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Bundeli Lok Katha बुन्देली लोककथा का उद्भव और विकास

बुन्देलखण्ड की लोकसंस्कृतिक वैदिक संस्कृति से भी अधिक पुरानी है। वैदिक काल में यहाँ आर्य संस्कृति का प्रवेश नहीं हुआ था, क्योंकि उत्तर वैदिक साहित्य में ही नर्मदा नदी का नाम मिलता है। बुन्देलखंड के प्राचीन निवासी पुलिन्द, किरात, शबर (सौंर), विन्ध्यमौलेय आदि अनार्य जातियाँ थीं और उनमें लोकगीतों और लोककथाओं का प्रचलन था। Bundeli Lok Katha का उद्भव और विकास हो चुका था यह बात अलग है कि उनकी भाषा बुन्देली नहीं थी।

Origin and Development of Bundeli Folklore

लोककथाएँ वृक्ष, पशु-पक्षी, पर्वत और आटविक संस्कृति से जुड़ी थीं। उनमें देवी या शक्ति के प्रति अटूट विश्वास था। जब आर्य ऋषियों ने आश्रमों की स्थापना कर अपने धर्मोपदेशों के द्वारा वन्य जातियों को संस्कृत करने का अभियान चलाया, तब दो संस्कृतियों के द्वन्द्व से एक नई लोकसंस्कृति का जन्म हुआ और लोककथाओं में भी नई नैतिकता तथा अभिप्रायों का प्रवेश हुआ।

महाभारत-काल में यादवों की संस्कृति सत्ता में रही एवं महाजनपद-काल में चेदि और दर्शाण जनपदों की स्वच्छन्द प्रकृति के कारण लोक संस्कृति का विशिष्ट रूप विकसित हुआ। आशय यह है कि अब तक की लोककथाएँ अधिकतर अनार्य लोकमूल्यों से प्रेरित थीं, किन्तु शुंगों, भारशिवों, वाकाटकों और गुप्तवंशी अधिनायकों के समय आधुनिक संस्कृति की इमारत खड़ी हुई, जिसके लोकादर्शों की छाप ने लोककथाओं का ढाँचा बदल दिया।

9 वीं शती तक कमजोर सत्ताकेन्द्रों की वजह से जनजातियाँ स्वतन्त्र हो गईं और फिर एक बार लोकचेतना की सबलता के फलस्वरूप लोककथाओं में प्रगति हुई। इसी परिवेश की कोख में बुन्देली लोकभाषा का उदय हुआ और बुन्देली लोककथाओं का जन्म हुआ।

10वीं शती में चन्देलों के सुदृढ़ शासन कालमें शान्ति और समृद्धि से लोककथाएँ पल्लवित हुईं। हालाँकि चन्देलों ने परिनिष्ठित Defined संस्कृति और संस्कृत साहित्य को ही सम्मानित किया था, पर लोकसंस्कृति और लोकसाहित्य सत्ता पर निर्भर नहीं रहते। यही कारण है कि 1182 ई. से 1193 ई. तक के मध्य रचित बुन्देली की आल्हा लोकगाथाएँ लोकमहाकाव्य के रूप में उदित होकर प्रचलित हुईं।

लोककथाओं का विकास भी इस समय तेजी से हुआ था। विक्रम संवत् 1011 अर्थात् 954 ई. के खजुराहो अभिलेख में चन्देल नरेश वाक्पति का किरात स्त्रिायों द्वारा मनोविनोद के लिए जिन गीतों के सुनाने का उल्लेख है, वे लोकभाषा के ही थे, जो लोक में प्रचलित भी थे। इससे यह भी सिद्ध है कि लोककथाओं द्वारा लोकानुरंजन भी तत्कालीन लोकसंस्कृति का अभिन्न अंग था।

खजुराहो अभिलेखों, पृथ्वीराजरासो के महोबा खंड और परमाल रासो के नाम से प्रकाशित महोबा रासो में चन्देलों की उत्पत्ति से सम्बन्धित लोकप्रचलित ऐतिहासिक एवं अर्द्ध-ऐतिहासिक जनश्रुतियों से लोककथाओं के संवर्द्धन की पुष्टि होती है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि हिन्दू जातियाँ अनेक उपजातियों में बँट गई थीं, स्त्रिायों के विवाह के साथ वीरता के लोकादर्श जुड़ गए थे, भूत-प्रेत और तन्त्र-मन्त्र आदि पुराने लोकविश्वास अधिक मजबूत हो चुके थे तथा अनेक देवी-देवता पूजे जाने लगे थे।

पौराणिक -ऐतिहासिक, वीरतापरक, भूत-प्रेत-सम्बन्धी चमत्कारिक एवं धर्मपरक लोककथाएँ विकसित हो चुकी थीं। अभी प्रचलित अनेक लोककथाओं के अनेक अभिप्राय इसी समय के हैं, जो मध्ययुग में रूढ़ बन गए हैं।

मध्ययुग में 15 वीं शती के प्रथम चरण में देसी भाषा और देसी संगीत के प्रत्यावर्तन से लोकचेतना का पुनरुत्थान हुआ। दूसरे, सूफियों के द्वारा इस्लाम की कथाओं का प्रचार किया गया। तीसरे, भक्ति-आन्दोलन ने धर्मगाथाओं को प्रश्रय दिया। इन कारणों से लोककथाओं में बाढ़-सी आ गई। यहाँ तक कि काव्यग्रन्थों का नाम रामायन कथा, छिताई कथा आदि रखने की होड़-सी लग गई। कई ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं, जिनसे 15 वीं-16 वीं शती को लोककथा का उत्कर्ष-काल कहना उचित है।

असल में, कथाकारों को जन-जागरण का बहुत महत्त्वर्पूण दायित्व सँभालना पड़ा, लोकभाषा के संरक्षण की भी समस्या थी, इसलिए कथाकार ने पद्य और गद्य दोनों हथियार सजग होकर प्रयुक्त किए थे। इतना ही नहीं, परिनिष्ठित भाषा कवियों ने भी लोककथाएँ और उनके अभिप्राय अपने कथानकों में अपनाए।

Bundelkhand में अखाड़ों और फड़ों का विकास भी इसी समय हुआ था, जिसने लोककथा में प्रतियोगिता और प्रश्नोत्तर शैली की प्रेरणा प्रदान की थी। फल यह हुआ कि आदिकालीन लोककथाओं के इकहरे कथानक दुहरे-तिहरे होते गए और कथानकों के फैलाव से वक्ता की श्रेष्ठता मापी जाने लगी।

एक कथा में राजा कथा जल्दी खत्म होने पर वक्ता को दंडित करने की घोषणा करता है, जो वक्ता कथाकार के लिए चुनौती थी। उत्तरमध्य युग में युग के अनुरूप प्रेमपरक और सामन्ती संस्कृति को बिम्बित करनेवाली कथाओं की संख्या बढ़ी और मनोरंजन मात्रा ही उनका लक्ष्य हो गया।

19 वीं शती के अन्तिम चरण में लोकचेतना का पुनरुत्थान हुआ, जिससे लोककाव्य एवं लोककथा तथा लोकसाहित्य की हर विधा में एक नई हलचल स्वाभाविक थी। लोककवि ईसुरी के फागकाव्य में प्रवर्तन के कारण फागकारों का एक कवि-समुदाय फागों की रचना में प्रवृत्त हो गया, भारतीय विद्वानों ने लोककथाओं पर हिन्दी या लोकभाषा में कार्य नहीं किया। इतना अवश्य है कि विदेशी विद्वानों ने लोककथाओं पर संकलन और समीक्षा की दिशा में काफी परिश्रम किया था।

इस दृष्टि से बुन्देली लोककथाओं के संकलनकर्ताओं में पहला नाम उन्हीं का है। ‘मधुकर’ में उनकी कई लोककथाएँ प्रकाशित हुईं ही, पर बाद में उनके संकलन ‘बुन्देलखंड की ग्राम कहानियाँ (1947 ई.), गौने की विदा (1954 ई.), पाषाण नगरी, हमारी लोककथाएँ (1956 ई.) और ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ प्रकाशित हुए।

डॉ. श्याम परमार जैसे विद्वान पारखी ने इन संकलनों के बारे में लिखा था कि ‘हिन्दी में स्वर्गीय शिवसहाय चतुर्वेदी ने लोककथा की परम्परित शैली, स्थान और परिवेश को सुरक्षित रखा है । चतुर्वेदीजी के समकालीन पपौरा के दयाचन्द्र बाछल की कुछ कथाएँ मधुकर में प्रकाशित हुई थीं। श्री देव के नाम से प्रकाशित कथाएँ वीरसिंह जू देव द्वारा संग्रहित थीं, पर उनके संग्रह का पता नहीं चल सका। अन्य लेखकों में रघुनाथ सिंह, बाबूलाल जैन, घनश्याम दास जैन आदि थे।

स्व. श्रीचन्द जैन के संग्रह ‘विन्ध्यभूमि की लोककथाएँ’ (1954 ई.) और ‘मनोरंजक लोककथाएँ’ (1957 ई.) भी महत्त्वर्पूण थे। ‘लोकवार्ता’ और ‘मामुलिया’ पत्रिकाओं ने भी अपना बहुत योगदान दिया और कुछ कथाएँ प्रकाश में आईं। 1977 ई. में डा. बलभद्र तिवारी का संकलन ‘आधी रात के मल्हार’ प्रकाशित हुआ, जिसमें लेखक के द्वारा केवल एक लोककथा और शेष स्व. शिवसहाय चतुर्वेदी की पुस्तक से ली गई थीं।

झाँसी के रामचरण हयारण ‘मित्र’ ने अपनी पुस्तक ‘बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य’ में दसारानी व्रत की दो कथाएँ दी हैं। चिरगाँव (झाँसी) के स्व. हरगोविन्द गुप्त ने अपनी पुस्तक ‘लक्ष्मी’ में देवी लक्ष्मी से सम्बन्धित कुछ लोककथाएँ संकलित की हैं, लेकिन उनमें लोककथा शैली का परम्परित रूप नहीं उभरा।

बुन्देली लोककथाओं को लोकभाषा में लिखने का श्रेय स्व. शिवसहाय चतुर्वेदी को है। उन्होंने सबसे पहले जाँन पाँड़े कथा सागरी बुन्देली में लिखी थी। ‘चैमासा’ पत्रिका में भी बुन्देली और उसके हिन्दी अनुवाद के साथ कई लोककथाएँ प्रकाशित हुई हैं।

‘मामुलिया’ त्रौमासिक पत्रिका में एम.ए. हम्फी, रामनाथ अशान्त और श्रीमती मालती घोष की लोककथाएँ प्रकाशित हुई हैं। इनके अलावा विन्ध्यभारती, विन्ध्यशिक्षा, बुन्देलीवार्ता, मध्य प्रदेश सन्देश, आजकल, उत्तर प्रदेश, ईसुरी और कई स्मारिकाओं में बुन्देली लोककथाओं को स्थान मिला है। ओरछा के भगवान सिंह गौड़ ने कुछ नई लोककथाएँ लिखी हैं, जो ठेठ बुन्देली में हैं।

बुन्देली लोक कथा परंपरा 

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

 

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