चन्देलकाल में बुन्देलखंड जेजाभुक्ति या जैजाकभुक्ति के नाम से प्रसिद्ध था और चन्देल सर्वाधिक शक्तिसम्पन्न शासक थे। चन्देलकाल में Bundeli Lokkavya ka Srijan पुष्पित एवं पल्लवित हो रहा था ।
बुन्देली लोकभाषा सृजन 12वीं शती
चन्देलकाल में संस्कृत को राजभाषा का सम्मान प्राप्त था, लेकिन बुन्देली लोकभाषा का प्रचलन हो चुका था और तत्कालीन हिन्दवी अर्थात् लोकभाषा में कविता रची जाने लगी थी। 1023 ई. में चन्देलनरेश गंड की एक स्वनिर्मित कविता का उल्लेख मिलता है, जिसकी भाषा ‘हिन्दवी’ बताई गई है।
12वीं शती के अन्तिम चरण में यानी कि 1182 से 1200 ई. के बीच कभी आल्हा- गाथाओं से एक तथ्य उजागर होता है कि 12वीं शती से पूर्व Bundeli Lokkavya ka Srijan मे लोकगीतों, वीरतापरक आख्यानगीतों और अन्य गाथाओं का सृजन हो चुका था।
लोककाव्य का वर्गीकरण
इस कालखंड में दिवारी, लमटेरा, राई, देवीगीत, सावन, राछरे, पँवारे, लोकगाथाएँ आदि लोककाव्य का विकास और उत्कर्ष दिखाई पड़ता है। उसका वर्गीकरण विषय, विधा, छन्द और शैली के आधार पर सम्भव है। यहाँ उसकी विभिन्न रेखाएँ अंकित की गई हैं।
विषय के आधार पर
A – चरागाही लोककाव्य
दिवारी, कारसदेव, धर्मासाँवरी और गहनई, लोकगीत एवं लोकगाथाएँ।
B – वीरतापरक लोककाव्य
राछरे, पँवारे, वीरगाथाएँ आदि।
C – भक्तिपरक लोककाव्य
लमेटरा, देवीगीत, नौरता के गीत आदि।
D – प्रकृतिपरक या ऋतुपरक लोककाव्य
सावन, राई आदि।
E – संस्कारपरक लोककाव्य
जन्म और विवाह के गीत।
1 – स्वच्छन्द मुक्तक के रूप में
जैसे लमेटरा, राई, साखी, सावन, संस्कार-सम्बन्धी गीत, देवी-गीत आदि।
2 – आख्यानक गीतकाव्य के रूप में
जैसे राछरे, पँवारे तथा अन्य।
3 – प्रबन्ध के रूप में
जैसे कारसदेव की गाथा, धर्म-साँवरी, गहनई, आल्हा आदि।
छन्द के आधार पर
A – दोहापरक लोककाव्य
जैसे दिवारी, साखियाँ, राई, लमेटरा आदि।
B – गाहापरक लोककाव्य
जैसे देवीगीत, आल्हा, गाथाएँ आदि।
C – छन्दमुक्त लोककाव्य
जैसे कारसदेव की गोटें, धर्मा, साँवरी, गहनई आदि।
D – पदपरक लोककाव्य
जैसे सावन, राछरे, पँवारे, तथा संस्कारपरक गीत।
रसानुभूति के आधार पर
A – वीररसपरक लोककाव्य
जैसे राछरे, पँवारे, कारसदेव एवं आल्हा की गाथाएँ।
B – भक्तिपरक लोककाव्य
जैसे लमेटरा, देवीगीत, नौरता के गीत आदि।
C – प्रकृतिपरक लोककाव्य
जैसे सावन, राई, दिवारी, लमेटरा आदि।
D – श्रृंगारपरक लोककाव्य
जैसे संस्कारपरक गीत, फाग, लमेटरा, राई आदि।
शैली के आधार पर
A – ओजमयी उदात्त शैली
राछरे, पँवारे और वीरगाथाओं में।
B – वर्णनात्मक शैली
संस्कारपरक, देवी, नौरता, सावन, दिवारी आदि में।
C – कथात्मक शैली
आख्यानक गीतों, वीरगाथाओं, चरागाही काव्य, सावन, देवीगीतों आदि में।
लोककाव्य का विकास के स्रोत
बुन्देली लोकगीत और लोकगाथाएँ जिन स्रोतों से फूटी हैं, वे बहुत स्पष्ट हैं। इस अंचल के दिवारी गीतों और सखयाऊ फागों में दोहे का बँधान है। लमटेरा और राई भी उसी की उपज हैं। इन लोकगीतों के केन्द्र में दोहा रहा है। दोहा अपभ्रंश का लाड़ला छन्द है और उसका उत्कर्ष 9वीं-10वीं. शती में हुआ था। आज भी अहीरों का प्रिय छन्द दोहा है और दिवारी गीतों में दोहे का प्रयोग तभी से आज तक हो रहा है।
इस अंचल में अहीरों की संख्या पहले अधिक थी, गोपगिरि (ग्वालियर) क्षेत्रा में अहीरों या आभीरों का निवास था। छन्दशास्त्र में 11 मात्राओं के चरणवाला आभीर या अहीर छन्द मिलता है। यह भी संभव है कि इस छन्द का विकास दिवारी गीतों के रूप में हुआ हो। इतना निश्चित है कि दिवारी गीतों का चलन 10वीं शती में था। बुन्देली की सखयाऊ (साखी की) फाग भी दोहे के आधार पर बनी थी।
( संदर्भ- नर्मदा प्रसाद गुप्त के ग्रंथ से)
चन्देलों के राज्य में वसन्तोत्सव या रंगोत्सव को सर्वाधिक महत्त्व मिला था, जिसकी साक्ष्य गुजरात के सिद्धराज जयसिंह और चन्देलनरेश मदनवर्मन (1929-65 ई.) के बीच घटित उस ऐतिहासिक घटना से मिलती है, जिसमें युद्ध के भूखे सिद्धराज ने मदनवर्मन के वसन्तोत्सव के विनोद से प्रभावित होकर सन्धि कर ली थी।
‘कुमार पाल प्रबन्ध’ के अनुसार गुजरात के राजा सिद्धराज ने अपने एक विश्वस्त और सुयोग्य मन्त्री को चन्देलनरेश मदनवर्मन के राज्य में वस्तुस्थिति का पता लगाने भेजा था। वह छह माह तक राज्य में रहकर सिद्धराज के पास पहुँचा था और उसने महोबा के वसन्तोत्सव का वर्णन किया है, जिसमें संगीत ओैर गीत को प्रमुख महत्त्व दिया गया है।
इससे सिद्ध है कि बुंदेलखंड अंचल में वसन्तोत्सव लोकप्रिय था और वसन्त के गीत में सखयाऊ फाग प्रचलित होने के लिए पूरा-पूरा अवकाश था। दोहे के आधार पर ही राई गीत का विकास हुआ है। पहले एक टेक और फिर दोहा तथा इसी की आवृत्ति। इसी गीत के साथ बेड़िनी नृत्य करती है, जिसे राई नृत्य कहते हैं।
लमेटरा लम्बी टेर से गाया जाने वाला दोहा ही है, जो परबी या तीर्थयात्रा के समय श्रम-परिहार के लिए समूह द्वारा प्रयुक्त होता है। इसे साखी भी कहते हैं, जो तुकान्त और अतुकान्त दोनों रूपों में होती है। इसी के आधार पर एक चरण के लमेटरे का आविर्भाव हुआ है, जिसमें पहले अद्र्धांश को दूसरे अद्र्धांश के साथ गाया जाता है। इस प्रकार दोहा को केन्द्र में रखकर लोक गीतों का विकास लोककाव्य के आविर्भाव की एक दिशा है।
बुन्देली भाषा के उद्भव में अपभ्रंश से अधिक प्राकृत का हाथ रहा है, इसीलिए प्राकृत की गाहा से देवीगीत, राछरे, पँवारे और गाथागीत उत्पन्न हुए। ‘सावन’ यानी सावन के गीत भी गाहा के संस्कारित रूप हैं। संस्कारपरक गीतों के प्रमुख पुराने रूप भी इसी की उपज हैं। तात्पर्य यह है कि आदिकालीन लोककाव्य दोहा और गाहा के पुराने स्वरसन्दर्भ परिवर्तित कर रचा हुआ और लोकप्रचलित काव्य है।
लोककाव्य का तीसरा रूप कथानक था, जिसमें छोटे-छोटे टुकड़े कथन या बातचीत के ढंग पर कार्यव्यापार की गति के साथ-साथ बुने गए हैं। बच्चों के खेलों में गाए जानेवाले गीतों की रचना खेल की गति के आधार पर होती है। इसलिए वे लोकगीत तीव्र लय-प्रवाह और कई यतियों से संचरित होते हैं।
नौरता के कुछ गीत कन्याओं की स्वभावगत होड़ और चंचलता से परिचालित होने से भी कथनात्मक द्रुति से प्रहवमान रहते हैं। कारसदेव की गोटों में भी यही कथनात्मक द्रुति अन्तरप्रवाहित है। लोककाव्य का यह रूप लोक से सीधा आया है और रचाव की द ष्टि से यही लोककाव्य का प्रारम्भिक स्वरूप है।
लोककाव्य के विकास के चरण
लोककाव्य के विकास का एक क्रमिक प्रवाह रहा है। पहले चरण में लोककाव्य का उद्भव हुआ है, और वह भी क्रमबद्ध है तथा परम्परा से मेल खाता है। सर्वप्रथम कथनात्मक लोककाव्य आया, जिसका उत्थान लोकप्रचलित परम्परा का परिणाम था। उसके बाद दोहा पर केन्द्रित लोककाव्य अर्थात दिवारी, सखयाऊ फाग, साखी, राई लमटेरा आदि रचा गया।
फिर गाथा के आधार पर देवीगीत, गाथागीत प्रचलित हुए। इस प्रकार प्रारम्भिक चरण में तीन दिशाएँ थीं। यह चरण जगनिक लोककवि के पूर्व का है, उनकी कृति (1182-1200 ई.) ‘आल्ह गाथा’ एक विकासशील महाकाव्य है। उसके रचना-काल से लोककाव्य की उत्कर्ष-रेखा बनती है। यही लोककाव्य का दूसरा सोपान है, जो 12वीं-13वीं शती का दो सौ वर्ष का कालखंड है।
14वीं शती के प्रारम्भ से 15वीं शती के मध्य तक लोककाव्य के अवरोह का काल है। इस कालखंड में मुस्लिम आक्रमणकारियों की वजह से अनेक हस्तलिखित पांडुलिपियाँ काल के गाल में चली गईं। इन तीनों चरणो में लोककाव्य का सृजन निरन्तर हुआ है और उसी ने हिन्दी के परिनिष्ठित काव्य को समृद्धि और शक्ति दी है।
लोककाव्य का प्रारम्भिक स्वरूप
प्रारम्भिक लोककाव्य कथनात्मक रूप में था। उसकी लय जीवन के कार्यव्यापार की गति से निश्चित होती थी। कथन के खंडों को तुकान्त से या स्वराघात से लयवान बनाया जाता था। कबड्डी खेलते समय बच्चे अपनी साँसों की गति के हिसाब से लयवान टुकड़े कर लेते हैं। ‘नौरता’ के एक गीत की कुछ पंक्तियाँ….
मोरी गौरी माँगे धतूरे के बन्ना, सो काँ पाँहों रे लाल।
मोरे भैया भतीजे,हाटै गये हैं,
पाटै गये हैं कारी ले कुंजल चैक बसन्तो
ले मोरी गौरा, लेव महादेव, जो तुम माँगो, सोई चढ़ैहों।
इस प्रकार के लोकगीत अब बहुत कम रह गए हैं। खेलों से सम्बन्धित गीत तो जीवित हैं, पर अन्य गेयता के माधुर्य से वंचित होने के कारण धीरे-धीरे मुझाते हुए विलीन हो गए। कारसदेव की गोटों में कहीं-कहीं कथानात्मक रूप के दर्शन मिल जाते हैं।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
संदर्भ–
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल
बहुत अच्छी जानकारी दी आपने💐💐💐👌👌👌👌