मेहतर बाबा – कुकड़ कू बाँग दई मुरगा जग गई मेहतर की रानी

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Mehtar Baba – Kukad Koo Bang Dai Murga

मेहतर बाबा

कुकड़ कू बाँग दई मुरगा जग गई मेहतर की रानी।
निकरन लगे भजन के मुखरा मीठी-मीठी-सी बानी ॥
अपनी पीरा सबई भूल कैं बोलें परमारथ-बोली ।
असुआँ दबा-दबा अँखियन में सूखी राख रई चोली॥  

चकिया के घर-घर में सोचत हलका भोर झारबे की ।
मैलो ढो-खो कैं सब कछु निज परिवार पालबे की ॥
ऐरौ-आहट सुनकैं तुरतई गोरी कनखिन सें झाँकें ।
ऐसौ लगे कि जैसे मँजली ढाँकै अमियन की फाँकेँ ॥

मैलौ तन है मैलौ उन्ना पै उजरी है घरवारी ।
पूरै पुरिया रात दिनाँ तब करतई घर की रखवारी ॥
देर रात लौटौं घर बारों गैरी निदिया सोऊत हती ।
राज घराने की घातने के सपनें सबरे गोऊत हती ॥

फुर फुर फिरन सुअर-सुगंरन की कुत्तन की भौं-भों भूकें  ।
सोव में हलकी-हलकी सी लगती मानौं हैं कूकें ॥
बच्चा-वारे उठें जिमाई लैके तकें चिथरियन कौं ।
कीचर भरी-भरीं आखिन से देखें परीं पुतरियन कौं ॥

मैली जमी काई की गगरी सिगरी सूखी परी हती ।
देर रात चुक गऔ तौ पानी फिर कोऊ नई भरी हती ॥
उठी मतारी झट चकिया से कुअला की कीरत गावे ।
झटपट खंच मटकिया पानी मौड़ी मोड़न की धुआवे ॥

उतै छछूँदर चीं चीं करके दब गई पाँव तरें दिन कें ।
किचिर किचिर से चुखरा दौरों पाँव बिलइया के गिन के ॥
रोउत जे नसजाये लड़इया असगुन भुनसारे  होवें ।
घर वारे लै उठें करौटा नहीं चैन से बे सोवें ॥

घरयाउल बज उठी महल के सिंह द्वार पै सोर भओ ।
जगौ जगौ सब जाग परौ अब तौ राजा के भोर भऔं ॥
खुली आँख तब जमादार की सपने से भारी-भारी ।
सेवा में हरदौल लला के जावे कर लई तैय्यारी ॥

पानी छिरक तनक सौ मौ पे  सुआपा सैं झट पौंछ लओ ।
मैल भरे ककुआ सें उरजे बारन हू कौं ओंछ लओ ॥
कुरता पैर मूगिया स्वापा बाँध हरीरो  मतवारौ  ।
लठ्टा के पंचा कों कसके चलौ लठ्ट लै घरवारौ ॥

हात फेर डाड़ी-मू छन पै लगै बाँकुरौ रन वारौ ।
ओलम से अबलौं है साँचो- साँचे से पुरखन वारौ ॥
खाली खेप निकर गई आगे दिखा परो सामू काँनौ ।
फड़की दाँईं आँख बिलइया रोई कूकर गुर्रानौ ॥

बोली धनियाँ असगुन हो रये जल्दी करौ न जाबे की ।
भूकें परे काल सैं अब तौ फिकर करौ कछु खाबे की ॥
बोलौं तोय परी खाबे की मेरौ मालिक आफत में ।
महल बुलौआ भऔ भोजन को जानें कैसी साँसत में ॥

होनें जान परत अनहोनी गई राजा की मत मारी ।
बेर-बेर हरदौल को टेरन गई सवारी सुखकारी ॥
मेरो मन भारी भारी है के रऔ आँगे की बातें ।
मोकौं लगत के मो मालिक के जीवन पै हो रई घातें ॥

हात छुड़ा कैं घरवारी सें  भगौ कि जैसें हो हिरने  ।
पतो हतौ का बाय कै अब तो घरै नई कबहूं फिरने ॥
पौंच पाओ द्वारें मिहलन के रंगओ सन्नाटौ खाँकें ।
रक्षक सिगरे बिसुर बिसुर के भीतर भीतर को झाँकें ॥

रानी कौ रोबो अरु सोबौ हरदौलन को जान परौ ।
सब समझ गये राजा के घर में बुरओ समऔ अब आन परौ ॥
मीची आँख सदाँ कौं अब तौ बा बुन्देला लाला ने ।
महासती को व्रत सौ पालौ वीर बुन्देलाबाला ने ॥

फौजी संग निभावे बारे गुन गाउत हैं देवन के ।
मेहतर ने जी भरकें खाये विष के भोजन जूठन के ॥
थकौ बोल सौ बोलौ धीरें कैसें चूकों जौ मौका ।
सदा मिली मालिक की जूठन पूरौ भओ मो सैं चौका ॥

रोज मिठाई मेवा हलुवा खाये मन की मस्ती के ।
आज आखिरी जूठन खाके संग जात हौं हस्ती के ॥
ओरछे की आबादी सबरी रोअत बिसूरत कहत हती ।
ऊँच-नीच खों त्याग जनम से गंगा जैसी बहत हती ॥

छोटी जात बड़ौ पै मानुस होत रऔ है धरती पैं ।
आन भरी जी जान खपाकेँ फसल संवारी परती पै ॥
जित होवै हरदौल चौंतरा मेंहतर की चौंतरिया हो ।
रानी-सी पैरे मितरानी फरिया और घंघरिया हो ॥

बुन्देलन को संग सदा सें  देत आये हैं मेहतर जू ।
मौजन में रये दूर भलै पै हटे न दुख के औसर जू ॥
जब जब गिरौ पसीना मिहलन लोऊ चुचानौ कुटिया कौ ।
लुटी मड़इया गरब घटा गई मिहिमा बारी मड़िया कौ ॥

जै होबे बुन्देल धरा की वन बिरछन की नदियन की ।
बीते जुग की और अँगाड़ आबेबारी सदियन की ॥  

रचनाकार -विंध्यकोकिल श्री भैयालाल व्यास