बुन्देलखण्ड के लोकगीतों में संयोग श्रृंगार का पक्ष जितना समृद्ध और भावमय है, उतना Bundeli Lokgeeton Men Viyog Shringar का नहीं। इसका कारण लोक का आशावादी स्वभाव और लोकमन है। वह गीतों में दुखड़ा नहीं सुनाना चाहता। जिस प्रकार कुछ लोग अपना दुख दूसरों को सुनाकर उन्हें दुखी नहीं करना चाहते, उसी प्रकार का लोक का दृष्टिकोण रहा है।
लेकिन जो भी अनुभूत पीड़ा है, वह तो गीत बनकर निकलेगी ही, लेकिन तब, जब ज्वालामुखी की तरह भीतर ही भीतर विस्फोट की ताकत अर्जित कर ले। इसीलिए इन गीतों की संख्या उतनी नहीं है, जितनी संयोगपरक गीतों की है ।
वियोग-वर्णन लोकसहज और लोकस्वच्छंद है। उसमें बंधी हुई परिपाटी पर शास्त्रीय चिन्ता, स्मृति, अभिलाषा आदि मनोदशाओं का बंधान नहीं है। यह बात अलग है कि किसी उदाहरण में कोई मनोदशा बैठ जाय। गौना न होने से युवती चिन्ता के कारण पीली पड़ गयी है और लोगों का कहना है कि पिंड रोग (पीलिया) हो गया है। यह भ्रान्ति वह स्वयं स्पष्ट कर देती है। पंक्तियाँ देखें-
पिया पिया कहत पीरी भई देहिया,
लोग कहें पिंड रोग।
गाँव के लोग मरम न जानें री,
भओ न गौना मोर।।
इन पंक्तियों में कोई दुराव-छिपाव नहीं है और न ही कोई कुण्ठाग्रस्तता। सीधा सरल कथन है। लेकिन विरहिणी जब अपनी सहेलियों को संयोग का सुख भोगता देखती है और उसके प्रियतम बहुत दूर है। फिर नारी का स्वाभिमान आड़े आ जाता है। इस कारण वह कुछ कह नहीं पाती, जिससे उसके हृदय में समुद्र जैसी तरंगें तीव्र वेग से उठती-गिरती हैं। पंक्तियाँ देखें-
सबके सैयाँ नियरे बसैं, मो दुखनी के दूर।
घरी घरी पै चाहत है, सो हो गये पीपरामूर।
हमखाँ आबैं हिलोरैं समुँद जैसी।।
पीपरामूर‘ में श्लेष है, जिसका एक अर्थ है ओषधि, लेकिन दूसरे अर्थ में पी=पिय$परा=दूसरे की$मूर=औषधि अर्थात् मेरे प्रिय दूसरे की ओषधि हो गये, जो उसके मिलन का सुख भोग रही है, इस अर्थ में ओषधि है। प्रिय के विदेश जाने की तैयारी से ही विरह की आशंका आरम्भ हो जाती है। संयोग की स्थिति में प्रिय ने प्रीति के रस का पौधा लगाया था, पर प्रवास में जाने से उसका सिंचन करने वाला नहीं रहेगा। वह तो रस का बिरवा है, उसे पानी नहीं प्रीति का रस चाहिए, तभी बह हरा-भरा रह सकता है। इसी आशंका से ग्रस्त नायिका अपने प्रिय से कहती है…
प्रेम-रीति-रस-बिरवा रे, पिय चलेउ लगाय।
सींचन की सुद लीजो, देखो मुरझि न जाय।।…..
इस उदाहरण में प्रेमानंद को पौधे के रूप में कल्पित किया गया है, जबकि एक गीत में पुष्प और भ्रमर के परम्परित उपमान-युग्म को प्रतीकात्मकता प्रदान कर दी गयी है। प्रिय रूपी भौंरा के चले जाने पर प्रिया रूपी बेला-कली कुम्हला जाती है। यहाँ प्रश्न सींचने का नहीं है, क्योंकि पठार के झरने से जल झिरता ही रहता है। झरने के जल के बावजूद बेला-कली मुरझा रही है। पंक्तियाँ देखें…
बेला-कली कुम्हलाय रे, भौंरा परदेसै निकर गये।
पाठे में झिरना झिरें, बेला कली कुम्हलायँ
पापी घड़ेलना न डूबे, मोरे मित्र प्यासे जायँ।बेला कली…..
विरह की पीड़ा की अभिव्यक्ति बारामासियों में अधिक घनीभूत है। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे विरहिणी सभी परिस्थितियों में करवट बदल-बदल कर रो रही हो। बारामासी में बारह माहों की प्रकृति से मिलती-जुलती भावना सुना जा सकती है, जो पीड़ा की उसी रंग में रंग लेती है। यहाँ एक-एक माह के भिन्न उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिससे उत्तर मध्ययुग (1601-1857 ई.) की वर्णन-पद्धति का परीक्षण किया जा सके। कुछ उदाहरण…
माह अषाढ़ असाढ़ मास आगी लगी, जर गये सकल सरीर।
प्रेम बूँद बरसी नहीं, मोरो जियरा धरै न धीर रे।।
असाढ़ मास लागे सजनी, चहुँ दिस बदरा घिर आये।
बोले मोर पपीहा बोले, दादुर वचन सुनाये।।
माह क्वाँर क्वाँर मास लागे हते, अंगन उड़ी भबूद।
सिर पै जटा रखाय कें, घर घर माँगे भीख रे।।
क्वाँर मास तीखे महिना, तप गये नदिया झोरा।
मैं दोखन बिरहा की मारी, छाती में उठत ककोरा।।
अषाढ़-क्वाँर असढ़ा बोले मोर सोर भये भारी।
सावन मासें जामुन बाढ़ी बिपन दरियारी।
भादों डर लागे मोय देख निस कारी।
क्वारें कौल हजार किये बनवारी।
उक्त उदाहरणों मे अषाढ़ और क्वाँर के तीन-तीन रूप हैं। अषाढ़ के पहले रूप में विरहिणी को आग जैसी गर्मी से पीड़ा होती है और उसे शान्त करने के लिए प्रिय की प्रीति रूपी बूँद तक नहीं बरसी, जिससे उसका हृदय बैचेन है। दूसरे में बादलों के घिरने और मोर, पपीहा तथा मेंढ़क के बोलने से नायिका की पीड़ा उभरती है ।
क्योंकि ऐसे समय प्रिय से संयोग-सुख उसे बैचेन करते हैं) तीसरा भी दूसरे का संक्षेप है। क्वाँर के पहले रूप में गर्मी के कारण अंगों में धूल लिपट गयी है, जो जोगी की भभूत (राख) जैसी है। सिर्फ सिर पर जटा रखाकर भीख माँगने की कसर है। दूसरे में गर्मी के ताप से नदी और उसके पोखर तप्त हैं।
नायिका का दोष यही है कि वह विरह की सतायी है, इसलिए उसकी छाती में (दुगनी गर्मी से) फफोले फूट पड़े हैं। तीसरे में प्रिय के हजार वायदे किये गये थे, पर वे नहीं आये। स्पष्ट है कि हर माह की प्रकृति से उत्पन्न अनुभव ही जो प्रिय के कारण संयाग-सुख देते थे अथवा जिनकी पीड़ा महसूस नहीं होती थी।
प्रिय के प्रवास से पीड़क हो गये हैं।बारहमासी एक ऐसी विशिष्ट विधा है, जिसमें विरहिणी अपने प्रिय को कभी नहीं भुला पाती। उसमें जहाँ विरह की पीड़ा का घनत्व मिलता है, वहाँ काव्यत्व का सहज अभिव्यंजन। बुंदेलखण्ड के लोककवियों में बारहमासी लोकगीत लिखने की रूचि रही है।
असाढ़ मास जब लागे सजनी, चहुँ दिस बादर छाये।
मोरा बोले पपीरा बोले, दादुर बचन सुहाये।।
क्वाँर मास की छुटक चाँदनी, बाढ़े सोच हमारे।
घर होते नैनन भर देखते, अउतन कंठ जुड़ाते।।
फागुन मास फरारे मइना, सब सखि खेलें होरी।
जगन्नाथ की बारामासी, गाबैं नंदकिसोरी।।
इन पंक्तियों में क्वाँर का महीना खिली चाँदनी का बताया गया है, जो सुखद है। फिर चिन्ताजनक इसलिए हो गया है कि प्रिय घर में नहीं है। अगर वे घर होते, तो उन्हें नैंना भरकर देखते और कंठ लगाते। इस प्रकार इनमें क्वाँर की चाँदनी को लिया गया है, जबकि प्रथम दो में गर्मी का वर्णन था। उद्दीपन दोनों से होता है, चाहे सुखद हो या पीड़ादायक उदाहरण की अंतिम पंक्ति मंे लोककवि का जगन्नाथ नाम बताया गया है और गायक का नंदकिशोर।
उद्दीपनों का योग
विरह-वेदना की तीव्रता में उद्दीपन अधिक सहायक है। वर्षा ऋतु के बादल विरहिणी को सबसे अधिक सताते हैं। साथ ही साथ वे विरहिणी के दूत बनकर प्रिय के पास जाते हैं और उसका संदेश पहुँचाते हैं। प्रिय को भी प्रिया की तरह वेदना से व्यथित करते हैं और अपनी प्रिया की स्मृति ताजा करते हैं। इन्हीं कार्य-व्यापारों पर आधारित कुछ उदाहरण देखें-
जिनके पिया परदेस बसत हैं, अँसुअन भींजे गुलसारी।
जिनके पिया परदेस बसत हैं, छाई महल अँधियारी।।
ओ कजरारे बादरा सुनियो मो संदेश।
मो दुखिनी के छाये हैं, सजना काऊ देस।।
जो कारौ रूप डरावनों, अपनो उतईं दिखाव।
जी डर सइयाँ आ मिलें, ऐसो रचो उपाव।। ओ कजरारे…।
मो दुखिनी की तुम करो, इतनी कऊँ सहाय।
तौ आँखन में राखहौं, कजरा तुमें बनाय। ओ कजरारे….।।
दूसरे उदाहरण में बादल एक दूत की तरह है, जिसे विरहिणी अपना डरावना रूप अपने प्रवासी को दिखाने के लिए कहती है, ताकि उसके प्रिय डरकर उससे आकर मिल लें। यदि बादल उसकी इतनी सहायता करता है, तो वह उसे आँखों में काजल बनाकर बैठा लेगी। वर्षा ऋतु के बाद दूसरी ऋतु बसंत है, जो विरहिणी को सदा दुख देती आयी है। कोयल का बोलना अकेली विरहिणी को भयभीत करता है। ठीक उसी तरह, जैसे वर्षा का मेघ। विरहिणी कहती है-
ऐसे बोल न बोल कोयलिया,
अकेली मोये डर लागे।
गुइयाँ अब होरी को लागो महिनवा।
एरी हाँ, मोरे अजहूँ न आये सजनवा।
बनतागन होरी खेलें पिया संग, अपने री अपने भवनवा।गुइयाँ.।
कोइल मोर बोल तन छेदत, बेधत बदन मदनवा।गुइयाँ।….
होरी का महीना और स्त्रियों का अपने प्रिय के साथ होरी खेलना विरहिणी के मन को दुख देते ही हैं। साथ ही कोयल और मोर के बोल मन को छेद डालते हैं और काम तन को घायल कर देता है। इस प्रकार वर्षा और वसंत के सारे संभार विरहिणी को सालते हैं, क्योंकि उसके मन में काम-भावना उद्दीप्त करते हैं।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल