औरंगजेब के मरने पर दिल्ली में जो झगड़े शुरू हुए उनका अंत तभी हुआ जब कि मुगल सत्ता का अंत हुआ । पूरे Bharat Me Aapsi Jhagde शुरू हो गए । मुहम्मद शाह के समय में सैयद भाइयों की ही चला करती थी। सैयद भाइयों से निजामुलमुल्क नाराज था, क्योंकि सैयदों ने इसे दक्षिण की सूबेदारी से निकाल दिया था। निजामुलमुल्क ने एक बड़ी सेना तैयार करके सैयद भाइयों से वि० सं० 1777 में युद्ध किया और सैयद भाइयों को उस युद्ध मे हराकर जबरदस्ती दक्षिण के सूबे पर अधिकार कर लिया।
हुसैन आली ने चाहा कि फिर से निजामुल्मुल्क से युद्ध करें परंतु इसी समय मुहम्मदशाह ने उसे धोके से मरवा डाला क्यों की मुहम्मदशाह से और सैयद भाइयों से भी तकरार हो गई थी। जब हुसैनअली मारा गया तब उसका भाई सैयद अब्दुल्ला भी बादशाह मुहम्मदशाह के विरुद्ध हो गया। उसने बादशाह मुहम्मदशाह को तख्त से उतारने का प्रयत्न किया परंतु मुहम्मदशाह ने उसे भी मरवा डाला ।
ऐसे समय मे बाजीराव पेशवा ने मुसलमानों के प्रांतों पर आक्रमण किया। मुहम्मदशाह ने निजामुल्मुल्क से सहायता ली। परंतु बाजीराव पेशवा ने वि० सं० 1784 मे निजामुल्मुस्क और बादशाह दोनों को हरा दिया और निजामुल्मुल्क से मालवे का सूबा ले लिया।
विक्रम संवत् 1785 में भारत पर नादिरशाह का आक्रमण हुआ । नादिरशाह पहले एक बड़ा लुटेरा था परंतु फिर अपनी सेना की सहायता से वह फारस और अफगानिस्तान का बादशाह बन गया था। मध्य एशिया की स्थिति भी उस समय भारत के समान ही थी। व्यवस्थित राज्य न होने के कारण शासन सेना के बल से ही होता था और जो बड़ी सेना अपने अधिकार में कर सकता था वही राजा बन जाता था।
नादिरशाह ने फारस और अफगानिस्तान का राज्य अपने अधिकार में करने के पश्चात् पॉचवें महीने में मार्च सन् 1739 में दिल्ली पर आक्रमण किया। दिल्ली की बादशाही फौज को नादिरशाह ने आसानी से हरा दिया और बादशाह के महाल पर नादिरशाह का अधिकार हो गया। दूसरे दिन दिल्ली में यह खबर फैल गई कि नादिरशाह मर गया है और इस खबर के फैलते ही दिल्ली-निवासी नादिरशाह की फौज को दिल्ली से भगाने की कोशिश करने लगे।
यह हाल देखते ही नादिरशाह ने अपनी फौज को लूट-मार का हुक्म दे दिया। दिल्ली-निवासियों की स्त्रियाँ और बच्चे निर्दयता से मारे गए और उनका सब सामान लूट लिया गया। बादशाही खजाना भी नादिरशाह ने लूट लिया। नादिरशाह का करोड़ों रुपए और बहुत से हीरे मिले । कोहेनूर नाम का हीरा भी वह ले गया।
दिल्ली से वापिस जाते समय उसने दिल्ली का राज्य फिर से मुहम्मदशाह को दे दिया। नादिरशाह की ओर से पंजाब प्रांत का शासक अहमदशाह अबदाली नियुक्त किया गया था ।नादिरशाह के मरने पर यही अहमदशाह अबदाली वि० सं० 1805 में स्वतंत्र बन गया । इसने भी दिल्ली पर आक्रमण किया परंतु पहली बार मुहम्मदशाह ने इसे हरा दिया ।
दिल्ली के बादशाह की स्थिति दिन पर दिन कमजोर होती गई । दिल्ली की बादशाहत के सब सूबेदार स्वतंत्र हो गए । दिल्ली की बादशाहत दिल्ली में ही रह गई। आगरा और भरतपुर में जाट लोगों ने अधिकार कर लिया। पंजाब में सिख लोगों का स्वतंत्र राज्य स्थापित हो ने लगा। मैसूर में यादव लोगों ने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया। परंतु फिर यादवों के मंत्री हैदरअली ने राजा के मरने पर राज्य पर अधिकार कर लिया।
उत्तर में रेहिले लोग भी स्वतंत्र हे गए। अवध का सूबेदार सादतअली खाँ भी स्वतंत्र हो गया। बंगाल का नवाब अलीवर्दी खाँ भी स्वतंत्र हो गया। यूरोप के कई देशों के सौदागरों ने भारत में आकर भुगल बादशाहों से सनदें ले लेकर समुद्र के किनारे के कई नगरों में कारखाने खोले । यहाँ से वे लोग यूरोप को भारत से जाने वाली वस्तुओं का व्यापार भी करते थे। भारत मे मूसलमानों का राज्य कमजोर हो जाने पर मराठे ही सबसे प्रबल थे।
पहले आक्रमण के समय अहमदशाह अबदाली मुहम्मदशाह से हार गया था। मुहम्मदशाह विकस संवत् 1801 में मर गया। इसके मरने पर अहमदशाह नाम का बादशाह हुआ। जिस समय अहमदशाह दिल्ली का बादशाह था उस ससय अहमदशाह अबदाली ने दिल्ली पर दूसरी बार आक्रमण किया । यह आक्रमण विक्रम संवत् 1808 मे हुआ।
आबदाली ने बादशाह को हरा दिया और बादशाह के पास जो पंजाब का भाग था उसे ले लिया। अहमदशाह बादशाह के वजीर गाजिउद्दीन ने तख्त से उतार दिया और बादशाह और उसकी माँ को पकड़कर वि० सं० 1811 में अंधा कर दिया । फिर वीर गाजिउद्दीन ने जहॉदारशाह के लड़के को आाल्मगीर ( दूसरा ) के नाम से दिल्ली का बादशाह बनाया।
विक्रम संवत् 1813 से और भी झगड़े भारत में शुरू हुए। सारे देश में राजाओं में लड़ाइयाँ होने लगी। अंग्रेज लोगों ने भी अपनी सेना बढ़ाना आरंभ कर दिया। जब किसी राजा को सहायता की आवश्यकता होती थी तब अंग्रेज लोग सहायता देते थे और सहायता के बदले में उसके देश का कुछ भाग ले लेते थे। इसी प्रकार अंग्रेजों मे अपना राज्य बढ़ाना आरंभ कर दिया।
फ्रांसीसी लोग भी इस तरह से अपनी शक्ति बढ़ा रहे थे। संवत् 1813 में दक्षिण मे तीन ही प्रबल राज्य थे। ये तीनों राज्य मराठों, अँगरेजों और फ़्रांसीसियों के थे। यूरोप में अंग्रेजों और फ़्रांसीसियों में युद्ध छिड़ गया। यूरोप में युद्ध होने के कारण भारतवर्ष में भी इन दोनों मे युद्ध होने लगा। इसी ससय (विक्रम संवत् 1813 ) में बंगाल का नवाब अलीवर्दी खाँ मर गया और उसका नाती सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब हुआ।
दिल्ली के वजीर गाजिउद्दीन ने अहमदशाह अबदाली पर चढ़ाई करके पंजाब अपने अधिकार मे कर लिया । इसलिये अ्हमदशाह अबदाली ने दिल्ली पर फिर से चढ़ाई की। उसने बादशाह की सेना को हरा दिया। दिल्ली में खूब लूटमार हुई और निवासियों का निर्दयतापूर्वक वध किया गया। दिल्ली की दुर्दशा करने के पश्चात् आबदाली ने मथुरा को लूटा । यहाँ भी उसने निवासियों को निर्दयता से मारा ।
इस समय ऐसे भगड़ों के कारण किसी राजा को भी चैन नहीं था। सब राजाओं का ध्यान अपनी रक्षा की ओर लगा हुआा था। राज्य-व्यवत्था की ओर किसी का ध्यान नही था। पूने में भी राज्य-व्यवस्था कुछ अच्छी न थी। बुंदेलखंड मे मराठों की व्यवस्था कुछ ठीक थी, पर॑तु यहाँ भी एक नया राज्य स्थापित हो रहा था । झांसी के समीप ही गोसाई लोगों ने बहुत सी सेना एकत्र की थी और वे मराठों को हराकर एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करना चाहते थे। गोसाई लोगों का पहला राजा इंद्र गिरि था। इसमे अपनी सेना लेकर संवत् 1802 में मोठ परगने पर अपना अधिकार कर लिया।
यहाँ पर गोसाईं लोगों ने एक किला भी बनवाया। अपनी सेना बढ़ाकर वे लोग आसपास का देश अपने अधिकार में करने लगे। थोड़े ही दिनों मे उन लोगों ने 114 गाँव अपने अधिकार में कर लिए । उस समय झांसी मे मराठों की ओर से नारोशंकर नाम के एक सरदार नियुक्त थे। नारोशंकर ने गोसाई लोगों को दबाने का प्रयत्न किया। संवत् 1807 मे उन्होंने गोसाई लोगों को एक युद्ध में हरा दिया। इंद्र गिरि को हारकर मोठ से भाग जाना पड़ा।
मोठ से भागने पर इंद्र गिरि इलाहाबाद गया और इलाहाबाद से वह अवध के वजीर शुजाउद्दौला के पास आया । इंद्र गिरि बड़ा शूर-वीर पुरुष था। अवध के नवाब वजीर शुजाउद्दौला ने इंद्र गिरि से प्रसन्न होकर उसे अपने यहाँ नौकर रख लिया । नवाब शुजाउद्दौला इन्द्र गिरि का बड़ा सम्मान करता था और वह अवध के मुख्य सैनिक सरदारों में से था। इंद्र गिरि की मृत्यु विक्रम संवत् 1804 में हुई और उसके पश्चात् उसका चेला अनूप गिरि अवध मे सेना का सरदार हो गया।
बुन्देलखण्ड में महाराज छत्रसाल के वंशज आपस में लड़ रहे थे। विक्रम संबत् 1813 में हिंदूपत ने अपने भाई अमानसिंह को मरवाकर महाराज छत्रसाल के कुल को कलंकित किया। दो वर्ष के बाद ही जैतपुर के महाराज जगतराज की मृत्यु हुई। चारों ओर की गड़बड़ के कारण बुंदेलखंड के मराठों का लक्ष्य चारों ओर बंटा हुआ था।
बुंदेलखंड का सब कार्य गोविंद राव पंत देखते थे। बुंदेखखंड महाराष्ट्र राज्य का उत्तरीय भाग दोनों से उत्तरीय भारत के राजाओं की देखरेख भी गोविंदराव पंत करते थे। जब दिल्ली के झगड़ों के बारे मे गोविदराव पंत को मालूस हुआ तब उन्होंने उत्तर के जिलों की रक्षा करना बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य समझा ।
इसी उद्देश्य से वे सागर को छोड़कर कालपी में रहने लगे। सागर मे गोविंदराव पंत की ओर से उनके दामाद विसाजी गोविंद चांदोरकर राजकार्य देखने लगे । गोविंदराव पंत के पुत्र गंगाघर गोविंद और बालाजी गोविंद भी अपने पिता के साथ कालपी चलने गए।
अहमदशाह अबदाली गाजिउद्दीन को हराकर, दिल्ली और मथुरा लूटता हुआ, वापिस चला गया। पंजाब पर फिर से अहमद- शाह अबदाली का अधिकार हो गया । भ्रहमदशाह अबदाली के चले जाने पर गाजिउद्दीन ने बदत्ा लेना चाहा । उस समय भारत- वर्ष मे सराठों का राज्य सबसे शक्तिशाली था, इसलिये उसने मराठों से सद्दायता माँगी ।
अहमदशाह अबदाली की बढ़ती हुई शक्ति मराठों को अच्छी नही लगती थी। अहमदशाह अबदाली के दिल्ली लूट लेने से मराठों को बहुत बुरा लग रहा था। मराठे किसी प्रकार अहमद शाह अबदाली की शक्ति को कम करना चाहते थे, इससे दिल्ली के वजीर गाजिउद्दीन का संदेश पाते ही मराठों ने अबदाली से युद्ध करने का निश्चय कर लिया । अवध के नवाब और रोहिले दिल्ली के बादशाह से प्रसन्न थे । दिल्ली में भी वजीर और सरदारों मे अनबन थी । मराठों ने युद्ध की तैयारी विना दिल्ली दरबार की सहायता के की।
पूना से मराठों की, चार लाख सैनिकों की सेना उत्तर की ओर रवाना हुई। इस सेना को मार्ग मे मराठों के सरदार सहायता के लिये मिलते गए। सेना बुरहानपुर, हरदा और नरवर होती हुई गई । बुंदेलखंड की मराठों की सेना गोविंद पंत की अध्यक्षता में अंतर्वेद होती हुई गई। इस युद्ध में बुंदेलों ने मराठों को बहुत सहायता दी। बुंदेलों की सेना के सिवा बुन्देलखण्ड से बहुत सापैसा भी मराठों की सहायता के लिये भेजा गया था।
जिस समय दिल्ली में मराठों की सेना पहुँची उस समय सेना के खर्चे के लिये खजाना न पहुँच पाया था। फौज को खर्च की बड़ी जरूरत थी और बादशाह ने मराठों की कोई सहायता नही की । इसलिये मराठों ने जबरदस्ती बादशाही खजाने पर अधिकार कर लिया । दिल्ली पर भी मराठों ने अपना अधिकार कर लिया और दिल्ली के प्रबंध के लिये नारोशंकर मराठों की ओर से नियुक्त किए गए।
अवध का नवाब शुजाउदौला और रोहिले पहले से दी मराठों के विरुद्ध थे। इन्होंने अहमदशाह अबदाली का सहायता दी। मराठों ने वि० सं० 1816 में दिल्ली के आगे बढ़कर अवदाली के राज्य पर आक्रमण करना आरंभ किया। शाहगढ़ से बुंदेलों की एक बड़ी फौज इस समय मराठों की सहायता के लिये पहुँची । अहमदशाह अबदाली से जो युद्ध हुआ उसते गोविंद पंत ने विशेष वीरता दिखाई । एक स्थान पर गोविंद पंत ने अहमदशाह अबदाली की एक सेना को हरा दिया और उसका पीछा भी किया।
अबदाली की सेना की जो रसद जाती थी उसका जाना भी गोविंद पंत ने वंद कर दिया। गोविंद पंत से अबदाली की सेना को बढ़ा डर लगने लगा । इन्हें हराने का आबदाली ने बड़ा प्रयत्न किया और अबदाली की सेना ने अचानक गोविंद पंत को घेर लिया । गोविंद पंत की सेना हरा दी गई और गोविंद पंत ने भागने का प्रयत्न किया। परंतु गोविंद पंत वृद्ध थे और बहुत मोटे थे। ये अचानक भाग न सके। आबदाली की सेना ने इन्हें पकड़ लिया और इनका सिर काट लिया।
गोविंद पंत की हार होते ही सारी मराठी सेना निरुत्साहित हो गई। शेष सेना को अवदाली की सेना ने पानीपत में हरा दिया। युद्ध बहुत देर तक होता रहा और इस युद्ध में दोनों ओर के बहुत से सैनिक मारे गए। मराठों की जो हानि हुई उसका वर्णन करना कठिन है। मराठों का पतन इसी हार के पश्चात् आरंभ हुआ । एसा अनुमान किया जाता है कि लगभग दो लाख सैनिक मराठों की सेना के मारे गए और मराठों के कई नामी सरदार भी इस युद्ध में काम आए । युद्ध संवत् 1818 में हुआ।
इस युद्ध के बारे मे सुनते ही नाना साहब को इतना शोक हुआ कि उनकी मृत्यु उसी शोक के कारण हुईं। गोविंद पंत की मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र बालाजी गोविंद और गंगाधर गोविंद ने बुन्देलखण्ड का काम कुछ समय के लिये संभाला । गोविंद पंत ने पानीपत के युद्ध के पहले बालाजी गोविंद को अंतर्वेद मे नियुक्त कर दिया था। जालौन और कालपी गंगाधर गोविंद के अधिकार में कर दिए थे ।
जब मराठे पानीपत के युद्ध में हारे तब अंतर्वेद मराठों के राज्य से निकल गया और उस पर अवध के नवाब ने अधिकार कर लिया । अंतर्वेद से बालाजी गोविंद आ गए और सागर तथा जालौन का कार्य देखने लगे । बालाजी गोविंद ने गंगाघर गोविंद की सहायता से अंतर्वेद ले लेने का प्रयन्न किया परंतु सफल न हुए। बुंदेलखंड मे गोसाई लोगों ने फिर आक्रमण करना आरंभ कर दिया और मराठों को अपने बचे हुए राज्य की रक्षा करने की फिकर पड़ गई।
यमुना के उत्तर का जो कुछ भाग मराठों के अधिकार में हो गया था उस पर फिर से रोहिल्लों ने अधिकार कर लिया। बुन्देलखण्ड के सब बुंदेले राजा मराठों को अभी तक चौथ देते थे परंतु पानीपत के युद्ध के पश्चात् उन्होंने भी चौथ देना बंद कर दिया। बुंदेलों और मराठों में जैसा प्रेम महाराज छत्रसाल के समय में था वैसा अब न रहा ।