सर!…सर!…मे आई… ‘‘हां, हां, अन्दर आ जाओ…अब जब तुम अन्दर आ ही गए हो तो इसमें पूछना क्या?’’ हँसते हुए प्राचार्य डॉ. राजेन्द्र मोहन ने कक्ष में प्रवेश कर चुके युवा की ओर गौर से देखा, पहली ही नजर में उस युवा विद्यार्थी में उन्हें कुछ अपनापन-सा लगा। ‘‘बैठो बेटे बैठो, कहो क्या बात है?’’ राकेश संकोच से भर उठा। कैसे कहे अपनी मां का निवेदन। वह यथा स्थान खड़ा ही रहा।
‘‘क्या सोच रहे हो? बैठो…बैठो…’’ राकेश अभिवादन में झुकते हुए कुर्सी खिसका कर बैठ गया। लिहाज और संकोच से वह दबा जा रहा था। ‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’ ‘‘जी राकेश…राकेश कुमार।’’ ‘‘बड़ा अच्छा नाम है…किस क्लास में हो?’’ ‘‘जी, बी.ए. फाइनल ईयर…’’ ‘‘एन.सी.सी. भी लिए हो…’’ ‘‘जी हां, सी सर्टीफिकेट होल्डर हूं।’’ ‘‘वेरी गुड, वेरीगुड…कहो राकेश कैसे आना हुआ?’’ ‘‘सर! आप कुलपहाड़ के रहने वाले हैं?’’ ‘‘हां, मैं कुलपहाड़ का हूं…तुम कैसे जानते हो?’’ ‘‘मां ने बताया था…मेरी मां कुलपहाड़ की हैं।’’
‘‘अच्छा, बहुत अच्छा।’’ राजेन्द्र मोहन ने इस बार राकेश को गौर से परखा। मझोला कद, उन्नत ललाट, काली-पतली मूंछें, जिन्हें बड़े करीने से कैंची से तराशा गया था, छोटे काले बाल, लम्बी किन्तु आकर्षक नाक, गेहुआं रंग, स्वच्छ बड़ी चमकदार आंखें…जैसे…जैसे…’’ ‘‘मां ने आपको घर बुलाया है, कह रही थी आपको साथ लेकर आऊं।’’
राजेन्द्र मोहन को एकाएक सुध आई, ‘‘अरे! हां, क्या कहा, मैं…’’ ‘‘सर, मां ने कहा है कि आपको घर लेकर आऊं…आज रात का भोजन आप हमारे घर कीजिएगा।’’ राकेश एक सांस में कह गया। अपने तीन वर्ष के कॉलेज जीवन में वह पहली बार प्राचार्य के कक्ष में आया था और पहली ही बार वह किसी प्राचार्य से रू-ब-रू था। उसका हलक सूखने को था। प्राचार्य महोदय उसे घुड़क न दें, मां के निमंत्राण को अस्वीकार न कर दें। वह किंकर्तव्यविमूढ़-सा कुर्सी पर बैठा रहा, नजरें झुकाए।
‘‘क्या नाम बताया था मां का?’’ ‘‘जी विद्या…श्रीमती विद्यावती।’’ राकेश सोचने लगा, अभी पहली बार मां का नाम बताया है। इसके पहले कहां बताया था, खैर! वर्षों पहले की विद्या याद आ गयी। राजेन्द्र चौंके, कुछ जानने की गरज से बोले, विद्या…और राकेश! तुम्हारे नाना जी का क्या नाम है? या मामा का…’’
‘‘मामा अब नहीं हैं। नाना जी का नाम स्वर्गीय श्री बलदेव दास, वैसे वे बलदेव महतो के नाम से जाने जाते थे।’’
‘‘अरे वाह बलदेव महतो के नाती हो तुम…मुल्लू थे तुम्हारे मामा, मेरे साथ कुलपहाड़ के जनतंत्रा इंटर कॉलेज में साथ पढ़े थे। हम दोनों हाईस्कूल बोर्ड की परीक्षा चरखारी में देने गये। साथ-साथ रहे थे वहां, एक ही कमरे में। कुलपहाड़ से बीस किलोमीटर दूर चरखारी हम दोनों कई बार साइकिल से आए-गये। क्या हुआ मूलचन्द्र को, तुम्हारे मामाजी को?’’ राजेन्द्र मोहन अतीत में खो गये।
‘‘पिछले साल नहीं रहे…सीने में दर्द उठा, कानपुर रीजेंसी अस्पताल ले जाते समय रास्ते में ही दिल का दौरा दोबारा पड़ा, फिर नहीं रहे, महोबा, कानपुर के बीच की सड़कें इतनी खराब हैं, सर कि क्या बताएं। सड़कें सही होती तो समय से मामा रीजेंसी अस्पताल पहुंच जाते और शायद बच भी जाते।’’ राकेश के स्वर में खराब सड़कों के कारण व्यवस्था और सरकार दोनों से शिकायत भरा आक्रोश उभर आया था।
‘‘ठीक है राकेश, विद्यालय के बाद तुम मेरे निवास पर आ जाना, फिर साथ-साथ चलते हैं।’’ ‘‘जी सर, मैं आ जाऊंगा।’’ राकेश के कक्ष से बाहर जाते ही राजेन्द्र मोहन एक बार पुनः अतीत में लौट गये। विद्या…मूलचन्द्र की जुड़वां बहन, सुन्दर बड़ी आंखें, तांबिया रंग, चंचल मनोरम छवि को देखने वाला देखे तो बस देखता ही रह जाए, उसने आठवीं के बाद पढ़ाई नहीं की थी।
मूलचन्द्र के घर उसका यदा-कदा ही आना-जाना था।उसने कभी विद्या को नोटिस नहीं किया। हाईस्कूल के बाद उसे बड़ी बहन की देख-रेख में आगे की पढ़ाई के लिए उज्जैन भेज दिया गया था। जहां बड़े जीजाजी शासकीय महाविद्यालय में प्रवक्ता थे। वहीं जब वह ग्रेजुएशन में आ चुका था, बड़े भैया सुरेन्द्र मोहन घर छोड़कर कहीं चले गये थे।
तब पहली बार विद्या का नाम मुखर रूप से उसने जाना था और पिताजी की नाराजगी बर्दाश्त न कर सकने के कारण बड़े भैया एक बार घर से क्या निकले, फिर कभी वापस नहीं लौटे। राजेन्द्र की आंखों में बड़े भैया की याद में आंसू भर आए और उन आंसुओं में बड़े भैया की वर्षों पहले धुंधलाई छवि तैर गयी जो राकेश से बखूबी मेल खा रही थी…तो क्या राकेश…
शाम का धुंधलका होने से पहले राकेश विद्यालय परिसर में ही स्थित प्राचार्य आवास में पहुंच गया। राजेन्द्र मोहन तैयार बैठे थे बल्कि उसी की प्रतीक्षा में थे। राकेश ने पास आकर उनके पैर छुए। राजेन्द्र ने राकेश के सिर पर, फिर पीठ पर हाथ फेरते आशीर्वाद दिया, ‘‘खुश रहो, बैठो, एक-एक प्याली चाय पीते हैं, फिर चलते हैं…रामदीन चाय भेजो।’’ ‘‘सर! आप अकेले?’’ राकेश ने उनके और नौकर रामदीन के अलावा किसी को न देख बैठते ही पूछ लिया।
‘‘हां राकेश, मैं अकेले ही हूं…मैंने विवाह नहीं किया, बस अध्ययन और अध्यापन में ऐसे उलझा रहा कि विवाह करने की उम्र ही निकल गयी।’’ राजेन्द्र मोहन ठहाका मारके हँस पड़े। राकेश भी मंद-मंद मुस्करा उठा। राजेन्द्र मोहन ने गौर किया जैसे बड़े भैया लौट आए हों और उसके सामने बैठे मुस्करा रहे हों। राजेन्द्र गम्भीर हो गये। रामदीन इस बीच सेंटर टेबिल पर चाय रख गया। राकेश ने चाय में पूछकर चीनी और दूध मिलाया। शान्तिपूर्वक दोनों ने चाय पी और प्राचार्य निवास से बाहर आ गये। निवास के बाहर समानान्तर बने गैराज की ओर बढ़ते राजेन्द्र मोहन ने राकेश से पूछा, ‘‘क्यों राकेश, कार चला लेते हो?’’
‘‘नो सर! अभी नहीं…बाइक है मेरे पास।’’ ‘‘बाइक यहीं छोड़ो, वापसी में ले लेना और सुनो बाइक चला लेते हो न, तो कार चलाना भी जल्दी सीख जाओगे, यहां आते रहोगे तो मैं तुम्हें सिखा दूंगा।’’ ‘‘जी सर।’’ राकेश ने गैराज की चाभी के लिए हाथ बढ़ाया, चाभी ली और गैराज का गेट खोल दिया। राजेन्द्र मोहन अपनी वैगनआर कार गैराज से बाहर निकाल लाए। राकेश ने गैराज का गेट बंद किया, ताला लगाया और पहले से स्टार्ट कार में बैठ गया।
बीस मिनट की ड्राइव के बाद राकेश का घर आ गया। शांत इलाका, एक मंजिला मकान किन्तु बंगलेनुमा बना। राकेश ने लॉन का गेट कार से उतरकर खोल दिया, राजेन्द्र मोहन कार पोर्च तक ले गये। गेट पर लगे लैम्प पोस्ट जल चुके थे। घर के अन्दर व बाहर की लाइटें भी जल रही थीं। लॉन की कॉरपेट घास और किनारे की क्यारियों में लगे गुलाब के फूलों की सुन्दरता और सुगन्ध चारों ओर फैल रही थी।
राजेन्द्र मोहन का चित्त प्रसन्नता से भर उठा। कार बंद कर, की रिंग अंगुली में फंसाते राजेन्द्र जैसे ही पलटे, सामने धवल वस्त्रों में मां वीणावादिनी का-सा रूप-रंग लिए, उनकी प्रतिमूर्ति बनी विद्या उनके सामने खड़ी थी। राजेन्द्र किंकर्तव्यविमूढ़ उसे देखता ही रह गया। ‘‘सर! यह मेरी मां है, और मां! आप ही हैं, प्राचार्य सर।’’ राकेश परिचय करा रहा था उन दोनों का, जो जीवन के इस मोड़ पर वर्षों बाद मिल रहे थे। ‘‘रज्जू।’’
‘‘हां विद्या।’’ ‘‘कितने वर्षों बाद आज तुम्हें देख रही हूं। रज्जू! मुल्लू भैया याद आ गये। आओ, अन्दर मैं तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रही थी।’’ विद्या अति उत्साह से भर उठी। मायके का कोई भी आ जाए, स्त्रियों को बहुत अच्छा लगता है, फिर राजेन्द्र मोहन तो महाविद्यालय के प्राचार्य के साथ ही उसके गांव के प्रतिष्ठित परिवार से हैं, क्या कहने? विद्या के पैर जमीं पर नहीं टिक रहे थे।
‘‘रज्जू, दो मिनट बैठो, मैं अभी आई।’’ कहती विद्या राजेन्द्र को ड्राइंगरूम में बैठा अन्दर चली गयी, शायद जलपान की व्यवस्था करने। राजेन्द्र जैसे ही सोफे पर बैठा, चौंककर खड़ा हो गया। वह आश्चर्य से सामने की दीवार के बीचोबीच बने बड़े से ताक पर रखे अपने स्वर्गीय बाबूजी के फोटो फ्रेम को देखने लगा। ताजी माला, तस्वीर पर पड़ी थी। अगरबत्ती स्टैंड पर अब भी आधी जली अगरबत्तियां सुलग रही थीं। ड्राइंगरूम पूजा घर की तरह महक रहा था।
‘‘सर! मां इनकी सुबह-शाम रोज पूजा करती हैं, ये मां के लिए भगवान से भी बढ़कर हैं।’’ राकेश बता रहा था। ‘‘अरे राकेश, मैं तो भूल ही गयी थी, प्रिंसिपल साहब को समोसे बहुत पसन्द हैं। राधे हलवाई के यहां इस समय गरम-गरम समोसे बन रहे होंगे, तू ले आ बेटा।’’
‘‘जी मां! मैं अभी गया और अभी आया।’’ राकेश बंगले से बाहर चला गया। राजेन्द्र प्रश्नचिद्द की मुद्रा में विद्या को देख रहा था। विद्या ने राजेन्द्र को हाथ पकड़कर बैठाया, कत्थई किनारी वाली श्वेत साड़ी पर बने कत्थई सितारों को राजेन्द्र ने देखा। ‘‘रज्जू, ये तुम्हारे बाबूजी हैं, पर मेरे भगवान हैं, तुम्हें क्या बतलाऊं, सारी बातें तुम्हें पता भी न हों शायद। तुम तो बड़ी जिया के यहां पढ़ने क्या गये, वहीं के होकर रह गये थे।
यहां गांव में हमारे खेत तुम्हारे खेतों से मिले हुए थे। बाबूजी और हमारे बप्पा के बीच विश्वास और प्रेम इतना था कि गांव में मिसाल बनी थी उनकी दोस्ती। मैं तब सोलह साल की थी। तुम्हारे बड़े भैया सुरेन्द्र और मेरे बीच कब प्रेम पनपा, कुछ पता नहीं चला और हम लोग भूलवश प्रेम के आवेग में गलती कर बैठे।
इसमें देखा जाए तो वास्तव में गलती मेरी ओर से ज्यादा थी। सच तो यह है रज्जू! जिस उम्र में लड़के नासमझ होते हैं, उसी उम्र की दहलीज में आकर लड़कियां, अपने शारीरिक बदलाव के कारण बहुत समझदार हो जाती हैं। दूसरों की दृष्टि को परखने और उनके मन को भांपने में उन्हें ज्यादा देर नहीं लगती है। तभी तो शायद सही ही कहा जाता है कि स्त्रियों को सामने वाले की परख पुरुषों से ज्यादा अच्छी होती है, विशेषकर तब, जब सामने वाला उसकी देह के प्रति सोच रहा होता है।
तुम्हारे बड़े भैया के साथ जो नादानी मैंने की, उसके परिणामस्वरूप मैं गर्भवती हो गयी। सुरेन्द्र को बताने से पहले मां को पता चल गया, फिर बप्पा को। मुझे दोनों ने बहुत मारा-पीटा, नाम पूछा, लाख यत्न किए, पर मैं तुम्हारे बड़े भैया से सच्चा प्रेम करती थी और उनका नाम तुरन्त नहीं बताना चाहती थी। वह इसलिए कि तुम्हारे बाबूजी और मेरे बप्पा के बीच इस मामले को लेकर कहीं दुश्मनी न हो जाए…मैं शांत पिटती रही, यहां तक कि देर रात मेरे बप्पा ने योजना बना ली थी कि वह मुझे खत्म कर देंगे, समाज में अपनी बदनामी सहन नहीं करेंगे।
मां उनके साथ थीं। मैं भी बहुत जल्द ही मरने के लिए रजामंद हो गयी। अब सवाल यह आ रहा था कि मैं कैसे मारी जाऊं। जहर देकर, फांसी लगाकर या गले पर पत्थर का थैला बांधकर तालाब में डुबोकर। बप्पा कुछ तय नहीं कर पा रहे थे। भोर होते ही उन्हें इस विपत्तिकाल में अपने परम मित्रा यानी तुम्हारे बाबूजी याद आए जिनसे वह कुछ छिपाते नहीं थे और तुम्हारे बाबूजी के पास पहुंच गये। उन्हें सब कुछ बता दिया और अपना फैसला भी सुना दिया। तुम्हारे बाबूजी समझदार, पढ़े-लिखे, सुलझे हुए इन्सान थे।
उन्होंने बप्पा को समझाया और मुझे मारने के निर्णय पर उन्हें फटकारा भी। बाद में तुम्हारे बाबूजी के कारण मेरी जान बची। वह लोगों को मेरे आगे की पढ़ाई की बात बता मुझे हरिद्वार ले आए। हरिद्वार में ही उन्होंने एक परिचित आश्रम में मेरे रहने की समुचित व्यवस्था करा दी। आश्रम में मेरा बहुत ध्यान रखा गया। बाबूजी की आश्रमवासी बहुत इज्जत करते थे। वहीं मैंने राकेश को जन्म दिया। राकेश के जन्म के बाद बाबूजी ने मेरी सारी जिम्मेदारी व पढ़ाई-लिखाई का दायित्व उठाया। राकेश को एक परिचित अनाथालय में परवरिश के लिए दे दिया और मुझे बनारस पढ़ने के लिए भेजा।
इधर तुम्हारे बड़े भैया को जब पता चला कि मैं गर्भवती हो गई हूं, वह बाबूजी व बप्पा की नाराजगी व मार के डर से बिना कुछ बताए घर से चले गये, जिनकी खोज-खबर चलती रही, पर कुछ पता नहीं चला। मैंने बाद में बाबूजी को सब कुछ सच-सच बता दिया था। उन्होंने आश्वासन भी दिया कि जाति-पांति को न मानते हुए वह मेरा विवाह सुरेन्द्र से उसके वापस आते ही करा देंगे, जो फिर कभी वापस नहीं आया। बाबूजी आजीवन सुरेन्द्र को पलायनवादी, कायर का दर्जा देते रहे और कहते रहे कि जो व्यक्ति अपनी भूल को सुधार नहीं सकता, अपने वादे को निभा नहीं सकता, ऐसा व्यक्ति कभी विश्वसनीय नहीं हो सकता। इस बीच मेरे बप्पा का स्वर्गवास हो गया, फिर मां भी चल बसीं।
बाबूजी ने ही मुल्लू भैया का विवाह किया व घर-बार सम्भाला। बनारस में मेरी पढ़ाई पूरी हुई और मैं एमबीबीएस कर स्वास्थ्य-विभाग में डॉक्टर बन गयी। तब बाबूजी ने नौ साल के हो चुके राकेश को अनाथालय से लाकर मुझे दे दिया। राकेश को असलियत आज भी नहीं पता है। वह स्वयं को गोद लिया बेटा ही समझता है, पर खून तो मेरा ही है जो इन वर्षों में मां के सिवा सब भूल चुका है। तुम्हारे बड़े भैया का इन्तजार रोज करती हूं, बाबूजी का स्वर्गवास हो गया। इस बीच गंगा में न जाने कितना पानी प्रवाहित हो चुका है। शहर-शहर मेरे स्थानान्तरण होते रहे।
कल ही राकेश ने तुम्हारा जिक्र किया, बताया हमारे नये प्राचार्य कुलपहाड़ के हैं। नाम बताया तो तुम्हारी याद आई, मिलने की ऐसी उत्कंठा जागी कि रातभर नींद नहीं आई, दिन कैसे बीता, मैं ही जानती हूं, रज्जू तुम्हें देखकर लग रहा है जैसे…जैसे सुरेन्द्र आ गए हों।’’ विद्या अतीत में खो गयी। राजेन्द्र हठात विद्या का कांतिमय चेहरे को देखते उसके दाएं गालों पर पड़ी लट को निहारने लगा…पल-छिन बीतने लगे, दोनों मौन बने रहे।
मौन में वाणी की अपारतया अधिक शक्ति होती है, परस्पर भावों का सम्प्रेषण सरलता से होता है जो इस समय यहां हो रहा था। विद्या का ड्राइंगरूम हवन जैसी सुगंध से भर उठा। जैसे उसके बप्पा और बाबूजी आत्म रूप में वहां आकर अपनी उपस्थिति दे रहे हों और दोनों दैहिक प्राणियों को दैविक स्थिति में पहुंचाने के लिए आशीष पुष्पों की वर्षा कर रहे हों। ‘‘मां!’’ राकेश समोसे लेकर आ गया था। सेंटर टेबिल पर रखी प्लेट पर वह पैकेट से गरमागरम समोसे निकालकर सजाने लगा, जिसकी महक ड्राइंगरूम में पहले से बह रही सुगंध के साथ घुल-मिलकर मिल-जुलमन बन रही थी।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
लेखक-महेंद्र भीष्म