधाये का उत्सव मनाया जाता है। रास का अर्थ है -युद्ध और बधाये का अर्थ है उत्सव। युद्ध में विजय प्राप्त करने के पश्चात् उत्सव का आयोजन कुछ विद्वानों ने राछरे का अर्थ युद्धोत्सव या सामूहिक समारोह के रूप में भी माना है।


गीतों की पृष्ठभूमि में सावन के वे ऋतुपरक गीत हैं, जिनमें बहिन को अपना मायका, बाबुल,माई, भइया-भौजाई, घर-बाहर, पशु-पक्षी, आदि सबकुछ मन में आकर कौंचता रहता है। सावन का महीना कजरियों रूपी लहलहाती समृद्धि और झूला के पैंगों रूपी स्वप्निल आरोहों में खोयी प्रसन्नता का प्रतीक है। बहिन गा उठती है।

बदरिया बरसौ बीरन के देसा में
ऊँचे अटा चढ़ हेरें सहुद्रा, अजहूँ न आये राजा बीर,
माई मोरी आसों की कजरिया मायके की

बहन कहती है उसके भाई गाँव में कजरियाँ लहलहा उठें क्योंकि कजरियाँ ही बहिन को भाई से जोड़ने वाले सूत्र हैं। दूसरा सूत्र है- भाई के द्वारा बहिन की रक्षा। विदेशी आक्रमणों के निरंतर दबाव से बहिन की रक्षा भारतीय संस्कृति की रक्षा बन गयी और भाई संस्कृति के रक्षक का प्रतीक। स्पष्ट है कि ऐसे संकटकाल में लोककवि को रक्षा के गीत गाना बहुत जरूरी था और वे रक्षा के गीत-राछरे उस समय के राष्ट्रीय गीत ही हैं, जिन्होंने विजातीय संस्कृति के हमलों से रक्षा का संकल्प किया था।


राछरा बुंदेली का अपना शब्द हैराछरा शब्द की व्युत्पत्ति रक्षा शब्द से है। रक्षा से रच्छा और राछ दोनों निकले हैं। विवाह में दूल्हा की राछ फिरना अभी तक प्रचलित है। आदिकालीन विवाह अधिकतर युद्ध से होते थे और उसमें दूल्हा की रक्षा करना अभीष्ट था। रक्षा के लिए दूल्हा की राछ या राछरी कई घरों में फिरती थी, ताकि उन सब घरों के लोग दूल्हे की रक्षा का संकल्प करते हुए अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर चल सकें।

रियासत के राजा जब युद्ध करने जाते थे, तब उनकी भी राछ फिरती थी और रियासत के प्रजा जन उन्हें तिलकित कर युद्ध में सहयोगस्वरूप तन एवं धन अर्पित करते थे। दूल्हा की राछ में दूल्हा शस्त्र से सज्जित रहता था। आज भी कई जातियों में दूल्हा कटार या छुरी लटकाये रहता है। राछ के समय गाये जाने वाले बन्ना गीतों में भी छुरी, कटारी आदि शस्त्रों का उल्लेख है। राजा की राछ में तो पूरा शस्त्र प्रदर्शन होता ही था। राछ में प्रत्ययस्वरूप रा जुड़ जाने से राछरा बना है।

इस प्रकार आदिकाल से बहन की रक्षा के लिए भाई के युद्ध का वर्णन करने वाले गीतों को राछरा नाम दिया गया था। राछरा का बृहत प्रबंधात्मक रूप ही राजा (राय) से जुड़कर रायराछरौ, रायराछौ, रायछौ कहलाया। भले ही बुंदेली का राछरो शब्द कुछ अन्य पड़ावों से गुजरा हो, पर इतना निश्चित है कि राछरे गीतों से वीरगाथात्मक प्रबंध और राइछौ ग्रंथों का आविर्भाव हुआ है। इस तरह बुंदेलखण्ड में दानवीरता के देवीगीतों से एक तरफ राछरों और दूसरी तरफ वीरगाथाओं का विकास हुआ है तथा इनकी अगली कड़ी रायछौ ग्रंथ है।



1. युद्धपरक राछरे
2. भाई-बहन के संदेशपरक राछरे 
3. अपहरणपरक राछरे।



राछरे एक ऐतिहासिक युद्ध की कोख से जन्मे वे गीत हैं, जिनके कंधों पर हिन्दी के समस्त वीरकाव्य की ज़िम्मेदारी है। इसलिए उनके अध्ययन में बहुत सत्यता और सचेतता की आवश्यकता है। उनकी वस्तु और शैली का विवेचन तो यहाँ अलग-अलग प्रस्तुत है।

 


आदिकालीन लोककाव्य में राछरे गीत अपनी कथावस्तु के कारण अपनी पहचान बनाने में सफल हुए हैं। उनकी कथावस्तु में युद्ध एक सांस्कृतिक संघर्ष बनकर आया है, क्योंकि भाई बहन की कजरियाँ सिराने के लिए युद्ध करता है। अगर आक्रमणकारी बहन का अपहरण करने अथवा उसकी प्रतिष्ठा गिराने आया है, तो भी उसके विरुद्ध यह युद्ध मानवीय मूल्यों के समर्थन का प्रतीक है। इस प्रकार युद्धपरक राछरे उस युग के राष्ट्रीय गीत कहे जा सकते हैं। संदेशपरक और अपहरणपरक राछरे उन्हीं की कथा वस्तु के अंग हैं।

 


कजरियन को राछरौ युद्धपरक राछरों की प्रतिनिधि रचना है। आल्हा गाथा में इस युद्ध को महोबे की लड़ाई या कजरियन की लड़ाई कहा गया है। सावन में पृथ्वीराज चैहान ने चढ़ाई की थी और कजरिया खोंटते समय युद्ध हुआ था। आल्हा-ऊदल के कन्नौज से न आने के कारण राजा परमाल (परमर्दिदेव) की पुत्री राजकुमारी चन्द्रावलि की कजरियाँ एक दिन दुर्ग में बिलखती रहीं, दूसरे दिन भादों में खोंटी गयीं।

यही कारण है कि आज भी महोबा में कजरियाँ पूर्णिमा के अगले दिन खोंटी जाती हैं। लोकगीत में भादों में कजरियाँ सिराने को कहा गया है। भाई बहिन से अनुरोध करता है कि इस वर्ष कजरियाँ घर पर ही खोंट लो। सोने की बड़ी-बड़ी नादों में दूध भरा है, उन्हीं में सिरा लो। इस पर बहिन हठ करती है कि वह या तो सरोवर में जायेगी या फिर कजरियाँ यहाँ रखी सूख जायेंगी।

यहाँ पर चन्द्रावलि की तरह बहिन भी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेती है। भाई कहता है कि यह कैसी बहिन है जो अपनी हठ से भाई के प्राण लेना चाहती है। इस सावन में युद्ध हो रहा है, अगले सावन में कजरियाँ वहीं तालाब पर खोंट लेना। बहिन नहीं मानती और फिर हर घर में बुलौआ पहुँचता है।


बहिन श्रृंगार करती है और भाई अपनी ढाल-तलवार लेता है। बागो रण में जूझने और पाग प्रतिष्ठा की प्रतीक है। भाई तैयार है, पर बिना मुँह मीठा किये जूझ का प्रयाण नहीं होता। सोने के थार में छप्पन प्रकार के भोज परोसे जाते हैं, लेकिन भाई एक कोर खाकर ही उठ जाता है। वह कहता है कि ’’वह तो रण में जूझने जा रहा है। कलेवा वे करते हैं, जो कुमारी कन्या ब्याहने जाते हैं।‘‘ फिर डोला सजते हैं।

जैसे ही कजरियाँ सरोवर के घाट पर पहुँचती हैं, शत्रुओं की सेना टूट पड़ती है। भाई बहिन से कहता है कि ’’ अभी लौटना हो, तो लौट जाओ। किसी के हाथों में न पड़ना, नहीं तो कुल में कलंक लग जायेगा‘‘ बहिन वीर है और भाई भी। दोनों मोर्चे पर लड़ते हैं। शत्रुओं को मारते-मारते भाई की भुजाएँ थक गयीं हैं और ललकारते-ललकारते आवाज बैठ गयी है


बहिन की कजरियों के लिए भाई का संघर्ष इस अंचल का लोकादर्श है। कजरियाँ बोना, खोंटने के पहले चैक में रखना, झूला में झुलाना, पान के बीड़े लगाकर रखना ताकि वीर उठाकर चुनौती का सामना करने की जिम्मेदारी ले सके, युद्ध में जाने से पहले मुँह मीठा करना, डोला पर कजरियाँ ले जाना, तालाब के घाट पर खोंटना, भाई और पति को कजरियाँ देना आदि सभी क्रियाएँ लोकसंस्कृति का अंग रही हैं।


चन्द्रावलि अपनी माता मल्हना से झूला डलवाने के लिए कहती है। पृथ्वीराज चैहान के महोबा पर चढ़ाई के कारण मल्हना भयभीत है। आल्हा-ऊदल भी महोबा में नहीं हैं। चन्द्रावलि कहती है कि ’’माता दिवला (देवलदे) के पुत्र ऊदल के बिना उसका सावन सूना है। ऊदल ने झूला पर आने का बचन दिया था, पर वह अपनी चाल चल गया और नहीं आया।‘‘ इतना कहकर चन्द्रावलि अपनी सहेलियों के साथ बाग में झूलने जाती है।

मौका पाकर शत्रु-सैनिक वहाँ जा पहुँचते हैं, पर अभई और रंजित उन्हें बन्दी बना लेते हैं। तभी चैड़ा अभई और रंजित पर हमला कर देता है और उन्हें मार गिराता है। राजा परमाल का सुपुत्र ब्रह्मानन्द पीछे से आकर चैड़ा को पकड़ लेता है और उसे जनाने कपड़े पहनाकर भेज देता है।

इसके बाद भयंकर युद्ध होता है। देवी के द्वारा स्वप्न दिये जाने पर ऊदल अपने वीरों के साथ जोगी वेश में आते हैं। उनकी 3 लाख सेना भी आ पहुँचती है। ऊदल, लाखन, इंदल जैसे वीरों की रक्षापंक्ति के कारण चन्द्रावलि सरोवर में भुजरियाँ सिराती है और त्यौहार मनाती है। इस कथा के आधार पर उसे ’’चन्द्रावलि का राछरौ‘‘ कहना उचित है।

 

बहिन और भाई के संदेशों से भरे हुये हैं। बहिन एक जोगी से भाई को संदेश भेजती है कि ’’सावन आ गया है। उसने बड़े भोर चुनरिया रँगा ली है और माँग सिंदूर से भर ली है। हे बीरन (भाई), मुझे माता के देश (मायका) दिखाने ले जाना।‘‘ प्रश्नोत्तर शैली में वह माता-पिता और भाई-भौजी की स्मृति में खो जाती है। माता ने उसे स्वर्ण दिया है, जो आजन्म रहेगा, पर पिता के दिये लहर-पटोर (वस्त्रादि) फट जाएँगे। भाई ने घोड़ा दिया है, जिससे नगर की यात्रा की जा सकती है।

भौजी ने सिंदूर भरी माँग दी है, लेकिन वह अचानक (युद्ध होने पर) मिट भी सकती है। माता का कहना है कि ’’नित्य आना, लेकिन पिता छः माह का समय बताते है। भाई अवसर-काज पर आने के लिए कहते हैं, पर भौजी आने को व्यर्थ समझती है। माता के रोने से नदी बह उठती है, पिता के रोने से सागर-ताल भर जाते हैं और भाई के रोने से हृद्य फटता है, लेकिन भौजी का जी कठोर है। इन स्मृतियों में खोयी बहिन भाई को मायेके ले जाने के लिए संदेश भेजती है।


जब बहिन उँचे अटा पर चढ़कर भाई को देखती है और उसके न दिखाई देने पर निराश होती है, तब भाई की सूचना उसे मिलती है। भाई कहता है-हम इतनी घनी डाँग (जंगल) पारकर कैसे आएँ? बहिन उत्तर देती है- बढ़ई को बुलाकर डाँग कटवा दूँगी और भाई हाथी पर बैठकर आ जावें।

इसी शैली में जब भाई नदी की बाधा कहता है, तब बहिन केवट बुलाकर नाव डलवाने का तर्क देती है। भाई बहुत चतुर है। वह भूख का जोर बतलाता है, तो बहिन मिठया (हलवाई) से लड्डू तैयार कराने की बात कहती है। प्यास के लिए वह ढीमर का प्रबंध करती है और पान के लिए बरई का।

अंत में नींद का मसला आता है, जिसके लिए वह पलका और सेज की व्यवस्था करने को तत्पर है। तात्पर्य यह है कि भाई के इन सब से काम नहीं चलेगा, उसे बहिन को लेने आना जरूरी है। इस प्रकार इन दोनों गीतों में भाई-बहिन के प्रेम की मनुहारें ही प्रकट हुई हैं।

 

इसामें एक जोगी भाई बनकर आता है और बहिन कहकर लुवा ले जाता है। देवर अपनी माता से जोगी के छल का संकेत देता है, पर माता नहीं मानती। गोरी धन अपने पिता के बाग-बगीचा देखकर डोली उतारने को कहती है, लेकिन, जोगी स्पष्ट कर देता है कि वह उसका भाई नहीं, स्वामी है। यह सुनकर उसने कटारी मारकर आत्महत्या कर ली और अपने पति को स्वप्न दिया कि वे चंदन लकड़ी कटाकर उसका अंतिम संस्कार करें।

आदिकालीन समाज में अपहरण के साक्ष्य मिलते हैं। चंदेलकालीन परमर्दिदेव (1165-1203 ई.) के अमात्य वत्सराज के ग्रंथ रूपकषटकम् में रूपवती कन्या के गुणों को सुनकर छलबल से उसका अपहरण करना तत्कालीन शौर्य का अंग बताया गया है, साथ ही पातिव्रत्य को चंदेलों के विवरणों में आदर्श माना गया है। दोनों की परिणति इस राछरे में हुई है। एक तरफ नारी छल से अपहृत की गयी है, तो दूसरी तरफ पातिव्रत्य का निर्वाह करती हुई वह आत्महत्या कर लेती है।

कापालिक और अघोरपंथियों की संख्या बढ़ गयी थी। चंदेलों की राजधानी महोबा में गोखा या गुखार पर्वत गोरखनाथ के नाम पर प्रसिद्ध है। उसमें एक चट्टान पर योगी के आकर्षण का दृश्य उत्कीर्ण किया गया है, जिसे लोग सुनरा-सुनरिया कहते हैं। अभी कुछ वर्षों पहले तक महोबा में जुगयाना उठता था, जिसमें निर्गुणी भजन गाये जाते थे।

मतलब यह है कि चंदेलकाल में जोगियों का एक समुदाय प्रबल था। इस गीत का योगी यदि छल से नारी का अपहरण करता है, तो इसमें युग का यथार्थ ही प्रकट हुआ है और यदि नारी ने आत्महत्या की है, तो उसमें युग का एक आदर्श बोला है। इस प्रकार इस राछरे में यथार्थ और आदर्श का अच्छा समन्वय हुआ है।


राछरों में पुरानी बुंदेली के शब्द –गेंवड़े, सिराय, बीरा, जूझ, घुल्लन, गडुअन, भुज्जें, उरगिया,फेंटली, पाँवड़ी, सतखण्डा, खेरो, अग्गम-पच्छम, इड़ियन-छिड़ियन, लहर-पटोर आदि मिलते हैं। कजरियाँ सिराना, पान के बीड़ा रखना, जाने के पहले मुँह मीठा करना, मुतियन माँग भरना, छप्पन भोजन, मानिक चैक, सोने की नाँदें दूधों भरी, सोने के थार, रूपे के गडुआ, घोड़ी के पाँव रचाना और पूँछ रंगना, चंदन लकड़ी आदि चंदेलकालीन संस्कृति का आलेखन करते हैं।

इन गीतों की भाषा मे तत्कालीन ओजस्विनी अनुभूति को अभिव्यक्त करने की पूरी क्षमता है। तीस-चालीस पंक्तियों का हर राछरा एक खण्डकाव्य-सा प्रभाव रखता है। जिस प्रकार एक रासो में एक युद्ध प्रमुख होता है और किसी विशेष उद्देश्य से वीरता की अभिव्यक्ति प्रधान होती है, ठीक उसी प्रकार इस गीत में कजरियों के सिराने के लिए भाई-दुश्मनों से युद्ध करता है और कुल एवं राज्य की रक्षा के लिए वलिदान तक हो जाता है।


आदिकालीन राछरों में अनोखी रसवत्ता है, जिससे प्रभावित होकर लोक ने उन्हें आज तक जीवित रखा है। कथा रस से बँधी वीर रस, श्रृंगार रस और करुण रस धीरे-धीरे जनमानस को रस से भाव विभोर कर देता हैं।

बैठी जो रइयो रानी सतखण्डा, खइयो डबन के पान।
हम तो पलट घर आहैं, मुतियन भरा देंव तोरी माँग।।
बरजैहें अटरियाँ जे सतखण्डा, पानई पै परजै तुसार।
प्यारे तुमारे अकेले जियरा बिन, सूनो लगै सिंगार।। (उरई कौ राछरौ)


धरीं कजरियाँ तला के पारैं, बिटिया आन सिराव।
टूटी फौजें दुस्मन की बहिना, भगनें होय भग जाव।।

 हाँत न परियो तुम काऊ के, लगजैहै कुल में दाग। (कजरियन कौ राछरौ)
जुगिया माता बड़ो बैरगिया भौजी छलें लै जाय।

हमाये बाबुल के बाग बगीचा ओई तरें डोली उतार।।
जोगी वीरन जिन कहौ धनियाँ जोगी है स्वामी तुम्हार।

इतनो सुनो तो प्यारी धनियाँ मार कटारी मर जायँ।।

अपने महल में स्वामी सोबें गोरी धन सपनो देय।
चन्दन लकड़ी कटावौ मोरे स्वामी गोरी धन दाग दिबाव।। (अपहरण कौ राछरौ)

लाला हरदौल -बुन्देलखण्ड के लोक देवता 

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल
सांस्कृतिक बुन्देलखण्ड – अयोध्या प्रसाद गुप्त “कुमुद”

admin
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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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