बिजावर ग्राम विजयसिंह नाम के एक गोंड सरदार ने बसाया था। यह गढ़ामंडला के राजा का नौकर था। उस समय इस इलाके पर गोंड़ों का ही राज्य था। इन लोगें से महाराज छत्रसाल ने जीता था। बाद मे यह जगतराज के हिस्से में आया। वि० सं० 1826 में गुमानसिंह ने इसे अपने चाचा वीरसिंह देव को दे दिया । इस समय गुमानसिह
अजयगढ़ के राजा थे। वीरसिंह देव विक्रम-संवत् 1850 में अलीबहादुर के साथ चरखारी के पास युद्ध में मारे गए। तब हिम्मतबहादुर ने इसके लड़के केसरीसिंह का पक्ष लिया और वि० सं० १८५६ मे उसे अलीबहादुर से सनद दिलवाई। वि० सं० 1860 में जब अंग्रेजी राजसत्ता स्थापित होने लगी तब राजा केसरीसिंह और चरखारी तथा छतरपुर राज्य के बीच सरहदी झगड़े चल रहे थे। इससे केसरीसिंह को इन झगड़ों के निपटारे तक सनद नही मिलन सकी । यह विक्रम-संवत् 1867 में मरा और इसका लड़का रतनसिंह गद्दी पर बैठा।
इस समय झगड़ों का फैसला हो गया था। इसलिये वि० सं० 1868 ( 27-3-1811 ) में इसे गद्दी दी गई। इसने अपने नाम का सिक्का कहलवाया । यह 22 वर्ष राज्य करने के बाद सं० 1890 (17-12-1833) में निसंतान मरा ।
इसके कोई लड़का तो था नहीं इससे विधवा रानी ने खेतसिंह के लड़के लछमनसिंह को गोद लिया । यह वि० स० 1904 में मरा और इसका लड़का भानुप्रताप सिंह राजा हुआ। इसने राजविद्रोह के समय सरकार को बहुत मदद दी थी। इससे इसे वंशपरंपरागत 11 तोपों की सलामी दी गई। वि ० सं० 1919 में गोद लेने की सनद भी मिली।
इसे वि० स० 1923 में महाराजा की पदवी दी गई और यह वि० सं० 1924 मे फौजदारी के अपराधों के फैसत्ते करने के अधिकारों से विभूषित किया गया है। इसका राज्य-प्रबंध प्रशंसनीय नही रहा, फिर भी सरकार ने महाराजा की पदवी, जो वि० सं० 1923 में मिली थी, वि० सं० 1934 में वंशपरंपरागत सवाई महाराजा की कर दी ।
इन सब कारणों से इसका खर्च अधिक बढ़ गया। इससे बि० सं० 1954 मे सरकार की ओर से प्रबंधक नियुक्त कर दिया गया। भानप्रताप सिंह के कोई लड़का न था। इससे इसने ओरछा के महाराजा के पुत्र सामंतसिंह को वि० सं० 1955 में गोद लिया। यह वि० सं० 1956 में सवाई महाराजा भानुप्रताप सिंह के परलोकवासी होने पर गद्दी पर बैठा।