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Bajir Ki Gariyon Me Lokranjan बजीर की गारियों में लोकरंजन

बजीर मूलतः बुंदेली के कवि थे। जन-जीवन और बुंदेलखंड के परिवेश को और संस्कारों को उन्होंने बहुत नजदीक से देखा था, अनुभव किया था वह सब उनकी कविता में स्पष्ट दिखाई देता है। Bajir Ki Gariyon Me Lokranjan लोक जीवन का प्रतिरूप है। उन्होंने गारियाँ (बुंदेलखंड का अपना खास छंद) लिखी। बजीर लोक-जीवन के कुशल चित्रकार थे। है। बुंदेली के अलावा उन्होंने खड़ी बोली में भी काव्य-रचना की है। उन्होंने लोकरंजन तो किया ही साथ ही कटाक्ष भी किये हैं।

बजीर की गारियों में लोकरंजन एवं समसामयिक बुन्देलखंड दतिया जिला ग्वालियर संभाग के अतंर्गत् मध्यप्रदेश के उत्तरी-भाग में स्थित है। जिले में दतिया, सेंवढ़ा और भांडेर तहसीलें हैं। दतिया जिले में बुंदेली का पँवारी बोली-रूप व्यवहत है। दतिया राज्य की स्थापना 1626 ई० में भगवानराय ने की थी। 322 वर्षों तक दतिया पर दस बुंदेला शासकों ने शासन किया। अंतिम नरेश महाराज गोविंदसिंह जू देव थे। राजा गोविंदसिंह के दरबार से लोककवि बजीर का संबंध रहा है।

लोककवि बजीर का नाम बजीर मुहम्मद था। इनका जन्म सन् 1900 के लगभग नदी गाँव जिला जालौन (उ०प्र०) में हुआ था। दतिया में एक भांड (मुसलमान) परिवार था। तीन-भाई। तीन में से एक का नाम डबल था। डबल के चार संताने थी।चार में से एक बजीर थे। डबल दतिया रहे और बाद में सेंवढ़ा आ गये थे और यहीं की माटी में बिला गये।

बजीर मुहम्मद सेंवढ़ा के साथ नदी गाँव में भी रहे। बजीर का कद छोटा था। रंग साँवला, सफेद कुर्ता-पाजामा की पोशाक देखने में कुछ तिरछा देखते थे। भेड़े-भेड़े। राज दरबार में कतइया और साफा बाँधकर जाते थे। विन्ध्य कोकिल भैयालाल व्यास ने बजीर का शब्द चित्र इस प्रकार खींचा है- सफल नक्काल और नृत्यकार, सदैव हँसमुख और विनम, छोटा कद, हँसतीसी आँखें, सिर पर एक काली किश्तीदार टोपी, मलमल का कुर्ता और चूड़ीदार पायजामा, पैरों में धूल भरी देशी जूतियाँ, हाथ में एक छोटी लकड़ी, गहरा गेंहुआ रंग। गोल चेहरा और धर्म संबंधी मान्यताओं में उदार।।

उन्होंने सामाजिक विद्रूपताओं पर अपनी लोक भाषा में प्रहार किये है। उनके काव्य में देश भक्ति और भारतीय संस्कृति के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति है। बुंदेली के अलावा उन्होंने खड़ी. बोली में भी काव्य-रचना की है। उन्होंने लोकरंजन तो किया ही साथ ही कटाक्ष भी किये हैं ।
आजकल इंसान को क्या सूझती है दूर की,
टोप तो सिर पर लगा है, शक्ल है लंगूर की।

बजीर की गारियों एवं दादरों ने बुदेलखंड के लोकगीतों में एक नवीनतम स्वर लहरी उत्पन्न की है। बजीर एक सफल अभिनेता तथा विदूषक थे। चीना और इन्दरगढ़ के मेलों में अपनी गारियों की किताबे गा-गाकर बेचते थे।

दतिया के नरेश इस मानव सेवक बजीर की खरी-खोटी प्रसन्न होकर सुनते थे। स्वर्गीय नत्थू उस्ताद जो ठुमरी के गवैया थे बजीर के मौसियाते भाई थे। मुंशी अजमेरी से उनका अच्छा परिचय था। पं. गुण सागर सत्यार्थी जब भी सेंवढ़ा आये नत्थू उस्ताद से मिलने उनके घर अवश्य जाते थे। नत्थू उस्ताद के पास राजाशाही जमाने के अनेक संस्मरण थे। जिन्हें वे सुनाया करते थे।

नत्थू उस्ताद के द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार ‘बजीर मोहम्मद’, नत्थू उस्ताद से चार-पाँच साल बड़े थे। 48 साल की उम्र में दमे की बीमारी से उनका निधन हो गया था। तीन -चार साल पहले नत्थू उस्ताद सौ साल की लंबी उम्र जीकर स्वर्गवासी हुये। दतिया नरेश गोविंदसिंह जू देव बजीर से बहुत प्रसन्न रहते थे। दतिया दरबार में और सेंवढ़ा के किले में राजा को कवितायें सुनाते थे। ऐसी कवितायें जो मनोरंजन के साथ-साथ तत्कालीन परिवेश की झलक प्रस्तुत करती थी।

सन्यासी लला, वैरागी लला, कहकर उनके ‘ढलाचला’ को व्यंग्य के माध्यम से उजागर करती थी। कविता वही सार्थक एवं कालजयी होती है। जिसमें लोक-रंजन के साथ-साथ चिंतन भी हो। बजीर ऐसे ही लोकरंजक कवि थे। एक बार राजा ने खुश होकर उन्हें चाँदी के सौ कलदार इनाम में दिये थे।

सन् 1918 में सेंवढ़ा में उनका इन्तकाल हुआ था। भांडों के कब्रिस्तान में उन्हें दफनाया गया था। मोहल्ला रेतीडांडा में उनकी बिरादरी के घर हैं। नदीगाँव से बजीर के पुत्र हफीज का आना-जाना है। बजीर मोहम्मद की ससुराल भांडेर थी। इनकी पत्नी से नहीं बनती थी। वैवाहिक जीवन संतोषप्रद नहीं रहा। कवि लिखने को विवश है –
कोऊ इतै आओरी, कोऊ उतै जाओ री
जा नोंनी दुलैया कों समझाओ री।
इसी तरह सुंदर लेकिन अकर्मण्य स्त्री पर व्यंग्य करते हुए बजीर कहते हैं
राँटा कतै न पौनी
देखत की नोंनी।
दार बनाई साग बनाई,
कढ़ी बनाई अलौनी।

बैठी कुलतारिन डारें पटा,
सबकों खबा दये, अरौने भटा।
कोऊ चीख जाओं री, कोऊ चीख जाओ री ।
जा नोनी दुलैया को समझओरी।।
खीर में लगा दऔ हींग कौ बघार ।
अक्कल के पीछे, बाँदे लठा ।
कोऊ सूंघो घ जाओं री, कोऊ सूंघो जाओ री।
जा नोंनी दुलैया कों, समझाओ री।।

भाँड जाति अपने नाम के आगे नक्काल नकलें करने वाले लगाते हैं। बजीर को मसखरापन अपने पिता डबल से विरासत में मिला था। समाज के रहन-सहन के एक-एक क्षण को लोक निहारता है और सुख-दुख के दृश्यों को गूंथ-गूंथकर अनुभव की माला तैयार कर लेता है। लोक-मन की अमूल्य अनुभूतियों को अगली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखने का काम लोक-साहित्य का है। दुलहिन की कमियाँ इस तरह व्यक्त करते है बजीर।
देखत की धना, नौंनी नौकी,
रँहटा करें न पौनी।
बैंसेई तौ खबसूरत भारी,
तई पै धर लई बाँड़ रे।
बुंदेलखंड के रहन-सहन की झाँकी बजीर की गारियों में दिखाई देती है। पहले लँहगा, लँगरा और बाँड़ पहिनने का चलन महिलाओं में था। अब यह प्रचलन समाप्त हो गया है। नारी मनोविज्ञान का चित्रण बजीर ने इस तरह किया है –
हमसें कछू ना कइयो, नई हम कुआ में गिर मर जैहें।
ऐसे खसम से रांड़ भले ते, और खसम कर लैं हैं।

बुंदेलखंड की नारी के पारिवारिक क्लेश को सहज अभिव्यक्ति दी है बजीर ने। कुआ में गिर कर मर जाने की धौंसे स्त्रियाँ देती रहती हैं। औरतों के फाय-फट्टों को उन्होंने करीब से देखा था। तंगदस्ती और गरीबी थी। चौमासा काटना मुश्किल हो जाता था। उन्होंने अकाल की पीड़ा को भोगा था। अभावों और अकालों ने लोक-गीतों को जन्म दिया है। किसान की मेहनत और मजबूरी को बजीर ने भीतर तक महसूस किया था।

बुंदेलखंड कृषि प्रधान है। यहाँ के हिन्दु-मुसलमान सबकी वृत्ति कृषि है। किसान की कर्मठता का हृदयस्पर्शी चित्र आज भी उतना ही शाश्वत है।
गारीऐसी बज्जुर की छाती किसान की,
खबर नइयाँ जियऊ जान की।
जबसे लागौ जेठ माहीना, एड़ी तलवे चुए पसीना,
विपदा कछु जात कहीं ना,
खाद घूरे में सुद गई किसान की,
खबर नैयाँ जियऊ जान की।।

गाड़ी खादन की भर लावें,  इनकों लपट चलत लग जाबै
ठंडी चीज कबऊं नहिं खाबें,
ऐसी हिम्मत तो देखौ बलवान की,
खबर नैयां जियऊ जान की।।

जबसें लगौ असादू कूंड, ठाड़े रोज उखारें ढूंड,
जैसे हाती कैसे सूंड,
दगा दै गई जौ बदिया किसान की,
खबर नैया जियऊ जान की।।

बरसौ खूब मघन में पानी, निकर गऔ खेतन में पानी
हों रई खुसी सबै मनमानी,
किरपा खेतन पै हो गई भगवान की,
खबर नैंया जियऊ जान की।।

थोरी स्यारी बहुत उन्हारी, हो गई क्वार में ठाड़ी नारी
हो गऔ दसरऔ और दिवारी,
मन में चिंता सिरकारी लगान की,
खबर नैयाँ जियऊ जान की।।

जब से केस चलै सिरकारी, तबसें बोल उठी घरबारी
मानों मानों कहीं हमारी,
जल्दी बैंचों जौ कुठिया जौ धान की,
खबर नैयां जियऊ जान की।।

कहते सबसे सदा बजीर, खेती है अब्बल रुजगार,
इससे चलते सिग ब्यौहार
धरती माता है सारे जिहान की,
खबर नैया जियऊ जान की।।

करके बैलन की जब सानी, रोटी लँय ठाँड़ी है रानी,
चपिया में भर ठंडौ पानी.
सखी रोटी पै जिंदगी किसान की।।

बुंदेलखंड में विविध संस्कारों के अवसर पर विभिन्न गीत नारियों के समवेत स्वरों में गूंजते थे। बजीर का बहुत कुछ साहित्य नष्ट हो चुका है किंतु बुंदेलखंड के जन-मानस में वह आज भी सुरक्षित है। बजीर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। उनकी मौत-मैयत के लिए पैरों में पहिनने वाली चाँदी की झाझें पत्नी ने गिरवी रखी थी। वजीर को दो लड़के हफीज और वहीद है। हफीज बताते है कि पिता की गारियों की किताबें चोरी चली गई। उनमें चालीस-पचास के करीब गारियाँ होगी। उनका लोक-साहित्य मौखिक याददाश्त के आधार पर टुकड़ों-टुकड़ों में कुछ शेष बचा है।

श्रीचन्द्रजैन के अनुसार सतुआ बुदेलखंड का प्रसिद्ध मोहन-भोग है। बजीर ने सतुआ की विशेषताओं को इस प्रकार अभिव्यक्ति दी है

सतुआ लगै लुचई में प्यारौ।
घोरें में टाठी भर जावै, जौ चुटकी भर डारी,
भोरई प्रेम से जी कों खायें, का बूढौ का बारी,
जल्दी घोरौ गुठला पर जायें, धीरें धीरें गारौं,
जीभ लगातई नीचें जावै, जामें बड़ी उबारौ,
कहत बजीर जाय थोरौ खइयो, मानौँ कही हमारौ।
खाबे में जौ सहज लगत है, लगत पेट में भारौ।।

बजीर पंजवक्ता नमाज पढ़ते थे। किसी ने उनका गला मार दिया था। पहले जैसा नहीं गा पाते थे। बजीर ने राजाशाही का जमाना देखा था। जी-हुजूरी। अंग्रेजियत के प्रति उनके मन में चिंगारी थी। दीवान एनुद्दीन बजीर को ठेठ हिन्दी का कवि मानते थे। राजा गोविंद सिंह बजीर की तारीफ से कभी-कभी चिढ़ते भी थे। इसलिए बजीर ने बाद में राज-दरबार में जाना कम कर दिया था।

राजा अपने नौकर-चाकरों का जब गुस्से में अटाले का खाना बंद कर देते थे और बदले में भत्ता मिलता था। इसी की तुकबन्दी इस तरह की थी उन्होंने।
छै आना में रंडी मिली हैं, चार आना में लाला।
दो आना में भांड़ मिले हैं, खुसी रहै जौ भाला।।

उस समय भाला अफसर होते थे। सबके काम अलग-अलग बँटे होते थे। बजीर के पिता डबल राजा के यहाँ नौकर थे। बचपन से ही बजीर ने वह सब माहौल देखा था। कवि जो देखता है, अनुभव करता है उसे ही वाणी के द्वारा अभिव्यक्ति देता है। लोक कवि बजीर की सीधी-सीधी बातें बहुत गंभीर अटैक करती थीं। बजीर को संवत 1998 वि० के अकाल ने झकझोरा था।
काये पै पैर लये बजना बिछिया,
काये पै धर लईआड़ रे।
 मान्स डरौ बिपदा को मारौ
तोये सूझै सिंगार रे।।

बजीर की खीझ भले ही समूचे जन-मानस की खीझ न हो लेकिन बजीर का यथार्थ –’धांसू’ यथार्थ था। रीतिकाल के ऊपर आँखें तरेरता हुआ यथार्थ। डॉ०सीता किशोर खरे बजना बिछिया और विपत्ति का मारा आदमी लेख में लिखते हैं कि – ‘इन दिनों आदमी परेशान है। रोटी के लिये। पानी नहीं बरसा। बजीर की आत्मा खीझ रही है। विपत्ति का मारा आदमी बिछियों की झनकार और माथे की ‘आड़’ से चौक-चौंक जाता है।

यथार्थ आज फिर रीतिकाल को ललकारने की मुद्रा बनाये बैठा है। अकाल की साल का वातावरण निराला ही होता है। खेत सूने। खलिहान का नामों-निशान नहीं। पशुओं की कतारें नहीं। आदमियों के चुहल-भरे चेहरे नहीं। औरतों की सहजता नहीं। बजीर सफल चितेरे थे। सच्चे लोक कवि थे। अकाल के परिणाम स्वरूप जब पेट के लिए रोटी के लाले पड़े हों वजना बिछिया पहिनने और माथेपर बड़ी टिकुली श्रृंगार करने में आनंद नहीं आता।

लोक साहित्य का मूलधन है, सहज अभिव्यक्ति। यह सहजता लोक-कवि बजीर में थी। लोक-लय उनके भीतर समाई हुई थी। प्रस्तुतीकरण की जो अद्भुत-क्षमता बजीर में थी, बात कहने में दृश्यांकन की जो महान कला थी और बात को मूर्तिमंत बना देने का जो करिश्मा बजीर में था, वह बजीर के साथ ही चला गया। लोकमानस उन्हें भुला नहीं पायेगा। समय की परतों में उनकी स्मृतियाँ, धुंधली अवश्य हो गई हैं कितुं गाँवों में, विवाह के अवसर पर गाई जाने वाली उनकी गारियाँ और लोक गीत सदैव जीवित रहेंगे।

औरतों के कंठों से ये गीत प्रस्फुटित होकर अपनी ध्वनि और माधुर्य से सरबोर करते रहेंगे। बजीर नारी-मन की पीड़ा से जुडकर कह रहे हैं।
का कहूँ मैं तुमसे बहना री,
दम उनने खूब लगाई।
लगा लगा दम, बेदम हो गये
चेहरे जर्दी छाई।

नशाखोरी की बुराईयों को इंगित कर रहे हैं। आज उनकी कविता, जन-जन में बसी है। समसामयिक और प्रासंगिक है। पग-पग पर बुंदेलखंड दिखाई देता है। काश! बजीर का लोक-साहित्य पूरा उपलब्ध होता तो निश्चित तौर पर बंदेलखंड के साहित्य में श्री वृद्धि करता। शोधार्थियों के लिए लोक कवि बजीर पर कार्य करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है किन्तु सर्वथा मौलिक एवं समाज के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।

लोककवि बजीर बुंदेलखड की वृहत्त्रयी की श्रृंखला के अमूल्य नगीने हैं, जिसकी दमक कभी फीकी नहीं पड़ेगी। बजीर लोक के कवि हैं। लोक की धरोहर है। बंदेली माटी के कीमती रत्न हैं। लोक कंठ उनकी कविता को हमेशा गुनगुनाते रहेंगे। उनकी गारियाँ लोकरंजन करती रहेंगी। बजीर का लोक, बुंदेलखंड का लोक है।

 

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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