यह पलाश भी बड़ा प्रपंची है। वसंत के आते ही Basanti Hulas-Prapanchi Palas की याद आती है इसे ही टेसू , ढाक और किंशुक कहते हैं। ‘ ढाक के तीन पात ‘ वाली कहावत की भी अद्भुत लीला है । इसकी तीन पत्तियों का समूह सदैव इकट्ठा रहता है , एक साथ रहता है और हर स्थिति में समान रहता है , एकसंग रहता है , एकरस रहता है । इसीलिए इसे ‘ढाक के तीन पात’ कहा जाता है ।
यहाँ थोड़ी – सी चर्चा ‘किंशुक’ नामकरण की भी करना लाजिमी है। टेसू के फूलों को किंशुक कहा जाता है । आप इसके फूलों के ऊपरी भाग को गौर से निहारिए – अवलोकन कीजिए… त़ो आपको शुक ( तोता ) की लाल चोंच – सी दिखाई देती है। इसीलिए टेसू के फूल का एक नाम ‘ किंशुक ‘ पड़ा।
पतझड़ में मृतप्रायः से सूखी लगने वाली इस की शाखाओं में लाल – गुलाबी रंगों के पुष्प – गुच्छों में जैसे नवजीवन फूट पड़ता है। यह आपाद – मस्तक मनभावन सुमनों से लद जाता है । जिसके प्रेम में , अनुराग में रंगे पलाश का रोम – रोम हँस उठता है।
ब्रजभाषा में ‘ केसु ‘और खड़ीबोली में ‘ टेसू ‘ इसीके तद्भव रूप में प्रयोग होते हैं । प्रकृति प्रेमी कवियों ने को किंशुक बड़े ही आकर्षक और कामोद्दीपक प्रतीत होते हैं कालिदास ने उन्हें आग की लपटों में उपमित किया है तो गीतगोविन्द के रचयिता महाकवि जयदेव ने किंशुक के फूलों को कामदेव के पैने नाखूनों से उपमा दी है जो युवाओं के हृदयों को विदीर्ण करते हैं –
” युवजन हृदय -विदारण-मनसिज नखरुचि किंशुक-जाले ”
पद्मावत के रचनाकार सूफी महाकवि मलिक मुहम्मद जायसी का मानना है कि कुसुमधन्वा कामदेव के तीखे तीरों से विद्ध विरहीन जनों के क्षत – विक्षत अंगों से जो रक्त की धारा निकली है उसी में डूबकर वनस्पतियों के पल्लव और पलाश के पुष्प लाल हो उठे हैं – पंचम विरह पंच सर गारै । रकत रोइ सगरो वन ढारै।। बूड़ि उठे सब तरुवर पाता । भींजि मजीठ टेसू वन राता।।
सेनापति जी की बात भी सुन लीजिए : वे कह रहे हैं – किंशुकों के वृन्तों से जुड़ी घुण्डियाँ श्यामवर्ण की होती हैं जिन पर लाल – लाल पंखुड़ियाँ ऐसे शोभायमान लगती हैं जैसे किंशुकों को काले रंग में रंग कर लाल स्याही में डुबो दिया गया हो –
लाल – लाल केसू फूलि रहे हैं बिसाल संग
स्याम रंग भेंटि मानो मसि में मिलाए हैं।
नीचे से काले और ऊपर से लाल किंशुकों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो विरहीजनों को जलाने के लिए कामदेव ने ढेर सारे कोयले प्रज्वलित कर लिए हैं , जो आधे तो सुलगकर दहकने लगे हैं और आधे अभी सुलग नहीं पाए हैं –
आधे अनसुलगि सुलगि रहे आधे मानो
विरहीदहन काम क्वैला परचाये हैं।।
नीचे के घुंडीवाले काले हिस्से की बिना सुलगे कोयले से और ऊपर के लाल दलों की दहकते अंगारों से उत्प्रेक्षा कितनी अनूठी बन पड़ी है ! कहीं ये कोयले पूरी तरह प्रज्वलित हो उठे , तो बेचारे विरहणियों का क्या होगा…? ब्रजांगनाएँ अपने प्रियतम कृष्ण को मथुरा नगर से ब्रज की जन्मभूमि में लौट आने के लिए इन्हीं मादक रक्त पुष्पों के पुष्पित हो जाने के समाचार को अंतिम और अचूक संदेश के रूप में उद्धव के द्वारा प्रेषित करतीं हैं –
ऊधौ ! यह सूधौ सो सँदेशो कहि दीजे भलो ,
हमारे ह्याँ नाहिं फूले बन कुंज हैं।
किंसुक , गुलाब , कचनार और अनारन की,
डारन पै डोलत अंगारन के पुंज हैं।।
धन्य हैं बुंदेलखण्डवासी सुकवि पद्माकरजी जी की लेखनी को।