जब किसी पर इतना भरोसा हो जाय, स्वयं को उसके सानिध्य मे सुरक्षित समझे विभिन्न विषयों पर वे घंटों बातें करते, बहस की स्थिति पर अपनी-अपनी बात सिद्ध करने के वे दोनों उपाय ढूँढ़ते ऐसे मौकों पर उम्र और अनुभव का बंधन परे हो जाता। भाईजी से उसका सम्बंध-व्यवहार कई रूपों में था, गुरु-शिष्य, पिता-पुत्री, भाई-बहन, कवि-कवि और मित्रवत। जब अचानक भरोसा टूटे …. “भाईजी!… आप भी?” Aap Bhi! कपिला के मुँह से विस्मित करते स्वर निकले,…।
पिछले माह की चौदह तारीख को कपिला ने अपनी उम्र का सत्रहवाँ साल पूरा किया था। पिछले कुछ वर्षों में सत्रहवों बार उसने पुरुष वर्ग को अपनी ओर ललचाई दृष्टि से घूरते पाया था। जैसे अजगर खरगोश को समूचा हड़प जाने की फिराक में रहता है, ठीक उसी तरह क्या उसे भी समाज के ये नर भेड़िए समूचा निगल जाना चाहते हैं? कभी-कभी वह सोचती क्या सुंदरता अभिशाप है? क्या उसके जैसी सभी लड़कियों के साथ ऐसा होता है? पिछले तीन-चार वर्षों में उसने बहुत कुछ सीख लिया था।
बचपन का अल्हड़पन, बेपरवाह जिंदगी कब की पीछे छूट चुकी थी। सलीके से उठना-बैठना, पुरुषों से सँभलकर मिलना, यह सब उसे अपने आप आता चला गया। एकाध वाकया को छोड़कर अभी तक कोई भी उसे गलत स्पर्श करने में सफल नहीं हुआ था। प्रयास तो आए दिन होते ही रहते हैं । ‘जवान लड़की को पग-पग सँभल कर चलना चाहिए। पुरुष और स्त्री में आग और रुई जैसा संबंध होता है।’ दादी की कही सीख, जो पहले उसे निरर्थक लगती थी, अब अक्षरश: सत्य प्रतीत होती दिखाई देती थी। जब कभी वह अखबारों में छपे पुरुषों के बर्बरता पूर्ण कुकृत्य की परिणतिस्वरूप किसी मासूम लड़की या अबला स्त्री के साथ घटी घटना को पढ़ती, तो उसका दिल दहल उठता ‘आखिर पुरुष ऐसा क्यों होता है? क्या सभी पुरुष ऐसे होते हैं?’
अनेक प्रश्न उसके मन-मस्तिष्क में उभर आते और वह गहरी सोच में डूब जाती। सोचने की इसी उर्वरा शक्ति ने उसे कब कवयित्री के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया, वह समझ ही नहीं पाई। यद्यपि वह विज्ञान की छात्रा है, साहित्य से उसका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं रहा है, तथापि लोग उसकी लिखी कविताओं की तारीफ करते नहीं अघाते थे। छोटे-बड़े कवि सम्मेलनों में ‘वंश मोर’ उसी के लिए श्रोताओं द्वारा सर्वाधिक कहा जाता।
पापा के अभिन्न मित्र, नगर के प्रतिष्ठित नागरिक, समाजसेवी और सदैव प्रसन्न रहने वाले भाईजी को कपिला ने अपना आदर्श मान लिया था। भाईजी ने ही उसे ‘कपिला श्री’ प्रथम बार कहा था तभी से वह साहित्य जगत में ‘कपिला श्री’ के नाम से जानी जाने लगी थी। भाईजी की कृपा से ही उसे कवि सम्मेलनों में स्थान पाने के लिए कोई मशक्कत नहीं करनी पड़ी थी। उन्हीं की बदौलत ही उसकी लिखी कविताएँ नगर व प्रान्त की पत्र-पत्रिकाओं में छपना प्रारंभ हो चुकी थीं। अपनी प्रकाशित रचना को देखकर वह प्रसन्नता से झूम उठती और फिर और अधिक उत्साह से वह रचनाएँ रचने लग जाती।
पुरुष समाज में उसे सिर्फ भाईजी ही ऐसे लगते, जो उसे पुत्रीवत स्नेह देते, गुरु की भाँति प्रोत्साहित करते और अग्रज की तरह समझाते थे। शेष परिचितों में अधिकांश की दृष्टि उसके सुंदर शरीर के अंग-प्रत्यंगों में तीर की भाँति उसे चुभती थी। अपने पुरुष सहपाठियों से वह बहुत कम बात करती थी, क्योंकि वह यह भली-भाँति समझने लगी थी कि इन पुरुषों से जरा-सा भी हँस-बोल या मुस्करा लेना उनसे अधिक बात करना खतरे से खाली नहीं होता। परस्पर वार्ता के दौरान आँखों से उसके शरीर को किसी के द्वारा नापना-तौलना उसे बहुत खटकता था। ऐसे समय उसकी इच्छा सामने वाले का मुँह नोच लेने की होने लगती, परन्तु परिस्थितिवश उसे मन-मसोस कर रह जाना पड़ता था। कपिला समाज के ऐसे बनावटी और दोगले पुरुषों से सख्त नफरत करती थी।
कमनीय काया, आकर्षक व्यक्तित्व, मीठा गला और कविता रच उसे सस्वर पाठ कर लेने की कहन-क्षमता की ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा की धनी कपिला की ओर किसी का सहज आकर्षित हो जाना स्वाभाविक था।
कपिला को अपने बराबर की उम्र का युवा पुरुष ज्यादातर निर्दोष लगता। अपेक्षाकृत बुजुर्ग कहलाने और दिखने वाले पुरुष वर्ग से। इन्हीं तथाकथित बुजुर्गों से वह सदैव भय खाती थी। बचपन में होश सँभालने के बाद से ही वह ऐसे सफेद बालों वालों के चूमने और सहलाने की क्रिया को समझने लगी थी, जिनके लाड और दुलार में स्नेह कम कामुकता अधिक होती थी। आखिर यह पुरुष ऐसे क्यों होते हैं?
क्या ऐसा घृणित कार्य वे अपने घर-परिवार की बच्चियों के साथ भी कर सकते हैं? इन्हीं प्रश्नों के घेरों के बीच से निकलकर पुरुषों के दोमुँहे चेहरों को बेनकाब करती उसकी कविताएँ पुरुषवर्ग के अहम पर व्यंग्यात्मक करारी चोट करती थीं। भाईजी कपिला की कविताओं के कायल थे। उन्हें इस तरुणी कवयित्री में असीम संभावनाएँ दिखाई देती थीं। वह उसकी सोच और कल्पनाशीलता के लिए उसे दाद देते नहीं थकते थे। यहाँ तक कि भरे मंच में जब, तब वह उसे भविष्य की महादेवी वर्मा तो कभी सुभद्राकुमारी चौहान होने की घोषणा कर देते।
भावातिरेक में भाईजी कभी-कभी कपिला की पीठ शाबासी से थपथपा देते, उसके सिर पर हाथ फेरते, तो कभी उसका माथा चूम लेते। कपिला को यदि अपने पिता के अलावा किसी का पितातुल्य स्नेह मिला, तो वह भाईजी का स्पर्श था। भाईजी से उसका सम्बंध-व्यवहार कई रूपों में था, गुरु-शिष्य, पिता-पुत्री, भाई-बहन, कवि-कवि और मित्रवत। विभिन्न विषयों पर वे घंटों बातें करते, बहस की स्थिति पर अपनी-अपनी बात सिद्ध करने के वे दोनों उपाय ढूँढ़ते ऐसे मौकों पर उम्र और अनुभव का बंधन परे हो जाता।
कपिला की दादी अब संसार में नहीं रहीं, उम्र पूरी कर गोलोकवासी हो चुकी थीं । हाँ! अब दादी की जगह माँ ने ले ली थी, जिन्हें भाईजी के साथ कपिला का कवि सम्मेलनों में जाना, देर-सबेर घर वापस आना अच्छा नहीं लगता था, परंतु कपिला और कपिला के पापा के सामने उनकी एक नहीं चलती थी। माँ की सारी सीखें कपिला शिरोधार्य करती, परंतु भाईजी के बारे में कुछ भी उल्टा-सीधा सुनना उसे कतई गँवारा नहीं था।
माँ के द्वारा घुमा-फिराकर अक्सर ही उसे समझाने के उद्देश्य से ही भाईजी का प्रसंग शुरू करते ही कपिला भाँप जाती और तैश खा जाती। भाईजी उसके आदर्श थे और आदर्श के विरुद्ध एक भी शब्द सुनना उसे असहनीय होता था। माँ से उसकी बोलचाल ऐसी ही बातों को लेकर अक्सर बंद हो जाती। पापा की मध्यस्थता और माँ के द्वारा सॉरी बोलने पर ही उसकी माँ से पुनः बातचीत प्रारंभ हो पाती थी।
स्थिति-परिस्थिति व समय-काल कभी-कभी ऐसे संयोग उपस्थित कर देता है, जो व्यक्ति की दमित इच्छाओं को पूरा कर लेने के लिए अनुकूल बना देता है। अप्रत्याशित घटनाएँ जरा-सी चूक होने से ऐसे संयोग पर घटित हो जाने के लिए अवश्यंभावी हो जाती हैं।
मथुरा का कवि मंच लूटकर कपिला भाईजी के साथ चंडीगढ़ एक्सप्रेस से ए.सी. थ्रीटायर के कम्पार्टमेंट की रिजर्व बर्थ पर लखनऊ वापस आ रही थी। भाईजी के हृदयतल से निकली प्रशंसाओं के साथ उसने रात्रि-भोजन किया था। देर तक कवि सम्मेलन की खुशियों को हृदय में सँजोये भविष्य के मीठे सपनों के साथ वह कंबल ओढ़े भाईजी की गोद का सिरहाना लिए सोती-जागती रही, फिर पता नहीं कब उसकी आँख लग गई।
भाईजी भी कपिला का माथा-सिर दबाते-थपथपाते ऊँघने लगे थे। गहराती रात और साथ के सहयात्रियों के खर्राटों ने उन्हें समय का आभास कराया, उन्होंने गहरी नींद में डूबी कपिला के दमकते चेहरे को निहारा। कपिला की लोअर बर्थ से अब उन्हें अपनी मिडिल बर्थ ठीक कर सोने जाना चाहिए। यह निश्चय करते हुए वह उठने के लिए उद्धत हुए ही थे कि तभी कपिला ने करवट बदली और भाईजी तत्क्षण पसीने-पसीने हो गए, उनकी साँसें तेज-तेज चलने लगीं ….वह घबरा गए। कपिला के क्षणिक स्पर्श ने उन्हें अन्दर तक हिला दिया था। हौले से कपिला का सिर अपनी गोद से हटाते वह जैसे-तैसे अपने स्थान से उठे और सीधे टॉयलेट चले गए। मूत्र विसर्जन कर हाथ-मुँह धो वह टॉयलेट के बाहर बने वाश-बेसिन के पास वाले दरवाजे पर जा खड़े हुए।
कंपार्टमेंट का अटेंडेंट साइड बर्थ पर कंबल से मुँह ढँके सो रहा था, उसकी तकिया नीचे गिरी पड़ी थी। तकिया उसकी बर्थ पर रख भाईजी ने वाश-बेसिन के ऊपर लगे दर्पण में अपना चेहरा देखा। आँखों पर पानी का किंच्छा मार, मुँह धोया, कुल्ला किया, फिर तौलिया से मुँह पोंछ देर तक यूँ ही खड़े रहे। नाना प्रकार के विचार उनके मन-मस्तिष्क में उथल-पुथल मचा रहे थे। कामवेग इन विचारों को मथ रहा था। निर्णय-अनिर्णय, अच्छाई-बुराई की सारी बातें उन्हें कभी सचेत करतीं, तो कभी आगे बढ़ने के लिए उकसातीं। तर्क-कुतर्क में द्वंद्व मचा था।
‘हे ईश्वर! क्षमा करें! मैं सोच भी कैसे सकता हूँ? ऐसा कलुषित विचार मेरे मन में आया ही कैसे?’ दृढ़-निश्चय के साथ वापस आकर भाईजी ने अपनी मिडिल बर्थ ठीक की, उस पर चादर बिछाई, तकिया सिरहाने रखा। बर्थ पर चढ़कर जाने को हुए ही थे कि कपिला ने फिर करवट बदली। करवट बदलते ही उसका ओढ़ा आधा कंबल नीचे लटकने लगा और कंबल हट जाने से कपिला की गोरी पिंडलियाँ भाईजी की आँखों को अंधा बनाने लगीं। कंबल ठीक करते वह सम्मोहित से कपिला के पायताने जा बैठे।
उनका दायाँ हाथ कपिला की बाईं पिंडली को थामे हुए था। वह अपना हाथ आगे पीछे सरका नहीं पा रहे थे। टनों वजन उनकी हथेली में दबाव दे रहा था। भाईजी हाथ के स्पर्श मात्र से ही रोमांचित-उत्तेजित हुए जा रहे थे। हथेली ऊपर और ऊपर सरकाते जाने का उनका मन होने लगा। धर्मपत्नी के स्वर्गवास के बाद से अटूट ब्रह्मचारी भाईजी अब स्वयं को इस सुख से वंचित नहीं रखना चाह रहे थे।
कपिला दिवा-स्वप्न में डूब-उतरा रही थी, उसे लगा कोई उसे छू-सहला रहा है । वह उन्माद और उत्तेजना में बही जा रही थी, जो भी उसके साथ घट रहा है, उसे वह चाह कर भी रोक नहीं पा रही थी। यौन अतिरेक क्या इसे ही कहते हैं? जिसे उसने कभी-कभी महसूस भी किया है। कौन होगा जो उसके साथ यह दुःसाहस कर रहा है? स्वप्न से यथार्थ में आते ही घड़ों पानी उस पर पड़ गया। आँखें खोलते ही अपने आदर्श भाईजी उसे अपने पायताने बैठे दिख गए, ‘……तो क्या?….ओह नहीं!… यह क्या कर रहे थे वह ….उसके साथ.. वह ऐसा कैसे कर सकते हैं? …..और पल भर में कपिला उठ कर बैठ गई।
भाईजी घबरा कर खड़े हो गए। ‘काटो तो खून नहीं’। कपिला की विस्फारित-भयभीत सी चकित आँखों का वह कैसे सामना कर सकते थे? एक साधु की भंग होती तपस्या, वह स्वयं में जड़ और किंकर्तव्यविमूढ़ से जड़वत हो गए। गला सूख रहा था। चक्कर खाकर गिरने वाले ही थे कि कपिला ने उन्हें सहारा दिया। पानी की बोतल से पानी पिलाया। उनको अपनी लोअर बर्थ पर लिटाने में मदद की। ऐसी ठंड में भी पसीने से लथपथ भाईजी के चेहरे को तौलिए से पोंछा।
“भाईजी!… आप भी?” कपिला के मुँह से विस्मित करते स्वर निकले,…’अब आप सो जाओ।” इतना कह वह मिडिल बर्थ पर जाकर लेट गई। भाईजी शर्म और ग्लानि में डूबे जा रहे थे। किये गए पाप से मुक्ति के उपाय खोज रहे थे। काश! यह सब स्वप्न रहा हो…. क्या कपिला उन्हें क्षमा कर पाएगी? वे स्वयं की सामाजिक मृत्यु तक की सोच में, गहरे अवसाद में डूबने-उतराने लगे।वह अपनी प्रिय शिष्या की नजरों में सदा के लिये गिर चुके थे, जिस सम्मान को वह कपिला से हक से लेते थे, क्या वह उन्हें कभी पुनः मिल पायेगा?
कपिला को इस समय अपनी माँ, फिर दादी की तेज याद आ रही थी। दादी का साक्षात चेहरा उनकी सीख के साथ उसकी आँखों के सामने स्पष्ट बोल रहा था, ‘जवान लड़की को पग-पग सँभल कर चलना चाहिए, स्त्री और पुरुष देह में आग और रूई जैसा संबंध होता है, जो न उम्र देखता है न नाते-रिश्ते, न जाति और न धर्म कुछ नहीं देखता।’ दादी की सीख आज उसे बरबस सही मानने को बाध्य कर रही थी।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
कथाकार – महेन्द्र भीष्म