Bundelkhand में Bundeli Madhyakalin samajik Parivesh और सामाजिक स्थिति कुछ भिन्न रही है। अक्सर मुगलों के आक्रमण इस जनपद पर भी होते रहे, पर वे उतना प्रभावित नहीं कर सके। कुछ बुन्देले राज्य मुगलों के अधीन भी रहे, पर वे भी मुगल-प्रभाव के प्रति प्रतिक्रियात्मक ही बने रहे।
बुन्देली मध्यकालीन सामाजिक परिस्थितियाँ
बुन्देलखंड की सामाजिक चेतना पर सबसे अधिक प्रभाव मराठों का था, लेकिन अंग्रेजों की पकड़ अधिक मजबूत सिद्ध हुई। बुंदेली समाज की सामाजिक परिस्थितियाँ एवं लोक जीवन को समझने के लिये उसके मूल तत्वों का अध्ययन आवश्यक है।
1 – तत्कालीन लेख, पत्र रिपोर्ट आदि।
2 – तत्कालीन ऐतिहासिक ग्रन्थ, जैसे छत्रप्रकास, जगतराज की दिग्विजय, वीरसिंह देव चरित, अनेक रासो ग्रन्थ, कटक आदि।
3 – इतिहास-ग्रन्थ, जैसे आइने-अकबरी, अकबर- नामा, तुजक-ए-जहाँगीरी, बादशाहनामा, आलमगीरनामा आदि।
बुन्देली मध्यकालीन जातियाँ-उपजातियाँ
Bundelkhand में तुर्कों के आक्रमण से जातिगत कट्टरता आने लगी थी, जिसके कारण उसकी लोकसंस्कृति की रक्षा आवश्यक थी। चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और उनके भी विभाजन हो गए थे। जातिगत व्यवसाय से ऊपर उठकर हर जाति अपनी रुचि को महत्त्व देने लगी थी। उदाहरण के लिए ‘‘लाल कवि’ के प्रबन्ध ‘छत्रप्रकास’ में ब्राह्मण, वैश्य, यादव, लखेरे, दौवा आदि छत्रसाल बुन्देला की सेना में विशिष्ट नायकों के पदों पर थे।
ब्राह्मणों ने क्षत्रियों और वैश्यों का व्यवसाय अपना लिया। वैश्य भी युद्ध में भाग लेते थे। जातिगत गुणों की मान्यता बनी हुई थी। क्षत्रिय शासक जाति होने के कारण अधिक महत्त्व प्राप्त कर चुकी थी, इसीलिए वह लोकमर्यादाएँ तोड़ने में सबसे आगे थी। शूद्र का पुराना वर्ण पतनोन्मुखी हो चुका था और उसकी एक श्रेणी अछूत बन गई थी।
जातियों के विभाजन से प्रभावित होकर शबर या सौंर, कोंदर, गोंड़ आदि आदिम जातियाँ भी उपजातियों में बँट गई थीं। उनके विभाजन का आधार व्यवसाय था। समाज कई वर्गों में भी विभक्त था। एक था शासक वर्ग और दूसरा उसका सहायक सामन्त वर्ग। इन दोनों को राय देने और उनका यशोगान करने के लिए था पुरोहित वर्ग जिसमें अधिकतर ब्राह्मण और भाट थे। वैश्य वणिज वर्ग में और सभी जातियाँ कृषक वर्ग में शामिल थीं। शूद्र दास वर्ग में माने जाते थे, पर इस जनपद में दास प्रथा नहीं थी।
बुन्देली मध्यकालीन विवाह-संस्था
12वीं शती के लोकमहाकाव्य ‘आल्हा’ में राजा और सामन्त को पराजित राजा या सामन्त की कन्या से विवाह करते चित्रित किया गया है। इसी तरह बुन्देले राजाओं ने भी एक सीमा तक विवाह का साधन के रूप में उपयोग किया था। राजनीतिक मैत्री की दृष्टि से छत्रासाल बुन्देला के कुछ विवाह हुए थे। राजाओं, सामन्तों और क्षत्रियों में बहुपत्नीत्व की प्रथा थी, लेकिन सामान्य व्यक्ति एक ही विवाह अपनी जाति में कर सकता था। बाल-विवाह भी प्रचलित थे, लेकिन विधवा-विवाह एवं तलाक की अनुमति नहीं थी। यहाँ प्राप्त सती-चौरों से स्पष्ट है कि इस जनपद में सती-प्रथा लोकप्रिय थी।
बुन्देली मध्यकालीन स्त्रिायों का स्थान
मध्ययुग में स्त्रिायों को उतना सम्मान प्राप्त नहीं था, जितना कि प्राचीन काल में। मुसलमानों के आक्रमणों के कारण नारी की स्वतन्त्राता पर अंकुश लग गया था, क्योंकि उसे पिता, पति और पति के न रहने पर पुत्र के नियन्त्रण में रहना पड़ता था।
16वीं शती में चन्देरी और रायसेन के जौहर इतिहास प्रसिद्ध थे, जिनसे नारी की वीरता और साहस का पता चलता है। इस युग में नारी एक समस्या बन गई थी। कन्या के विवाह में क्षत्रिय पिता को सिर झुकाना अपमानजनक लगता था। इसी वजह से क्षत्रियों में कन्या-वध प्रचलित हो गया था।
दूसरी तरफ नारी भोग की वस्तु मानी जाने लगी थी। राजाओं के अन्तःपुर में रखैलों या उपपत्नियों की लम्बी सूची मिलती है। पर्दा प्रथा मुसलमानों के बुर्का की देन है। नारी-अपहरण के कारण पर्दा एक जरूरत बन गया था। वैसे बुन्देलखंड में ऐसी भी नारियाँ हुई हैं, जिन्होंने इतिहास को नए मोड़ दिए हैं। उदाहरण के लिए चम्पतराय की रानी लाड़कुँवरि, जगतराज की रानी विजयकुँवरि, दलपतराय की रानी दुर्गावती, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई आदि बहुत प्रसिद्ध रही हैं।
बुन्देली मध्यकालीन भोजन-पेय एवं वस्त्राभरण
bundelkhand में हिन्दुओं के भोजन और पेय विशिष्ट हैं। उच्चवर्ग का खाद्य गेहूँ, चना, चावल और फल था। वे मांस-भक्षण नहीं करते थे, पर उत्तरमध्ययुग में क्षत्रिय लोग मांस लेने लगे थे। इसी प्रकार मदिरा का प्रयोग नहीं होता था, पर बाद में क्षत्रियों में उसका प्रचलन हो गया था। निर्धन वर्ग कुटकी, कोंदो, समाँ, काकुन, महुआ, अचार आदि पर निर्भर करता था। निम्न जाति के लोगों में गोश्त और महुआ की शराब के प्रति अधिक रुचि थी। गोंड़वाने के मिष्ठान्न के सम्बन्ध में एक मधुर लोकोक्ति है ‘मउआ मैवा बैर कलेवा गुलगुच बड़ी मिठाई। इतनौ सब कछु चाऔ तो गुड़ानै करौ सगाई।’
महुआ अकाल का एकमात्र उपचार था। महुआ से बने मुरका, लटा, डुबरी आदि स्वादिष्ट होते हैं। इस जनपद की समूंदी रसोई विख्यात है। भात, चने की दाल, कढ़ी, पापर, कौंच, कचरिया, बरा, मंगोरा, चीनी, घी सब मिलाकर कालोनी मिश्रण का अनुपम आनन्द है, जिसका वर्णन बुन्देली लोकगीतों और कविताओं में अधिकतर मिलता है।
भोजन का दूसरा रूप मिर्जापुरी कहलाता है, जिसमें कच्चे और पक्के का मिश्रित स्वाद है। भोजन के बाद पान खाने का अधिकतर प्रचलन है। अबुलफजल ने पान को भाजी कहा है और मीर खुसरो ने फल। आइने अकबरी में पैड़ी, नौती, बहुती, अगहनियाँ, लेवार, करहन्ज आदि पान की पत्तियों की किस्में बुन्देलखंड से ली गई है, क्योंकि सभी शब्द बुन्देली हैं।
मध्ययुग में पुरुषों के वस्त्र धोती, कुचीताला या परदनी, कुर्ता (अलफा), अंगरखा, बन्डा (कोट), पगड़ी और साफा थे। आइने अकबरी में सुजनी (रुईभरी) और झौला का अधिक प्रचलन बताया है। ओरछा गजेटियर के अनुसार समृद्ध लोगों में दुपट्टा और मिरजई का प्रयोग किया जाता था। साफा और पगड़ी स्वर्णतारों से आभूषित होती थी। पगड़ी प्रतिष्ठा की प्रतीक थी। लोकगीतों में पगड़ी को सांस्कृतिक प्रतीक कमल की तरह सभा की शोभा माना गया है।
स्त्रिायाँ चुनरी, लहंगा और अंगिया पहनती थीं। ओरछा गजेटियर में धोती, सारी, घाँघरा और चोली प्रमुख वस्त्रा बताए गए हैं। पिछौरा पुरुष-स्त्री दोनों डालते थे। शोभा के लिए पुरुष, स्त्री, वृद्ध और बालक सभी आभूषण धारण करते थे।
स्त्रिायाँ पैरों में पैंजना, साँकर, बिछिया, अनौटा, कटि में बिछुवा, करधोंनी, गले में कंठहार, खंगोरिया, हमेल, हाथों में खग्गा, बरा, कानों में कनफूल, सांकरे, नाक में दुर, पुंगरिया, नथ और सिर में सीसफूल और बीज पहनती थीं। पुरुष वर्ग पैरों में तोड़ा, हाथों में चूरा, कमर में इकलरी करधनी, कानों में बाला या बालियाँ और गले में गुंज-गोप आदि से अलंकृत रहते थे।
मध्ययुगीन लोकगीतों में आभूषणों के सुन्दर वर्णन मिलते हैं। रीतिकालीन काव्य में बाहर आभूषण और सोलह शृँगार प्रसिद्ध हैं। बुन्देलखंड के काव्य में पैंजना के झमाके तो माधुर्य के ठसकीले निनाद हैं, जो लोकों में सनाका खींच देने में समर्थ हैं।
बुन्देली मध्यकालीन क्रीड़ा-विनोद
मध्ययुगीन बुन्देलखंड में मनोरंजन के अनेक साधन उपलब्ध थे। विशेषतया राजाओं और क्षत्रियों का विशेष विनोद मृगया या आखेट है। गोपाल कवि ने मृगया के अनेक भेदों और उसकी सामग्री का वर्णन किया है। इसी प्रकार रनजोरसिंह ने ‘युद्ध बोध मृगया विनोद’ में भी मृगया के सभी पक्षों को स्पष्ट किया है।
मृगया-विनोद में बुन्देली पारिभाषिक शब्दों जैसे बनरसिया (जंगली जानवरों की बोली बोलनेवाले), डाली (शिक्षित बैल जिसकी आड़ लेकर जानवर पर गोली चलाते हैं), उकाई (रोशनी जिसे रात में करने से जानवर पास आते हैं) आदि को स्पष्ट कर भाषा को समृद्ध किया गया है। रनजोरसिंह ने विविध प्रकार के शिकारों को खेल (क्रीड़ा) के अन्तर्गत उन्हें बन्दूक से सम्बन्ध रखने वाले खेल कहा है।
कुछ रियासतों में मल्लविद्या का भी शौक था। पन्ना-नरेश सभासिंह के राज्य-काल में राजकुमार अमानसिंह (बाद में पन्ना-नरेश) एक मुगल पहलवान से कुश्ती लड़े थे। चौपड़ पूरे जनपद का प्रिय खेल था। एक बार पन्ना-नरेश अमानसिंहजू देव ने चौपड़ के खेल में गोट मारे जाने पर अपने बहनोई प्राणसिंह को मार डाला था। बुन्देलखंड के मध्यकालीन खेलों का अध्ययन बुन्देली संस्कृति के समझने का महत्त्वपूर्ण साधन है।
गायन, वादन और नृत्य परिष्कृत विनोद थे, जिनमें राजा, सभासद और शिक्षित वर्ग के लोग अधिक रुचि लेते थे। आचार्य केशव, हरिसेवक मिश्र, बोधा आदि ने संगीत, नृत्य और काव्य के अखाड़ों का वर्णन किया है। नारहट के जागीरदार मधुकरशाह की सभा से बेड़नी (नर्तकी) को अंग्रेज अधिकारी द्वारा बलात ले जाने के कारण जन-विद्रोह हो गया था और फाँसी होने के बाद मधुकरशाह किंवदन्तियों और लोकगीतों का नायक बन गया था।
बुन्देली मध्यकालीन लोकाचार और लोकरीति
लोकाचार के अन्तर्गत जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी आचार-व्यवहार आते हैं, जिनमें महत्त्वपूर्ण जीवन-संस्कारों का विकास और उत्कर्ष देखा जा सकता है। मध्ययुग में कन्या-जन्म पर उतना उल्लास नहीं होता, जितना कि पुत्र-जन्म पर। पुत्र-जन्म पर भूत-प्रेत भगाने के लिये थाली बजना, राई-नोन उतारा जाना, बन्दूकें छूटना और लड्डू या गुड़ बाँटना आदि होता था । कुछ दिन सौर रहती थी और छठी या चौक में उठती थी। खरीपटा (नामकरण) पर तमोर लाना और पहलौटा बच्चा होने पर बुआ का चंगेल या पलना लाना हर्ष का प्रतीक था।
जन्मसंस्कार के लोकगीत सोहर मध्ययुग की देन है, जिससे रात-दिन सोने के हो जाते थे। जन्म के बाद पसनी, मूंडना, कन्छेदन, जनेऊ आदि में नाना रीतियाँ प्रचलित थीं। ये रीतियाँ धर्म और जाति के अनुसार अलग हुआ करती थीं। दूसरा मुख्य संस्कार विवाह था, जिसमें टीपना मिलने से लेकर रोटी छुआने तक की विविध रीतियों में पारिवारिक संस्कृति का माधुर्य बिखरा हुआ था।
मृत्यु का संस्कार समाज का मुख्य अंग है। संसार को ओस का बूँदा कहकर क्षणभंगुरता की व्यंजना सर्वत्र की गई है। मृत्यु-सम्बन्धी रीतियाँ हर जाति में अलग-अलग हैं, जिनका परिवर्तन कठिन है। हरदौल के विषपान पर मृत्यु का वर्णन बुन्देली काव्य में हुआ है। करुणा के ये चित्र इतने गहरे होते हैं कि अभिव्यक्ति भी थक जाती है।
आतिथ्य बुन्देलखंड की प्रमुख सामाजिक रीति थी। सामाजिक पर्वों, उत्सवों और धार्मिक कृत्यों की विविध रीतियाँ प्रचलन में थीं। प्रमुख त्योहारों में सामान्य रीतियों का अनुसरण होता था, किन्तु सामान्य पर्वों में भावज और देवर तथा ननद का हास-परिहास इस जनपद की एक विशिष्ट प्रवृत्ति है, जो यहाँ के अधिकांश लोकगीतों की विषयवस्तु बनी है।
कृषि से सम्बन्धित भुजरियाँ, जवारे, अखती, हरेता, देवशयन एवं परम्परिक रीति से मनाए जाते हैं, पर उनकी रीतियों में परिवर्तन भी हुआ है। ये परिवर्तन किसी-न-किसी महत्त्वपूर्ण स्थिति या घटना से प्रेरित हुए हैं। उदाहरण के लिए, पृथ्वीराज चौहान के चन्देलों पर आक्रमण के कारण परमर्दिदेव की पुत्री चन्द्रावलि को युद्ध के बीच में कजरियाँ खोंटनी पड़ी थीं और ऊदल की वीरता के कारण ही कजलियों का उत्सव सम्पन्न हो सका था।
सम्भवतः इसीलिए इस उत्सव में कजरियाँ छैंकने (रोकने) की रीति का विकास हुआ, जो आज तक पूरे प्रदेश में प्रचलित थी, पर अब उसका प्रचलन समाप्त होता जा रहा है। तीर्थ यात्रा, धर्म पर बलिदान और गाय के प्रति पूज्य भाव की रीतियाँ भी धीरे-धीरे बदलती गईं।
ओरछा-नरेश जुझारसिंह के समय पहाड़सिंह का गौंड़वाने की गायों की दुर्दशा अनुभव कर आक्रमण करना गोप्रेम का प्रतीक है। कहा जाता है कि पहाड़सिंह ने संकल्प किया था कि वे जब तक गौंड़वाना पर विजय न कर लेंगे, तब तक भोजन नहीं करेंगे। लेकिन उनके इस संकल्प की पूर्ति नकली गौड़वाना बनाकर और
उस पर पहाड़सिंह के आक्रमण के उपरान्त विजय दिलाकर की गई थी। तात्पर्य यह है कि मध्यकाल में बहुत-सी रीतियों में परिवर्तन हो गया था।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल