Aman Singh Ko Rachhro अमान सिंह कौ राछरौ

Aman Singh Ko Rachhro में पन्ना के राजा अमान सिंह और अकोड़ी के जागीरदार श्री जुझार सिंह के द्वन्द युद्ध का वर्णन है। भोजन करते समय किसी साधारण सी  बात  पर  साले-बहनोई  में  विवाद  हो  गया और भोजन की थालियाँ छोड़कर तलवार तानकर आपस में भिड़ गये।

बुन्देलखंड की लोक-गाथा अमानसिंह कौ राछरौ

बुन्देलखंड मे लोक-गाथाओं का प्रचलन बहुत प्राचीन है। ‘रासो, रायछे, राछरे, साके, पवारे और चरित्र लोक गाथाओं के ही स्वरूप हैं। लोक गाथाएँ मानव-जीवन की मर्मस्पर्शी झाँकियाँ हैं, जिनका लोक साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये मानव के हर भाव का स्पर्श करती हैं।

इनमें लोक-जीवन की साधारण -असाधारण घटनाओं का लोक भाषा में सजीव चित्रण होता है। यही कारण है कि गाथा साहित्य में मानव जाति के आचार-विचार, रीति-रिवाज, धार्मिक-विश्वास, आशा-निराशा और सुख-दुःख की सजीव झाँकी दिखाई देती है।

यदि यह प्रश्न उपस्थित होता है कि गाथा क्या है और यह कहाँ से अवतरित हुई है, तो यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि गाथाएँ मानव हृदय के सीधे सादे उद्गार हैं, जो गाथा साहित्य के रूप में मानव समाज को सुखानुभूति देते हैं और उनमें कल्पना का मिश्रण होता  जाता  है।  इनमें  प्रायः  युद्ध  का  वर्णन होता  है।

अमानसिंह  के  राछरे  में  पन्ना  के राजा अमानसिंह  और  अकोड़ी  के  जागीरदार  श्री  जुझार  सिंह  के  द्वन्द  युद्ध  का  वर्णन है।  भोजन  करते  समय  किसी  साधारण  सी  बात  पर  साले-बहनोई  में  विवाद  हो  गया और भोजन की थालियाँ छोड़कर तलवार तानकर आपस में भिड़ गये।

ये एक प्रकार की असहिष्णुता Intolerance  और स्वाभिमान Self respect की लड़ाई थी, जिसमें बुंदेली के तेज, शौर्य और साहस का  स्वरूप  दिखाई  देता  है।  बुंदेलखंड  के  इतिहास  में  पन्ना  के  राजा  अमानसिंह  का शासन  काल  सन्  1752  से 1758  तक  निर्धारित  किया  गया  है  और  इतिहास  में साले-बहनोई  के  द्वन्द्व  के  संकेत  प्राप्त  होते  हैं।

राछरे  में  बुंदेली  संस्कृति  की  जीती जागती प्रतिमा दिखाई दे रही है। लोक गाथा का शुभारंभ सावन के सुहावने महीने से होता है। सावन का महीना लगते ही सबकी बहिनें अपने-अपने मायके जाने की तैयारी कर रही हैं। ऐसे समय में पन्ना नरेश अमानसिंह को भी अपनी बहिन सुभद्रा की याद आई।

सदा न तुरैया फूलें अमन जू, सदा न सावन होय।
सदा न  राजा  रन  चढ़े, सदा  न  जीवन  होय।।
राजा मोरे अमन बुंदेला कौ राछरों।
सबकी बहिनियाँ झूलें हिंडोरा, तुम्हारी बहिन बिसूरें परदेश।

अमानसिंह की पत्नी बार-बार कह रही है –
नौवा पठै दो बमना पठै दो, बइया जू की दिन घर आयें।

माता जी भी अपनी प्रिय पुत्री को देखने के लिए आकुल हैं, किन्तु अमान सिंह परदेश जाने के लिए तैयार नहीं हैं। वे अपनी माता जी से कहने लगते हैं –
हम  विदेसे  न  जायें  माई, नौवा खौं गलियां बिसर गईं।
बमना खौं सुध गई भूल।

माता अपने बेटे अमान सिंह से बहिन के महत्त्व को प्रदर्शित करती हुई कहती हैं- देखो बेटे बहिन-भाई का संबंध कितना मूल्यवान होता है?
किनकी तुम लैहो तुम बेटा भुंजरियां? किनके छूहों दोई पाँव?
बहिन सुभद्रा की लेबूँ कजरियां। उनई के लटक छूबौं दोई पाँव।

रक्षाबंधन, भइया-दोज और कजलियों के त्योहार के अवसर पर भाई को अपनी बहिन की अनुपस्थिति दुःखदायिनी लगती है। माताजी की आज्ञा का परिपालन करने के लिए अपनी बहिन सुभद्रा को लिवाने के लिए तैयार हो जाते हैं। राजकुमार अमानसिंह की साज-सज्जा करने में अनुचर तत्पर हो जाते हैं। जरा देखिये उनकी साज-सज्जा का एक दृश्य-
हेरो रे नौवा हेरों रे बमना, अमान जू कौ करों सिंग्गार।
नौवा तों खोरैं समारैं अमान जू कीं, बमना बौ तिलक लगाय।
झपट अटरियाँ चढ़ गये अमान जू, तकतन में मौं देखें राजा अमान।
हन हन स्वापा बाँधें।

पूरी तरह सुसज्जित होकर राजकुमार नाई-पंडित को बुलाकर, डोला सजाकर, नीले रंग के परिपुष्ट घोड़े पर बैठकर बहिन को लिवाने के लिए ‘अकोड़ी’ नगर को चल देते हैं। उस समय राजकुमार की उमंग और उत्साह देखते ही बनता है। बुंदेलखंड में यात्रा करते समय शुभ-शकुन साधने की प्रथा है, किन्तु चलते समय राजकुमार को अपशकुन हो गया-
छींकत घुल्ला पलानें अमन जू, असगुन भये असवार।
पांच पैंड़ निकरई नईं पाये, रीती मिली पनिहार।
मारें बहिना खींच कटारी तोय, कै बदल घर जायें।
हम तौ कहिये लाला कुआँ पनिहारी, हमर कौन बिचार।
गाँव कौ ग्योंडो निकल न पाये अमन सींगा, करिया नाग सन्नायें।
कै तोयें मारें नागा भरकैं तुबकिया, कै तो बदल घर जायें।
ना मौय मारों भैया भरकैं तुबकिया, ना बदल घर जाओ।
हम तो कइये भइया धरनी के वासी, हमरेउ कौन विचार।

बुन्देली संस्कृति में शकुन-अपशकुन को प्रमुख स्थान दिया जाता हैं। खाली घड़ा सिर पर रखी हुई महिला, मार्ग काटता हुआ नाग, सियार, हिरण  और बिल्ली अपशकुन सूचक माने जाते हैं। अमान सिंह घोड़े पर सवार होकर ज्यों ही बाहर निकले, तो उन्हें अपशकुन हो गया। मन में दुविधा तो उत्पन्न हो गई, फिर अकौड़ी की ओर आगे बढ़ते गये। अकौड़ी का मार्ग बड़ा ही दुर्गम था। फिर भी बाधाओं को सहन करते हुये आगे बढ़ते गये। उनके मन में अत्यधिक उत्साह और उमंग थी। उनकी साज-सज्जा का दृश्य देखिये-
घुड़लन घुंघरियां बजत जांय उड़ें गगन में धूल।
कुसमानीं पगड़ी बाँधें राजा अमान जू, खुरसैं गुलबिया फूल।
डोला खौ लागी डोंड़ा औ लायची लागी गलियँन महकत जांय।
रात चलें दिन धाइये पौंचें अकौड़ी माँझ।

ऊंचे महल की छत पर चढ़कर बहिन सुभद्रा अपने भाई अमानसिंह की प्रतीक्षा कर रही है।
ऊंचे अटा चढ़ हेरैं बहिन सुभद्रा, बिरन कहूँ न दिखाँय।
घुड़ला जो पौंचे दुआरे में दोरें में हल्ला मचायें।

सुभद्रा जी की सास ने तुरंत ही पुत्र-वधू को सूचित किया-
झपट अटरियां सास भमा जू, बिरना ठाँढ़े द्वार।
उतरों दुलैया जू ऊंचे अटा सों, बिरना ठाँढ़े द्वार।

बुंदेलखण्ड में अतिथि सम्मान का विशेष महत्त्व है। परिवार में अतिथियों के आगमन से आनंद की लहर दौड़ जाती है, किन्तु भाई-बहिन का रिश्ता सर्वोपरि है। भाई के आगमन पर बहिन का आनंद वर्णन है। बहिन कितनी उत्साहित और हर्षित है। गाथाकार ने लिखा है –
टेरों ने देवरा टेरों रे जेठा, सारे सों करलो  मिलाप।
पैयाँ परत रुपैया दो दीन्हें, भेंट करत मुहरें पाँच।
बार बखरिया जीजा हो भेंटे, सहोदरा चैकन माँझ।
कौना की जो भींजी पचरंग चुनरिया? कौना की पचरंग पाग?
बैना की भींजी सुरंग चुनरिया, भइया की  पचरंग  पाग।
सोनें टकोलना हात दये हैं, लटक छुये दोई पाँव।

अपने यहाँ अतिथियों के सम्मान के लिए विशेष प्रकार के सुस्वादु व्यंजन तैयार किये जाते हैं। भाई से बढ़कर मेहमान और कौन हो सकता है? बहिन के घर में भैया के लिए विशिष्ट प्रकार के भोजन की तैयारी होने लगी, जिसमें बुंदेली संस्कृति की झाँकी दिखाई दे रही है-
धोय मोय के गेंउआं पिसाय, मंडला पुवाय झकझोर।
चढ़ गईं ताम-तमेलियां, रँध गये मुठछर भात।
कचिया उरद के बरला पकाय,
भावन दये दध बोर। दार बनाई रज-मूँग की, लोंगन दये बघार।
चंदन गारी कड़ियाँ पकाईं, मैंथन दये बघार।

बुंदेलखंड के विशिष्ट व्यंजनों में गेहूँ के माँड़ें, काली मूँछ के चावल, उड़द के बरा, लोंगन से बघारी हुई रज मूँग की दाल, मैथी से बघारी हुई शुद्ध मट्ठे की कढ़ी का विशेष महत्त्व है। राजसी ठाट-बाट और राजसी भोजन की प्रक्रिया का कितना सुंदर चित्रण  गाथाकार ने किया है, जो देखने योग्य है-
बना रसोइया धरी बहिन नें, नौवा खौं देव टिराय।
नौबा केरे असनान कराये, उर धोती लेबैं फींच।
झपट अटरियाँ चढ़ गये अमान जू, सारोटें दईं बिछाय।
टेरों सासो भभा जू खौं, थार देव परसाय।

ये राजघराने के अतिथि सत्कार, जेवनार और सोने के थाल में भोजन करने की प्रक्रिया है, जो आज भी साधन सम्पन्न व्यक्तियों के घरों में संचालित है।
काय से थारन भोजन परोसे? काय के कचुल्लन घीव?
सोने के थारन भोजन परोसे, रूपे कचुल्लन घीव।
सारे बहनोई एक पटनैत बैठे, बैठे जना जन जोर,
बिरन हमाये ज्वाइयों भवाजू, हम अचरन पवन झकोर।

साले-बहनोई भोजन करने के लिए एक साथ बैठ जाते हैं। भोजन करने के पश्चात् चैपड़ का खेल प्रारंभ हो जाता है। साले-बहनोई बैठकर चैपड़ खेलने लगते हैं। चैपड़ में अमान सिंह पराजित हो जाते हैं।

जुझार सिंह जीतकर अमानसिंह से दासी का पुत्र कह देते हैं। ये व्यंग्य बाण  बुंदेला के हृदय में चुभ गया। सुनते ही अमान सिंह तिलमिला कर बोले- कि मैं अपने अपमान का बदला आपसे लेकर रहूँगा। तैयार रहना मैं सेना सजाकर आप पर चढ़ाई करने आ रहा हूँ।
जो हम लौंड़ी के जाये हुइयैं। तौ हम ईकौ देंय ज्वाब।
खेलत-खेलत बड़ी देर भई, खेलत बढ़ गई रार।
पेंज में उठ गई जेज में। चैपर दई फटकार।

और क्रोधित होकर अमानसिंह अटारी से नीचे उतर आते हैं-
झपट अटरिया उतरे अमान जू,
घुड़ला लये हैं हात।
चल रे नौबा चल रे बमना, चल रे हमरे संग।
जो हम लौंड़ी के जाये हुइयैं, तौ ईकौ हम दैहैं ज्वाब।

अमानसिंह पर स्वाभिमान का भूत सवार हो गया। वे लौटकर पन्ना आ गये। माता और पत्नी से सारी व्यथा-कथा कह सुनाई। उनकी माताजी और महारानी ने बहुत समझाया, किन्तु उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने अपनी माता जी से स्पष्ट कह दिया-
हटो री माता मोरी  नजर  से, हुइयैं जौ राजा लौंड़ी के जाये।
तौ दैहौं ईकौ ज्वाब।

महारानी ने उन्हें समझाते हुए कहा-
जो तुम बहिन पै चढ़कैं जैहों,
तौ मैं मरों विष खाँय।

अमानसिंह तिलमिलाकर उत्तर देते हैं-
जो तुम धना रह कैं खाती तो,
तौ अबई काय नईं मर जाव।
कर लैहों सत्तरा ब्याव।

अंत में सेना लेकर अमानसिंह ‘अकौड़ी’ पर चढ़ाई कर देते हैं। भीषण संग्राम होता है। उसकी बहिन सुभद्रा में भी क्षत्रीत्व जाग पड़ा और वह भी अपने पति के साथ युद्ध क्षेत्र में कूद पड़ती है। उस भयंकर संग्राम में ‘जुझार सिंह’ धँधेरे की मृत्यु हो जाती है। उनकी बहिन सुभद्रा विधवा हो जाती है।

पैले बगुरदा घाले अमान जू, बहनोई गरद हो जाये।
दूजे बगुरदा घाले अमान  जू, लै लई धंधेरे की मूँढ़।
चंदन की लकड़ी कटबाई बुंदेला, डरवाई बागन माँझ।
रनवासे खौं दये बुलाय, बहनोई कौ दाग लगाय।

अपने हाथ से बहनोई का दाह-संस्कार किया। अपनी बहिन के वैधव्य की पीड़ा को देखकर उनका हृदय दहल गया। वे मन ही मन पछताने लगे। आक्रोश में आकर भारी अनर्थ हो गया। उनका मन ग्लानि से भर गया। अंत में राजा अमानसिंह ने अपनी छाती में कटार भोंक कर प्राण त्याग दिये। बहिन दुःखी होकर कह उठती हैं –

कौंना पै पैरें भइया हरीं पीरीं चूरियां, कौंना पै सोलह सिंगार।
सोंना की पहनों बहना चूरियां, खइयों डबा भर  पान।
भौजइया पै करियौ राज।

बहिन- चूले में बरजा भइया सोनें की चूरियां, मोरी काँच की अमर हो जाय।
ऐसे बचन सुन प्यारी बहना के, अमना नें मार लई कटार।

राछरे में स्पष्ट संकेत हैं कि आत्मग्लानी के कारण अमान सिंह ने कटार मारकर प्राण त्याग दिये थे। गाथा और इतिहास के कथन में कुछ अंतर दिखाई देता है। फिर भी गाथा को अनैतिहासिक नहीं कहा जा सकता है। मौखिक परम्परा और कल्पना के कारण लोकगाथा की कथावस्तु में अंतर आ गया है, किन्तु मूल घटना इतिहास के समीप ही है। पन्ना के राजा अमानसिंह बहुत ही लोकप्रिय शासक थे। एक लोकप्रिय ख्याल आज भी जन-जन की जबान पर है-

अरे काँ गये राजा अमान, काँ गये राजा अमान,  तुमखौं जे रो रईं चिरइयाँ।

अमानसिंह के दरबारी कवि ‘मल्ल’ जी ने उन पर एक सुंदर और सारगर्भित छंद लिखा था-
आज महादीनन कौ, सूखि गौ दया कौ सिंधु,
आज ही गरीबन कौ, गाथ सब लूटिं गौ।
आज-द्विज राजन कौ, सकल अकाज भओं,
आज महाराजन कौ, धीरज सों टूटि  गौ।
मल्ल कहैं आज सब, मंगन अनाथ भये,
आज ही अनाथन कौ, कर्म सब फूटि गौ।
पन्ना कौ अमान सुरलोक कौ भूपाल भओं,
आज कवि जननकौ, कल्प-तरु टूटि गौ।।

संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त

मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

 

admin
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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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