Bhartiya Sanskriti Me Vastukala को उसकी विशेषताओं के आधार पर दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है- धार्मिक वास्तु और लौकिक वास्तु। मन्दिर धार्मिक वास्तु के मुख्य प्रतीक हैं। प्राचीन साहित्य तथा पुरातात्विक अवशेषों से कला के लौकिक पक्ष की पुष्टि होती है।
गाँव और शहर के सन्निवेश तथा विभिन्न प्रकार के भवन, सड़कों, दुर्गों आदि के निर्माण लौकिक स्थापत्य के अन्तर्गत थे। रामायण, महाभारत, बौद्ध और जैन साहित्य, मानसार, समरांगणसूत्रधार आदि ग्रंथों में नगर या पुर निर्माण के विस्तृत विवरण मिलते हैं ।
Architecture in Indian Culture
प्रागैतिहासिक वास्तुकला में सिन्धु घाटी सभ्यता के ईंटों से निर्मित भवनों के ध्वंसावशेष, सड़कें, लोथल का बन्दरगाह, मोहनजोदारो का बृहत् स्नानागार एवं परकोटे, गोपुरद्वार और अट्टालिकाओं से युक्त दुर्ग, हड़प्पा का अन्नागार आदि प्रमुख हैं। हड़प्पा सभ्यता के बाद एक अन्तराल मिलता है।
वास्तु के अवशेषों की कम संख्या का कारण यह है कि उनकी निर्माण सामग्री विनाशशील थी, क्योंकि उनमें से अधिकांश मिट्टी, लकड़ी, चूना, बांस या लट्ठों से बनाए जाते थे। वैदिक यज्ञों के लिए आवश्यक यज्ञवेदी और यज्ञशालाओं के निर्माण के साथ स्थापत्य का मूलारंभ हुआ । वैदिक साहित्य में वास्तुकला संबन्धी अनेक शब्द मिलते हैं, जैसे स्कम्भ (स्तंभ), गृह, महाशाला (उपनिषद), सहस्रस्थूण घर (ऋग्वेद) आदि।
प्राचीन पाटलिपुत्र या कुमराहार में चन्द्रगुप्त सभा के जो अवशेष मिले हैं, उनमें अस्सी खम्भों वाला मण्डप लगभग वैदिक साहित्य के शतभुजी सदन के अनुरूप है। इनमें अन्तर यह है कि ये खम्भे मौर्यकालीन चमकीले पत्थर के हैं। मण्डप के दक्षिण की ओर सात काष्ठ मंच भी प्राप्त हुए हैं। मौर्य युगीन काष्ठ निर्मित राजप्रसाद एवं ठोस पाषाण निर्मित स्तंभ कला के उत्तम नमूने हैं, पर अवशेष रूप में हैं।
अशोककालीन कला का उत्कृष्ट नमूना हम स्तंभों के रूप में देखते हैं। इन स्तंभों के पाँच भाग हैं-
1- ऊपर की फुनगी पर धर्मचक्र
2- चार सहपृष्ठ सिंह
3- चार चक्र और चार पशुओं से अंकित गोल अंड
4- पद्मपत्र युक्त पूर्णघट और
5- ऊर्ध्व यष्टि। इनकी रचना में एक ऊँची मध्य यष्टि या डंडी और ऊपर शीर्षक लगाया गया है। लाट की ऊँचाई 40 से 50 फुट के लगभग है। लाट के ऊपर पशु की आकृति का शीर्षक है।
वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार रामपुरवा के सिंहशीर्षक स्तंभ और सांची के स्तंभ तक पहुंचतेपहुंचते शिल्पियों के हाथ मंज गए थे । उसके बाद सारनाथ के सिंह स्तंभ में शिल्पियों ने अपनी कला की पराकाष्ठा प्राप्त कर ली। इस संबन्ध में मार्शल ने लिखा है ’’ ईसवी शती पूर्व के संसार में सारनाथ के सिंह स्तंभ जैसी श्रेष्ठ
कलाकृति कहीं नहीं मिलती। शिल्पी ने समझ बूझकर सिंहों के निर्माण में ऐसी गुणवत्ता भर दी है कि वे पूरे स्तंभ का अविभाज्य अंग जान पड़ते हैं। स्तूप, गुफा मन्दिर और चैत्य तथा विभिन्न कालों में निर्मित मन्दिरों की कला के अध्ययन से आप प्राचीन भारतीय वास्तुकला की विशेषताओं को समझ सकते हैं।
स्तूप
स्तूप का प्रारंभ शव को गाड़ने वाले मृत्तिका निर्मित के टीले के रूप में हुआ, जिसका स्थानीय जनता द्वारा आदर होता था। प्राचीन भारतीय वास्तुकला के क्षेत्र में बुद्ध के सम्मान में स्तूप निर्माण हुआ। स्तूप दो प्रकार के हैं- एक तो स्मारक के रूप में ईंट और पत्थरों के बने ठोस ढांचे, जो बुद्ध या महावीर के जीवन की किसी घटना के किसी स्मारक में खड़े किए गए थे और दूसरे अस्थि संचायक अन्दर से खोखले आकार के स्तूप, जहां अवशेष रखे जाते थे।
प्राारंभिक स्तूप विशाल गोलार्द्ध गुम्बदों के रूप में थे, जिनमें एक केन्द्रीय कक्ष में बुद्ध के स्मारक चिन्ह प्रायः सुन्दरता से स्फटिक जड़ित एक छोटी मंजूषा में रखे रहते थे। स्तूप का हीर कच्ची ईंट का था और बाहरी भाग पक्की ईंटों का, जिस पर पलस्तर की गहरी तह होती थी। स्तूप के ऊपर काष्ठ अथवा पाषाण का छत्र रहता था और वह लकड़ी की चाहरदीवारी से घिरा रहता था, जिसमें विधिपूर्वक प्रदक्षिणा के लिए स्थान रहता था।
अब तक मिले हुए स्तूपों में नेपाल की सीमा में लगा हुआ ईंटों से निर्मित पिपरहवा का स्तूप सबसे प्राचीन है। इसके भीतर की मंजूषा पर यह लेख उत्कीर्ण था ’’भगवान बुद्ध की शरीर धातुओं का यह पवित्र स्मारक शाक्यों ने , उनके भ्राताओं ने अपनी भगिनी और पुत्र दाराओं के साथ मिलकर बनवाया।’’शुंगकालीन स्तूपों में भरहुत और सांची उल्लेखनीय हैं।
भरहुत स्तूप अपनी मूर्तिकला के लिए प्रसिद्ध है। 1873 में जब कनिंघम ने उसे देखा तो लगभग पूरा स्तूप नष्ट हो चुका था। इसकी तोरण वेदिका पर लगभग 20 जातक दृश्य, 6 ऐतिहासिक दृश्य, 30 से ऊपर यक्षयक्षी, देवता, नागराजाओं आदि की कढ़ी हुई बड़ी मूर्तियां और अनेक प्रकार के वृक्ष और पशुओं की मूर्तियां हैं। इनमें से बहुतों पर उनके नाम खुदे हैं।
इनके अतिरिक्त नौका, अश्वरथ, गोरथ और कई प्रकार के वाद्य, कई प्रकार की ध्वजाएं तथा अन्य राजचिन्ह अंकित हैं। सांची का स्तूप वास्तुविद्या के एक उत्कृष्ट अवशेषों में से है। इसके द्वार प्रवेशों की एक प्रमुख विशेषता इसके चार तोरण द्वार हैं। स्तूप में बुद्ध के जीवन की चार घटनाएं, यक्ष मूर्तियां, पशु पक्षियों की मूर्तियां और फूल पत्तियों के अंकन हैं। बुद्ध के जीवन दृश्यों में उनका जन्म, संबोधि, धर्मचक्रप्रवर्तन और महापरिनिर्वाण हैं।
विशुद्धानन्द पाठक ने लिखा है कि ’’सांची के स्तूप के निर्माण हेतु दक्षिणापथ से प्रशिक्षित कारीगर बुलाए गए थे, इसके आभिलेखिक प्रमाण भी प्राप्त हैं।’’स्तूप की हर्मिका के ऊपर निर्मित छत्र के संबन्ध में मार्शल ने लिखा है कि ’’किसी भी देश के शिल्प कर्म में इससे बढ़कर उत्तम काम नहीं पाया गया।’’ धीरे.धीरे स्तूपों की वास्तुकला अधिक अलंकृत होती चली गई।
आन्ध्र सातवाहन युग के स्तूपों में अमरावती और नागार्जुनीकोण्ड के स्तूप प्रमुख हैं। आन्ध्र स्तूपों की तीन विशेषताएं थीं- संगमरमर जैसा मक्खन के रंग का श्वेत पाषाण, अनेक प्रकार से उत्कीर्ण शिलापट्टों पर रूप और अलंकरण तथा धातुगर्भ से निकलते हुई मंजूषा सदृश चार आयक(आयागपट्ट के समान) मंच, जिनसे कालान्तर में ब्राह्मण देव मन्दिरों की रथिकाओं का विकास हुआ। आन्ध्र कला में शरीर की बहुसंख्यक विभिन्न मुद्राओं का विन्यास उसकी विशेषता है।
अमरावती का स्तूप सांची के स्तूप से बड़ा और नक्काशीदार था। इस स्तूप से बची हुई मूर्तियों की संख्या आन्ध्र स्तूपों में सबसे अधिक है। कला की दृष्टि से ये अत्यंत सुन्दर और विभिन्न अभिप्रायों से युक्त हैं, जिनमें लगभग पाँच सौ वर्षों के विकास की साक्षी उपलब्ध है। सारनाथ और नालन्दा उत्तरकालीन भारतीय स्तूपों में अत्यन्त प्रसिद्ध हैं।