कई दिनो से काम की तलास मे घूमते-घूमते एक दिन Buddhu Chandra Girdhari Lal शहर की आलीशान कोठियों में से एक में काम पर रख लिए गये। गिरधारी लाल को कोठी की सुरक्षा का काम मिला तो बुद्धू चन्द्र ने माली का काम सम्भाल लिया।
दिन के नौ बज चुके थे, उम्मीद टूटती-सी जा रही थी। आसमान की ओर सूरज को देखा तो धूप की बढ़ती तपिश अपने चेहरे पर महसूस करते वह स्वयं से बोला, ‘क्या आज भी काम नहीं मिलेगा? आज तीसरा दिन है, क्या आज भी उसे हाथ पर हाथ धरे बैठा रहना पड़ेगा।’
हैंडपम्प का पानी चुहंक खाली पेट वह बड़े भुन्सारे ही और लोगों की तरह इस चौराहे पर आ गया था। स्वयं को दिन भर के लिए किराये पर देने या बेचने के लिए। कल रात गिरधारी ने तीन मोटे गक्कड़ सेंके थे, एक उसे भी दिया था नमक-प्याज के साथ…पेट तो नहीं भरा था उसका, पर एक लोटा पानी ऊपर से पीकर उसने खुद को पेट भरे होने का अहसास जरूर कराया था।
एक बार उसे जो भी काम पर बुला ले जाता तो उसके काम से सन्तुष्ट हुए बिना न रहता, पर सुबह-सुबह लेबर चौराहे पर आने वाले उसकी मेहनत को क्या जानें? उनकी आंखें तो मोटे-तगड़े लोगों को ढूंढ़ती रहती हैं, जिन पर वह काम का भरोसा कर सकें। उस जैसे दुबले-पतले काया वाले की ओर कोई देखता भी नहीं, गाहे-बगाहे उससे मजदूरी का रेट जरूर पूछ लिया जाता, इस उम्मीद के साथ कि वह कम मजदूरी पर तैयार हो जाए। इधर तीन दिनों से कोई उससे मजदूरी पूछना तो दूर, उसकी ओर आंख उठाकर देखने वाला भी नहीं आया था।
एक दो से तो उसने कम मजदूरी पर काम करने की मिन्नत भी की, पर कोई लाभ नहीं हुआ। जैसे-जैसे आसमान में सूरज लट्ठे पर लट्ठे चढ़ता जा रहा था, बुद्धू का दिल बैठा जा रहा था। क्या आज भी उसे मजदूरी न मिलने की नाकामी झेलनी होगी? लेबर चौराहे से धीरे-धीरे मजदूर कम होते गये। दस बजते-बजते उस जैसे दसियों लोग मायूसी में इधर-उधर ताकते खिसकने लगे, तो कुछ लोग अब भी उम्मीद लगाए, बुझी बीड़ी में फूंक मार उसे जलाने का बेमतलब-सा प्रयास जारी रखे थे।
यूक्लिपटस के नीचे गिरधारी बैठा दिख गया। बुद्धू को घोर आश्चर्य हुआ, गिरधारी जैसे सेहतमंद आदमी को भी कोई काम पर नहीं ले गया। ये कैसे हो सकता है? इसी जिज्ञासा के साथ उसने गिरधारी की ओर देखा जो बीड़ी को मुंह मारने के बाद उसका प्रश्न समझ स्वयं ही बोल पड़ा, ‘‘काम तो मिला था, पर ठेकेदार का मुंशी अपना कमीशन बीस रुपये मांग रहा था। दिनभर हाड़तोड़ मेहनत खुद करो और मजदूरी के सौ रुपये में से बीस रुपया मुंशी को नाहक में पकड़ाओ, ये मेरे से नहीं होगा। छोड़कर चला आया। तुझे आज भी कोई नहीं ले गया?’’
‘‘नहीं भैया।’’ बुद्धू हताशा के स्वर में गिरधारी के पास बैठते बोला। ‘‘बीड़ी पिएगा?’’ ‘‘अभी तक तो नहीं पी भैया।’’ बुद्धू ने न में अपना सिर हिलाया। ‘‘तो अब पी ले, ताजगी आएगी, भूख भी नहीं लगेगी।’’ गिरधारी ने बुद्धू की ओर बीड़ी बढ़ाई। बुद्धू ने भूख न लगे, इस वजह से हिचकिचाते हुए बीड़ी अपने हाथ में ले तो ली, पर पिए कैसे, उसने तो बीड़ी को पहले कभी हाथ नहीं लगाया था।
‘‘मुंह में होंठों के बीच रख और गहरी सांस खींच।’’ गिरधारी ने बुद्धू को तरीका बताया। बुद्धू ने गिरधारी के कहे जैसा किया, पर उससे कहीं कुछ गड़बड़ा गया, तभी नाक-मुंह से धुआं निकालते, खांसते-खांसते वह हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ। गिरधारी बुद्धू की हालत देख खिल-खिलाकर हँस पड़ा। ‘‘ला बीड़ी इधर दे, ये तेरे बस की नहीं है।’’ गिरधारी ने बुद्धू से बीड़ी छीन ली और दो-तीन कश खींच बीड़ी वहीं नाले में फेंक दी। बुद्धू हैरत से गिरधारी को कश लगाते देखता रह गया। एक गिरधारी है जिसे काम आसानी से मिल जाता है, बीड़ी पीने का शऊर भी है, एक वह है जो काम नहीं पाता है और गिरधारी जैसा गुणी भी नहीं है।
‘‘क्या सोच रहा है तू? चल शनि देव मंदिर चलते हैं। वहां इतना प्रसाद- पूड़ी मिल जाती है कि दिनभर के लिए पेट की तरफ से फुर्सत।’’ गिरधारी ने उठते हुए बुद्धू के कन्धे पर हाथ मारा। बुद्धू गिरधारी के साथ हो लिया। शहर की सड़कें लोगों की आवाजाही से भर चुकी थीं, साइकिल, स्कूटर और कारों की रेलमपेल मची हुई थी। ‘पता नहीं इतने सारे लोग इस वक्त सड़क पर कहां से आ जाते हैं और पता नहीं कहां बिला जाते हैं।’
बुद्धू सोचने लगा। ‘सभी के पास काम है, पैसा है, इज्जत है, उस जैसे गांव के भूमिहीन मजदूर ईमानदारी से काम की तलाश में शहर-दर-शहर धूल फांकते हैं, काम तलाशते हैं, दिनभर की मेहनत के बाद जो मजदूरी मिली, उसका बहुत थोड़ा हिस्सा स्वयं पर खर्च कर शेष पैसा गांव ले जाने के लिए बचा लेते हैं, जहां बूढ़े मां-बाप, बहन-भाई और यदि विवाह हुआ तो पत्नी-बच्चे उस जैसे गरीब लाचार किन्तु मेहनतकश मजदूर के भरोसे रहते हैं।
बहुत ही कम इच्छा के साथ। गेहूं-चावल यदि घर में है, तब कोई चिन्ता नहीं, कोई खर्चा नहीं, ईंधन का जुगाड़ हो ही जाता है, रोटी बन गयी या नमक का ढेला डेकची में डाल, चावल पका लिए, घर भर ने खाया और चैन पा गये। न किसी का बुरा तकना, न किसी का बुरा करना, राम सबका भला करेंगे, इस सोच और उम्मीद के साथ जिन्दा रहना, खुश रहना उन्होंने सीख लिया था।
शहर में उस जैसे मजदूर सैकड़ों की तादाद में फैले हुए हैं जो भोर होते ही विभिन्न चौराहों पर मजदूरी पाने की उम्मीद के साथ निकल जाते हैं। कितने सारे ऐसे भी लोग हैं जो लगातार काम न मिलने की स्थिति में अपना खून बेच देते हैं और प्राप्त पैसा गांव भिजवा देते हैं। घर वाले समझते हैं भैया की खून-पसीने की कमाई है। भैया दिन भर बैल की तरह जुता होगा, रोटी का टुकड़ा
मुंह में डालते पता नहीं कितनी बार बूढ़े मां-बाप की आंखें पसीज उठती होंगी और यहां शहर में घर-परिवार, बाल-बच्चों, मां-बाप से दूर रहता मजदूर, जिसके न रहने का ठिकाना, न खाने का ठिकाना, मारा-मारा सा, हर ओर से ठुकराया-सा अपने जैसे कुछ और लोगों के साथ खुले में सोता, खुले में रहता। एक और दिन की प्रतीक्षा में एक और सुबह के इन्तजार में, उसे काम मिले और वह दो पैसे कमा सके ईमानदारी के साथ। ‘‘अरे बुद्धू रे…मरेगा क्या?’’
गिरधारी ने बुद्धू को अपनी ओर खींच न लिया होता तो पता नहीं पल भर में क्या का क्या हो जाता। पलक झपकते ही सवारियों से लदी-फदी मिनी सिटी बस हिचकोले खाते बुद्धू के रास्ते से निकल गयी। बुद्धू की आंखें फटी की फटी रह गयीं, पूरे शरीर के रोंगटे भय से खड़े हो गये! ‘हे राम गिरधारी न खींचता उसे तो…’ आगे वह सोच भी नहीं सकता था।
‘‘क्या सोच रहा था रे, खुश रहा कर। यहां शहर में काम करने आए हो तो सब्र तो करना ही पड़ेगा। तू परेशान काहे को होता है, सब ठीक हो जाएगा।’’ गिरधारी ने बुद्धू की पीठ थपथपा उसे सान्त्वना दी। प्रसाद में मिले दो मोटे पुए पा बुद्धू मन ही मन हर्षित हो उठा। दो पुए पा वह ऐसा प्रसन्न हो रहा था, इस वक्त, मानो बिना काम किए दिन भर की मजदूरी पा गया हो। पुए लिए वह गिरधारी की ओर बढ़ा, पर गिरधारी बिजली के खम्भे के पास से नदारद था, जहां बूद्धू उसे छोड़कर गया था। कहां गया होगा गिरधारी?
वह गिरधारी को तलाशने लगा। शनि मंदिर के बाहर बीसियों कारें, दो पहिया वाहन खड़े थे। श्रद्धालुओं की भीड़ में वह गिरधारी को कहां खोजे? भूख से उसका हाल बेहाल हो रहा था, पर बिना गिरधारी के वह अकेले कैसे खा सकता था? मंदिर के प्रांगण में शनि देव के टी.वी. सीरियल की शूटिंग चल रही थी, गिरधारी वहीं भीड़ में शूटिंग देखने में मस्त था।
‘‘बुद्धू तू भी शूटिंग देख ले, हीरोइन कैसी मस्त है। थाल पर दीया धरे कितना सुन्दर नाच रही है, पतुरिया।’’ गिरधारी ने बुद्धू का हाथ पकड़ लिया। एक घंटा शूटिंग चलती रही और वे दोनों शूटिंग देखते रहे, फिर वहीं मंदिर के सामने बह रही नदी के किनारे बैठ गये और प्रसाद के पुए खाने लगे। उस एक पुए में भला क्या होना था। दोनों उस स्थान पर आ गये जहां लोग प्रसाद बांट रहे थे।
इस बार दोनों भूमि पर बैठ गये। बुद्धू ने अपनी स्वाफी अपने सामने बिछा दी, कोई सिक्का, कोई प्रसाद उस बिछी स्वाफी पर डालने लगा तो कोई उन्हें हाथ में पकड़ाने लगा। गिरधारी को बुद्धू का यह आइडिया पसंद आया। इसी बीच गिरधारी को एक महिला का व्यंग्य सुनाई दिया, ‘‘इतना मुस्टंडा धरा है, कुछ काम-धाम नहीं कर सकता क्या? गांव से शहर चले आते हैं, देहाती कहीं के। भीख मांगते, भीख लेते शर्म नहीं आती इनको।’’ गिरधानी ने देखा रईस घर की भद्र महिला उसी को बोल रही थी। गिरधारी अपमान का घूंट पीकर रह गया, पलभर में ही उसे बुद्धू का यह आइडिया बेकार लगने लगा।
उसका मन हुआ स्वाफी पलट दे और उस बड़बोली महिला के गाल पर एक जोरदार थप्पड़ जमा दे, पर वह दोनों में से कोई कार्य नहीं कर सकता था। बेबस जमीन पर आंखें गड़ाए बैठा रहा। कुछ पल बीते होंगे कि गिरधारी के कानों में उसी भद्र महिला की चीख सुनाई पड़ी, ‘‘मेरा बैग…मेरा बैग…चोर…चोर बचाओ, पकड़ो…’’ गिरधारी ने बिना वक्त गंवाए भीड़ में से भाग रहे उस चोर के पीछे दौड़ लगा दी, चोर ज्यादा दूर भाग न सका। गिरधारी की मजबूत पकड़ में जल्दी ही आ गया। गिरधारी की कसरती देह के आगे उस बेचारे दुबले-पतले चोर की क्या बिसात थी।
भीड़ चोर की पिटाई करने के लिए उमड़ पड़ी, चोर की निरीह निगाहें देख गिरधारी का हृदय पसीज उठा। उसने अपनी पकड़ ढीली कर दी और उसे भाग जाने का मौका दे दिया। चोर की आंखें उसे छोड़ देने पर कातर हो उठीं। गिरधारी के मन में आया बेचारा पता नहीं किस मजबूरी में ऐसा कार्य कर रहा था।
तभी बैग की मालकिन अपने पति के साथ वहां आ पहुंची, ‘‘बुद्धू भी वहां हांफता हुआ आ पहुंचा। गिरधारी ने बैग उस भद्र महिला को लौटा दिया। भीड़ में सभी उसे प्रशंसा भरी दृष्टि से देख रहे थे। ‘‘चलो बुद्धू…।’’ गिरधारी ने बुद्धू का हाथ पकड़कर कहा। ‘‘रुको!’’ भद्र महिला उन दोनों को रोकती बोली। दोनों रुक गये। महिला ने बैग में से सौ रुपये के दो नोट निकालकर गिरधारी की ओर बढ़ा दिए।
गिरधारी ने हाथ जोड़ रुपये लेने से मना कर दिया और बुद्धू का हाथ थामे एक ओर बढ़ गया। ‘‘रुको तो भाई, तुम बुरा मान गये मेरी बातों का।’’ ‘‘नहीं, मेमसाब! हम गरीब मजदूर जरूर हैं, पर भिखारी नहीं, जब मजदूरी नहीं मिलती तो चले आते हैं, मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा के बाहर प्रसाद के रूप में पेट की भूख मार लेते हैं। ईमानदार आदमी की आज के जमाने में कहीं पूछ नहीं है। मेहनत-मजदूरी करके अपना व अपने परिवार का पेट पालते हैं, जब काम नहीं मिलता तो अपना खून बेचकर पैसा गांव भेजते हैं, पर चोरी, लूटमार जैसा काम तो नहीं करते हम गांव के देहाती लोग।’’
‘‘अरे भैया मुझे माफ कर दो, मैं गलत थी। चलो हमारे साथ तुम दोनों हमारी कोठी में काम करना।’’ बुद्धूचन्द्र, गिरधारी लाल दोनों शहर की आलीशान कोठियों में से एक में काम पर रख लिए गये। गिरधारी लाल को कोठी की सुरक्षा का काम मिला तो बुद्धूचन्द्र ने माली का काम सम्भाल लिया। ईमानदारी और मेहनत से जल्दी ही दोनों ने अपने मालिकान का दिल जीत लिया और उन्हें अच्छी पगार मिलने लगी। उनके व उनके घर-परिवार के दुःख-दरिदर दूर हो गये। ईमानदारी और मेहनत ने अपना रंग दिखा दिया।